नैमिषारण्य में दीर्घसत्र के अन्त में मुनियों के पास वायुदेवता का आगमन, उनका सत्कार तथा ऋषियों के पूछने पर वायु के द्वारा पशु, पाश एवं पशुपति का तात्त्विक विवेचन

सूतजी कहते हैं – मुनीश्वरो! उस समय उत्तम व्रत का पालन करनेवाले उन महाभाग महर्षियों ने उस देश में महादेवजी की आराधना करते हुए एक महान् यज्ञ का आयोजन किया। वह यज्ञ जब आरम्भ हुआ, तब महर्षियों को सर्वथा आश्चर्यजनक जान पड़ा। तदनन्तर समय बीतने पर जब प्रचुर दक्षिणाओं से युक्त वह यज्ञ समाप्त हुआ, तब ब्रह्माजी की आज्ञा से वायुदेव स्वयं वहाँ पधारे। उनको आया देख दीर्घकालिक यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले वे मुनि ब्रह्मजी की बात को याद करके अनुपम हर्ष का अनुभव करने लगे। उन सबने उठकर आकाशजन्मा वायुदेवता को प्रणाम किया और उन्हें बैठने के लिये एक सोने का बना हुआ आसन दिया। वायुदेवता उस आसन पर बैठे। मुनियों ने उनकी विधिवत् पूजा की। तदनन्तर उन सबका अभिनन्दन करके वे कुशल-मंगल पूछने लगे।

वायुदेवता बोले – ब्राह्मणो! इस महान् यज्ञ का अनुष्ठान पूर्ण होने तक तुम सब लोग सकुशल रहे न? यज्ञहन्ता देवद्रोही दैत्यों ने तुम्हें बाधा तो नहीं पहुँचायी? तुम्हें कोई प्रायश्चित्त तो नहीं करना पड़ा? तुम्हारे यज्ञ में कोई दोष तो नहीं आया? क्या तुम लोगों ने स्तोत्र और शस्स्रग्रहों द्वारा देवताओं का तथा पितृकर्मों द्वारा पितरों का भलीभाँति पूजन करके यज्ञ-विधि का अनुष्ठान भलीभाँति सम्पन्न किया? इस महायज्ञ की समाप्ति हो जाने पर अब आप लोग क्या करना चाहते हैं?

मुनियों ने कहा – प्रभो! हमारे कल्याण की वृद्धि के लिये जब आप स्वयं यहाँ आ गये, तब अब हमारा सब प्रकार से कुशल-मंगल ही है तथा हमारी तपस्या भी उत्तम होगी। अब पहले का वृत्तान्त सुनिये। हमारा हृदय अज्ञानान्धकार से आक्रान्त हो गया था, तब हमने विज्ञान की प्राप्ति के लिये पूर्वकाल में प्रजापति की उपासना की। शरणागतवत्सल प्रजापति ने हम शरणागतों पर कृपा करके इस प्रकार कहा – 'ब्राह्मणो! रुद्रदेव सबसे श्रेष्ठ हैं। वे ही परम कारण हैं। उन्हें तर्क से नहीं जाना जा सकता। भक्तिमान् पुरुष ही उनके स्वरूप को ठीक-ठीक देखता और समझता है। भक्ति भी उनकी कृपा से ही मिलती है और उस कृपा से ही परमानन्द की प्राप्ति होती है। अतः उनके कृपाप्रसाद को प्राप्त करने के लिये तुम लोग नैमिषारण्य में यज्ञ का आयोजन करो। दीर्घकाल तक चलनेवाले उस यज्ञ के द्वारा परम कारण रुद्रदेव की आराधना करो। यज्ञ के अन्त में उन रुद्रदेव के कृपा-प्रसाद से वायुदेवता वहाँ पधारेंगे। उनके मुख से वहाँ तुम्हें ज्ञानलाभ होगा और उससे कल्याण की प्राप्ति होगी।' महाभाग! ऐसा आदेश देकर परमेष्ठी ने हम सबको यहाँ भेजा। हम इस देश में आपके आगमन की प्रतीक्षा करते हुए एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक दीर्घकालिक यज्ञ के अनुष्ठान में लगे रहे हैं। अतः इस समय आपके आगमन के सिवा हमारे लिये दूसरी कोई प्रार्थनीय वस्तु नहीं है।

दीर्घकाल से यज्ञानुष्ठान में लगे हुए उन महर्षियों का यह पुरातन वृत्तान्त सुनकर वायुदेवता मन-ही-मन प्रसन्न हो मुनियों से घिरे हुए वहाँ बैठे रहे। फिर उन सबके पूछने पर उनके भक्तिभाव की वृद्धि के लिये उन्होंने भगवान् शंकर के सृष्टि आदि ऐश्वर्य को संक्षेप से बताया।

नैमिषारण्य के ऋषियों ने पूछा – देव! आपने ईश्वरविषयक ज्ञान कैसे प्राप्त किया? तथा आप अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी के शिष्य किस प्रकार हुए?

