ब्रह्माजी की मूर्च्छा, उनके मुख से रुद्रदेव का प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजी के द्वारा आठ नामों से महेश्वर की स्तुति तथा रुद्र की आज्ञा से ब्रह्मा द्वारा सृष्टि-रचना
तदनन्तर कालमहिमा, प्रलय, ब्रह्माण्ड की स्थिति तथा सर्ग आदि का वर्णन करके वायु देवता ने कहा – पहले ब्रह्माजी ने पाँच मानसपुत्रों को उत्पन्न किया, जो उनके ही समान थे। उनके नाम इस प्रकार हैं – सनक, सनन्दन, विद्वान् सनातन, ऋभु और सनत्कुमार। वे सब-के-सब योगी, वीतराग और ईर्ष्यादोष से रहित थे। इन सबका मन ईश्वर के चिन्तन में लगा रहता था। इसलिये उन्होंने सुष्टिरचना की इच्छा नहीं की। सृष्टि से विरत हो सनक आदि महात्मा जब चले गये, तब ब्रह्माजी ने पुनः सृष्टि की इच्छा से बड़ी भारी तपस्या की। इस प्रकार दीर्घकाल तक तपस्या करने पर भी जब कोई काम न बना, तब उनके मन में दुःख हुआ। उस दुःख से क्रोध प्रकट हुआ। क्रोध से आविष्ट होने पर ब्रह्माजी के दोनों नेत्रों से आँसू की बूँदें गिरने लगीं। उन अश्रुबिन्दुओं से भूत-प्रेत उत्पन्न हुए। अश्रु से उत्पन्त हुए उन सब भूतों-प्रेतों को देखकर ब्रह्माजी ने अपनी निन्दा की। उस समय क्रोध और मोह के कारण उन्हें तीव्र मूर्च्छा आ गयी। क्रोध से आविष्ट हुए प्रजापति ने मृर्च्छित होने पर अपने प्राण त्याग दिये। तब प्राणों के स्वामी भगवान् नीललोहित रुद्र अनुपम कृपाप्रसाद प्रकट करने के लिये ब्रह्माजी के मुख से वहाँ प्रकट हुए। उन जगदीश्वर प्रभु ने अपने को ग्यारह रूपों में प्रकट किया। महादेवजी ने अपने उन महामना ग्यारह स्वरूपों से कहा – 'बच्चो! मैंने लोक पर अनुग्रह करने के लिये तुम लोगों की सृष्टि की है; अतः तुम आलस्यरहित हो सम्पूर्ण लोक की स्थापना, हितसाधन तथा प्रजा-संतान की वृद्धि के लिये प्रयत्न करो।
महेश्वर के ऐसा कहने पर वे रोने और चारों ओर दौड़ने लगे। रोने और दौड़ने के कारण उनका नाम 'रुद्र' हुआ। जो रुद्र है वे निश्चय ही प्राण हैं और जो प्राण हैं, वे महात्मा रुद्र हैं। तत्पश्चात् ब्रह्मपुत्र महेश्वर ने दया करके मरे हुए देवता परमेष्ठी ब्रह्माजी को पुनः प्राण-दान दिया। ब्रह्माजी के शरीर में प्राणों के लौट आने पर रुद्रदेव का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन विश्वनाथ ने ब्रह्माजी से यह उत्तम बात कही – 'उत्तम व्रत का पालन करनेवाले जगदगुरु महाभाग विरिंच! डरो मत! डरो मत! मैंने तुम्हारे प्राणों को नूतन जीवन प्रदान किया है; अतः सुख से उठो।' स्वप्न में सुने हुए वाक्य की भाँति उस मनोहर वचन को सुनकर ब्रह्माजी ने प्रफुल्ल कमल के समान सुन्दर नेत्रों द्वारा धीरे से भगवान् हर की ओर देखा। उनके प्राण पहले की तरह लौट आये थे। अतः ब्रह्माजी ने दोनों हाथ जोड़ स्नेहयुक्त गम्भीर वाणी द्वारा उनसे कहा – 'प्रभो! आप दर्शन मात्र से मेरे मन को आनन्द प्रदान कर रहे हैं; अतः बताइये, आप कौन हैं? जो सम्पूर्ण जगत् के रूप में स्थित हैं, क्या वे ही भगवान् आप ग्यारह रूपों में प्रकट हुए हैं?'
