महेश्वर की महत्ता का प्रतिपादन

वायुदेवता कहते हैं – महर्षियो! इस विश्व का निर्माण करनेवाला कोई पति है, जो अनन्त रमणीय गुणों का आश्रय कहा गया है। वही पशुओं को पाश से मुक्त करनेवाला है। उसके बिना संसार की सृष्टि कैसे हो सकती है; क्योंकि पशु अज्ञानी और पाश अचेतन है। प्रधान परमाणु आदि जितने भी जड तत्त्व हैं, उन सबका कर्ता वह पति ही है – यह बात स्वयं समझ में आ जाती है। किसी बुद्धिमान् या चेतन कारण के बिना इन जड तत्त्वों का निर्माण कैसे सम्भव है। पशु, पाश और पति का जो वास्तव में पृथक्-पृथक् स्वरूप है, उसे जानकर ही ब्रह्मवेत्ता पुरुष योनि से मुक्त होता है। क्षर और अक्षर – ये दोनों एक-दूसरे से संयुक्त होते हैं। पति या महेश्वर ही व्यक्ताव्यक्त जगत् का भरण-पोषण करते हैं। वे ही जगत् को बन्धन से छुड़ानेवाले हैं। भोक्ता, भोग्य और प्रेरक – ये तीन ही तत्त्व जानने योग्य हैं। विज्ञ पुरुषों के लिये इनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु जानने योग्य नहीं है। सृष्टि के आरम्भ में एक ही रुद्रदेव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत् की सृष्टि करके इसकी रक्षा करते हैं और अन्त में सबका संहार कर डालते हैं। उनके सब ओर नेत्र हैं, सब ओर मुख हैं, सब ओर भुजाएँ हैं और सब ओर चरण हैं। ये ही सब से पहले देवताओं में ब्रह्माजी को उत्पन्न करते हैं। श्रुति कहती है कि 'रुद्रदेव सबसे श्रेष्ठ महान् ऋषि हैं। मैं इन महान् अमृतस्वरूप अविनाशी पुरुष परमेश्वर को जानता हूँ। इनकी अंगकान्ति सूर्य के समान है। ये प्रभु अज्ञानान्धकार से परे विराजमान हैं।' इन परमात्मा से परे दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इनसे अत्यन्त सूक्ष्म और इनसे अधिक महान् भी कुछ नहीं है। इनसे यह सारा जगत् परिपूर्ण है। इनके सब ओर हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक, मुख और कान हैं। ये लोक में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। ये सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाले हैं, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित हैं। सबके स्वामी, शासक, शरणदाता और सुहृद् हैं। ये नेत्र के बिना भी देखते हैं और कान के बिना भी सुनते हैं। ये सबको जानते हैं, किंतु इन को पूर्ण रूप से जाननेवाला कोई नहीं है। इन्हें परम पुरुष कहते हैं। ये अणु से भी अत्यन्त अणु और महान से भी परम महान् हैं। ये अविनाशी महेश्वर इस जीव की हृदय-गुफा में निवास करते हैं।

एक साथ रहनेवाले दो पक्षी एक ही वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते हैं। उनमें से एक तो उस वृक्ष के कर्मरूप फलों का स्वाद ले-लेकर उपभोग करता है, किंतु दूसरा उस वृक्ष के फल का उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है। जीवात्मा इस वृक्ष के प्रति आसक्ति में डुबा हुआ है, अतः मोहित होकर शोक करता रहता है। वह जब कभी भगवत्कृपा से भक्तसेवित परम कारणरूप परमेश्वर का और उनकी महिमा का साक्षात्कार कर लेता है, तब शोकरहित हो सुखी हो जाता है। छन्द, यज्ञ, क्रतु तथा भूत, वर्तमान और भविष्य सम्पूर्ण विश्व को वह मायावी रचता है और माया से ही उसमें प्रविष्ट होकर रहता है। प्रकृति को ही माया समझना चाहिये और महेश्वर ही वह मायावी है। ये विश्वकर्मा महेश्वर ही परम देवता परमात्मा हैं, जो सबके हदय में विराजमान हैं। उन्हें जानकर ही पुरुष परमानन्दमय अमृत का अनुभव करता है। ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ, असीम एवं अविनाशी परमात्मा में विद्या और अविद्या दोनों गूढ़भाव से स्थित हैं। विनाशशील जडवर्ग को ही यहाँ अविद्या कहा गया है और अविनाशी जीव को विद्या नाम दिया गया है; जो उन दोनों विद्या और अविद्या पर शासन करते हैं, वे महेश्वर उनसे सर्वथा भिन्न – विलक्षण हैं। ये प्रतापी महेश्वर इस जगतू में समष्टिभूत और इन्द्रियवर्गरूप एक-एक जाल को अनेक प्रकार से रचकर इसका विस्तार करते हैं। फिर अन्त में संहार करके सबको अनेक से एक में परिणत कर देते हैं तथा पुनः सृष्टिकाल में सबकी पूर्ववत् रचना करके सब पर आधिपत्य करते हैं। जैसे सूर्य अकेला ही ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल की दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ स्वयं भी देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार ये भजनीय परमेश्वर अकेले ही समस्त कारणरूप पृथ्वी आदि तत्त्वों का नियमन करते हैं। श्रद्धा और भक्ति के भाव से प्राप्त होने योग्य, आश्रयरहित कहे जानेवाले, जगत् की उत्पत्ति और संहार करनेवाले, कल्याण-स्वरूप एवं सोलह कलाओं की रचना कर उन महादेव को जो जानते हैं, वे शरीर के बन्धन को सदा के लिये त्याग देते हैं अर्थात् जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूट जाते हैं।