वायुदेवता बोले – महर्षियो! उननीसवें कल्प का नाम श्वेतलोहितकल्प समझना चाहिये। उसी कल्प में चतुर्मुख ब्रह्मा ने सृष्टि की कामना से तपस्या की। उनकी उस तीव्र तपस्या से संतुष्ट हो स्वयं उनके पिता देवदेव महेश्वर ने उन्हें दर्शन दिया। वे दिव्य कुमारावस्था से युक्त रूप धारण करके रूपवानों में श्रेष्ठ श्वेत नामक मुनि होकर दिव्य वाणी बोलते हुए उनके सामने उपस्थित हुए। वेदों के अधिपति तथा सबके पालक पिता महेश्वर का दर्शन करके गायत्री सहित ब्रह्माजी ने उन्हें प्रणाम किया और उन्हीं से उत्तम ज्ञान पाया। ज्ञान पाकर विश्वकर्मा चतुर्मुख ब्रह्मा सम्पूर्ण चराचर भूतों की सृष्टि करने लगे। साक्षात् परमेश्वर शिव से सुनकर ब्रह्माजी ने अमृतस्वरूप ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिये मैंने तपस्या के बल से उन्हीं के मुख से उस ज्ञान को उपलब्ध किया।

मुनियों ने पूछा – आपने वह कौन-सा ज्ञान प्राप्त किया, जो सत्य से भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर पुरुष परमानन्द को प्राप्त करता है?

वायुदेवता बोले – महर्षियो! मैंने पूर्वकाल में पशु-पाश और पशुपति का जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहनेवाले पुरुष को उसी में ऊँची निष्ठा रखनी चाहिये। अज्ञान से उत्पन्न होने वाला दुःख ज्ञान से ही दूर होता है। वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है। वस्तु के तीन भेद माने गये हैं – जड (प्रकृति), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता (परमेश्वर)। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशूपति कहते हैं। तत्त्वज्ञ परुष प्रायः इन्हीं तीन तत्त्वों को क्षर, अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं। अक्षर ही पशु कहा गया है। क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनों से परे जो परमतत्त्व है, उसी को पति या पशुपति कहते हैं। प्रकृति को ही क्षर कहा गया है। पुरुष (जीव) को ही अक्षर कहते हैं और जो इन दोनों को प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न तत्त्व परमेश्वर कहा गया है। माया का ही नाम प्रकृति है। पुरुष उस माया से आवृत है। मल और कर्म के द्वारा प्रकृति का पुरुष के साथ सम्बन्ध होता है। शिव ही इन दोनों के प्रेरक ईश्वर हैं। माया महेश्वर की शक्ति है। चित्स्वरूप जीव उस माया से आवृत है। चेतन जीव को आच्छादित करनेवाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है। उससे शुद्ध हो जाने पर जीव स्वतः शिव हो जाता है। वह विशुद्ध ही शिवत्व है।

मुनियों ने पूछा – सर्वव्यापी चेतन को माया किस हेतु से आवृत करती है? किसलिये पुरुष को आवरण प्राप्त होता है? और किस उपाय से उसका निवारण होता है?

वायुदेवता बोले – व्यापक तत्त्व को भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं। भोग के लिये किया गया कर्म ही उस आवरण में कारण है। मल का नाश होने से वह आवरण दूर हो जाता है। कला, विद्या, राग, काल और नियति – इन्हीं को कला आदि कहते हैं। कर्मफल का जो उपभोग करता है, उसी का नाम पुरुष (जीव) है। कर्म दो प्रकार के हैं – पुण्यकर्म और पापकर्म। पुण्यकर्म का फल सुख और पापकर्म का फल दुःख है। कर्म अनादि है और फल का उपभोग कर लेने पर उसका अन्त हो जाता है। यद्यपि जड कर्म का चेतन आत्मा से कुछ सम्बन्ध नहीं है, तथापि अज्ञानवश जीव ने उसे अपने-आप में मान रखा है। भोग कर्म का विनाश करनेवाला है, प्रकति को भोग्य कहते हैं और भोग का साधन है शरीर। बाह्य इन्द्रियाँ और अन्तःकरण उसके द्वार हैं। अतिशय भक्तिभाव से उपलब्ध हुए महेश्वर के कृपाप्रसाद से मल का नाश होता है और मल का नाश हो जाने पर पुरुष निर्मल – शिव के समान हो जाता है। विद्या पुरुष की ज्ञानशक्ति को और कला उसकी क्रियाशक्ति को अभिव्यक्त करने वाली है। राग भोग्य वस्तु के लिये क्रिया में प्रवृत्त करनेवाला होता है। काल उसमें अवच्छेदक होता है और नियति उसे नियन्त्रण में रखनेवाली है। अव्यक्त रूप जो कारण है, वह त्रिगुणमय है; उसी से जड जगत् की उत्पत्ति होती है और उसी में उसका लय होता है। तत्त्व-चिन्तक पुरुष उस अव्यक्त को ही प्रधान और प्रकृति कहते हैं। सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण प्रकृति से प्रकट होते हैं; तिल में तेल की भाँति वे प्रकृति में सूक्ष्मरूप से विद्यमान रहते हैं। सुख और उसके हेतु को संक्षेप से सात्त्विक कहा गया है, दुःख और उसके हेतु राजस कार्य हैं तथा जडता और मोह – वे तमोगुण के कार्य हैं। सात्त्विकी वृत्ति ऊर्ध्व को ले जाने वाली है, तामसी वृत्ति अधोगति में डालनेवाली है तथा राजसी वृत्ति मध्यम स्थिति में रखनेवाली है। पाँच तन्मात्राएँ, पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (चित्त), महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार और मन – ये चार अन्तःकरण – सब मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं। इस प्रकार संक्षेप से ही विकार सहित अव्यक्त (प्रकृति) का वर्णन किया गया। कारणावस्था में रहने पर ही इसे अव्यक्त कहते हैं और शरीर आदि के रूप में जब वह कार्यावस्था को प्राप्त होता है, तब उसकी 'व्यक्त' संज्ञा होती है – ठीक उसी तरह, जैसे कारणावस्था में स्थित होने पर जिसे हम 'मिट्टी' कहते हैं वही कार्यावस्था में 'घट' आदि नाम धारण कर लेती है। जैसे घट आदि कार्य मृत्ति का आदि कारण से अधिक भिन्न नहीं है, उसी प्रकार शरीर आदि व्यक्त पदार्थ अव्यक्त से अधिक भिन्न नहीं हैं। इसलिये एकमात्र अव्यक्त ही कारण, करण, उनका आधारभूत शरीर तथा भोग्य वस्तु है, दूसरा कोई नहीं।

मुनियों ने पूछा – प्रभो! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तु की वास्तविक स्थिति कहाँ है?

वायुदेवता बोले – महर्षियो! सर्वव्यापी चेतन का बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से पार्थक्य अवश्य है। आत्मा नामक कोई पदार्थ निश्चय ही विद्यमान है; परन्तु उसकी सत्ता में किसी हेतु की उपलब्धि बहुत ही कठिन है! सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धि का ज्ञान) अनियत है तथा उसे सम्पूर्ण शरीर का एक साथ अनुभव नहीं होता। इसीलिये वेदों और वेदान्तों में आत्मा को पूर्वानुभूत विषयों का स्मरणकर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों में व्यापक तथा अन्तर्यामी कहा जाता है। यह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न ऊपर है, न अगल-बगल में है, न नीचे है और न किसी स्थान-विशेष में। यह सम्पूर्ण चल शरीरों में अविचल, निराकार एवं अविनाशी रूप से स्थित है। ज्ञानी पुरुष निरन्तर विचार करने से उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर पाते हैं।

पुरुष का जो वह शरीर कहा गया है, इससे बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दुःखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शरीर ही सब विपत्तियों का मूल कारण है। उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्म के अनुसार सुखी, दुःखी और मूढ़ होता है। जैसे पानी से सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अज्ञान से आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीर को जन्म देता है। ये शरीर अत्यन्त दुःखों के आलय माने जाते हैं। इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है। भूतकाल में कितने ही शरीर नष्ट हो गये और भविष्यकाल में सहस्त्रों शरीर आनेवाले हैं, वे सब आ-आकर जब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है। कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीर में अनन्त काल तक रहने का अवसर नहीं पाता। यहाँ स्त्रियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों से जो मिलन होता है, वह पथिक को मार्ग में मिले हुए दूसरे पथिकों के समागम के ही समान है। जैसे महासागर में एक काष्ठ कहीं से और दूसरा काष्ठ कहीं से बहता आता है, वे दोनों काष्ठ कहीं थोड़ी देर के लिये मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछड़ जाते हैं। उसी प्रकार प्राणियों का यह समागम भी संयोग-वियोग से युक्त है। ब्रह्माजी से लेकर स्थावर प्राणियों तक सभी जीव पशु कहे गये हैं। उन सभी पशुओं के लिये ही यह दृष्टान्त या दर्शन-शास्त्र कहा गया है। यह जीव पाशों में बँधता और सुख-दुःख भोगता है, इसलिये 'पशु' कहलाता है। यह ईश्वर की लीला का साधन-भूत है, ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं।

(अध्याय ४ - ५)