वे ही परमेश्वर तीनों कालों से परे, निष्कल, सर्वज्ञ, त्रिगुणाधीश्वर एवं साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं। सम्पूर्ण विश्व उन्हीं का रूप है। वे सबकी उत्पत्ति के कारण होकर भी स्वयं अजन्मा हैं, स्तुति के योग्य हैं, प्रजाओं के पालक, देवताओं के भी देवता और सम्पूर्ण जगत् के लिये पूजनीय हैं। अपने हृदय में विराजमान उन परमेश्वर की हम उपासना करते हैं। जो काल आदि से परे, जिनसे यह समस्त प्रपंच प्रकट होता है, जो धर्म के पालक, पाप के नाशक, भोगों के स्वामी तथा सम्पूर्ण विश्व के धाम हैं, जो ईश्वरों के भी परम महेश्वर, देवताओं के भी परम देवता तथा पतियों के भी परम पति हैं, उन भुवनेश्वरों के भी ईश्वर महादेव को हम सबसे परे जानते हैं। उनके शरीररूप कार्य और इन्द्रिय तथा मनरूपी करण नहीं हैं, उनके समान और उनसे अधिक भी इस जगत् में कोई नहीं दिखायी देता। ज्ञान, बल और क्रियारूप उनकी स्वाभाविक पराशक्ति वेदों में नाना प्रकार की सुनी गयी है। उन्हीं शक्तियों से इस सम्पूर्ण विश्व की रचना हुई है। उसका न कोई स्वामी है, न कोई निश्चित चिह्न है न उस पर किसी का शासन है। वह समस्त कारणों का कारण होता हुआ ही उनका अधीश्वर भी है। उनका न कोई जन्मदाता है, न जन्म है, न जन्म के माया-मलादि हेतु ही हैं। वह एक ही सम्पूर्ण विश्व में, समस्त भूतों में गुह्यरूप से व्याप्त है। वही सब भूतों का अन्तरात्मा और धर्माध्यक्ष कहलाता है। वह सब भूतों के अंदर बसा हुआ, सबका द्रष्टा, साक्षी, चेतन और निर्गुण है। वह एक है, वशी है, अनेकों विवशात्मा निष्क्रिय पुरुषों को वश में रखनेवाला है। वह नित्यों का नित्य, चेतनों का चेतन है। वह एक है, कामनारहित है और बहुतों की कामना पूर्ण करनेवाला ईश्वर है। सांख्य और योग अर्थात् ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग से प्राप्त करने योग्य सबके कारणरूप उन जगदीश्वर परमदेव को जानकर जीव सम्पूर्ण पाशों (बन्धनों) से मुक्त हो जाता है। वे सम्पूर्ण विश्व के स्त्रष्टा, सर्वज्ञ, स्वयं ही अपने प्राकट्य के हेतु, ज्ञानस्वरूप, काल के भी स्त्रष्टा, सम्पूर्ण दिव्य गुणों से सम्पन्न, प्रकृति और जीवात्मा के स्वामी, समस्त गुणों के शासक तथा संसार-बन्धन से छूड़ानेवाले हैं। जिन परमदेव ने सबसे पहले ब्रह्माजी को उत्पन्न किया और स्वयं उन्हें वेदों का ज्ञान दिया, अपने स्वरूप-विषयक बुद्धि को प्रसन्न (विकसित) करनेवाले उन परमेश्वर शिव को जानकर मैं इस संसार-बन्धन से छूटने के लिये उनकी शरण में जाता हूँ।

यह वेदान्तशास्त्र का परम गोपनीय ज्ञान है; पूर्वकल्प में मुझे इसका उपदेश किया गया था। मैंने बड़े भारी सौभाग्य से ब्रह्मजी के मुख से इस ज्ञान को पाया था। जो शम-दम से रहित हो, उसे इस परम उत्तम ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिये। जो अपना पुत्र, सदाचारी तथा शिष्य न हो, उसे भी नहीं देना चाहिये। जिनको परमदेव परमेश्वर में परम भक्ति है, जैसे परमेश्वर में है, वैसे ही गुरु में भी है, उस महात्मा पुरुष के हृदय में ही ये बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं। अतः संक्षेप से यह सिद्धान्त की बात सुनो। भगवान् शिव प्रकृति और पुरुष से परे हैं। वे ही सृष्टिकाल में जगत् को रचते और संहारकाल में पुनः सबको आत्मसात् कर लेते हैं।

(अध्याय ६)