उनकी यह सब बात सुनकर देवताओं के स्वामी महेश्वर अपने परम सुखदायक करकमलों द्वारा ब्रह्माजी का स्पर्श करते हुए बोले – 'देव! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं परमात्मा हूँ और इस समय तुम्हारा पुत्र होकर प्रकट हुआ हूँ। ये जो ग्यारह रुद्र हैं, तुम्हारी सुरक्षा के लिये यहाँ आये हैं। अतः तुम मेरे अनुग्रह से इस तीव्र मूर्च्छा को त्यागकर जाग उठो और पूर्ववत् प्रजा की सृष्टि करो।'
भगवान् शिव के ऐसा कहने पर ब्रह्माजी के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उन विश्वात्मा ने आठ नामों द्वारा परमेश्वर शिव का स्तवन किया।
ब्रह्माजी बोले – भगवन्! रुद्र! आपका तेज असंख्य सूर्यों के समान अनन्त है। आपको नमस्कार है। रसस्वरूप और जलमय विग्रहवाले आप भवदेवता को नमस्कार है। नन्दी और सुरभि (कामथेनु) ये दोनों आपके स्वरूप हैं। आप पृथ्वीरूपधारी शर्व को नमस्कार है। स्पर्शमय वायुरूपवाले आपको नमस्कार है। आप ही वसुरूपधारी ईश हैं। आपको नमस्कार है। अत्यन्त तेजस्वी अग्निरूप आप पशुपति को नमस्कार है। शब्दतन्मात्रा से युक्त आकाशरूपधारी आप भीमदेव को नमस्कार है। उग्ररूपवाले यजमानमूर्ति आपको नमस्कार है। सोमरूप आप अभृतमूर्ति महादेवजी को नमस्कार है। इस प्रकार आठ मूर्ति और आठ नाम वाले आप भगवान् शिव को मेरा नमस्कार है।
इस प्रकार विश्वनाथ महादेवजी की स्तुति करके लोकपितामह ब्रह्मा ने प्रणामपूर्वक उनसे प्रार्थना कौ – 'भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी मेरे पुत्र भगवान् महेश्वर। कामनाशन! आप सृष्टि के लिये मेरे शरीर से उत्पन्न हुए हैं; इसलिये जगत्प्रभो! इस महान् कार्य में संलग्न हुए मुझ ब्रह्मा की आप सर्वत्र सहायता करें और स्वयं भी प्रजा की सृष्टि करें।'
ब्रह्माजी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर कल्याणकारी, त्रिपुरनाशक रुद्रदेव ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी बात मान ली। तदनन्तर प्रसन्न हुए महादेवजी का अभिनन्दन करके सृष्टि के लिये उनकी आज्ञा पाकर भगवान् ब्रह्मा ने अन्यान्य प्रजाओं की सृष्टि आरम्भ की। उन्होंने अपने मन से ही मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि और वसिष्ठ की सृष्टि की। ये सब ब्रह्माजी के पुत्र कहे गये हैं। धर्म, संकल्प और रुद्र के साथ इनकी संख्या बारह होती है। ये सब पुराने गृहस्थ हैं। देवगणों सहित इनके बारह दिव्य वंश कहे गये हैं। जो प्रजावान्, क्रियावान् तथा महर्षियों से अलंकृत हैं। तत्पश्चात् जल पर स्थित हुए रुद्र सहित ब्रह्माजी ने देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्यों की सृष्टि करने का विचार किया। ब्रह्माजी ने सृष्टि के लिये समाधिस्थ हो अपने चित्त को एकाग्र किया। तत्पश्चात् मुख से देवताओं को, कोख से पितरों को, कटि के अगले भाग से असुरों को तथा प्रजननेन्द्रिय (लिंग) से सब मनुष्यों को उत्पन्न किया। उनके गुदास्थान से राक्षस उत्पन्न हुए, जो सदा भूख से व्याकुल रहते हैं। उनमें तमोगुण और रजोगुण की प्रधानता होती है। वे रात को विचरते और बलवान होते हैं। साँप, यक्ष, भूत और गन्धर्व ये भी ब्रह्माजी के अंगों से उत्पन्न हुए। उनके पक्षभाग से पक्षी हुए। वक्षःस्थल से अजंगम (स्थावर) प्राणियों का जन्म हुआ। मुख से बकरों और पाशर्वभाग से भुजंगमों की उत्पत्ति हुई। दोनों पैरों से घोड़े, हाथी, शरभ, नीलगाय, मृग, ऊँट, खच्चर, न्यंकु नामक मृग तथा पशुजाति के अन्यान्य प्राणी उत्पन्न हुए। रोमावलियों से ओषधियों और फल-मूलों का प्राकट्य हुआ। ब्रह्माजी के पूर्ववर्ती मुख से गायत्री छन्द, ऋग्वेद, त्रिवृत् स्तोम, रथन्तर साम तथा अग्निष्टोम नामक यज्ञ की उत्पत्ति हुई। उनके दक्षिण मुख से यजुर्वेद, त्रिष्टुप् छन्द, पंचदश स्तोम, बृहत्साम और उक्थ नामक यज्ञ की उत्पत्ति हुई। उन्होंने अपने पश्चिम मुख से सामवेद, जगती छन्द, सप्तदश स्तोम, वैरूप्य साम और अतिरात्र नामक यज्ञ को प्रकट किया। उनके उत्तरवर्ती मुख से एकविंश स्तोम, अथर्ववेद, आप्तोर्याम नामक यम, अनुष्टुप्छन्द और वैराज नामक साम का प्रादर्भाव हुआ। उनके अंगों से और भी बहुत-से छोटे-बड़े प्राणी उत्पन्न हुए। उन्होंने यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सराओं के समुदाय, मनुष्य, किंनर, राक्षस, पक्षी, पशु, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर-जंगम जगत् की रचना की। उनमें से जिन्होंने जैसे-जैसे कर्म पूर्वकल्पों में अपनाये थे, पुनः-पुनः सृष्टि होने पर उन्होंने फिर उन्हीं कर्मों को अपनाया। उस समय वे अपनी पूर्वभावना से भावित होकर हिंसा-अहिंसा से युक्त मृदु-कठोर, धर्म-अधर्म तथा सत्य और मिथ्या कर्म को अपनाते हैं; क्योंकि पहले की वासना के अनुकूल कर्म ही उन्हें अच्छे लगते हैं।
इस प्रकार विधाता ने ही स्वयं इन्द्रियों के विषय, भूत और शरीर आदि में विभिन्नता एवं व्यवहार की सृष्टि की है। उन पितामह ने कल्प के आरम्भ में देवता आदि प्राणियों के नाम, रूप तथा कार्य-विस्तार को वेदोक्त वर्णन के अनुसार ही निश्चित किया। ऋषियों के नाम तथा जीविका-साधक कर्म भी उन्होंने वेदों के अनुसार ही निर्दिष्ट किये। अपनी रात व्यतीत होने पर अजन्मा ब्रह्मा ने स्वरचित प्राणियों को वे ही नाम और कर्म दिये, जो पूर्वकल्प में उन्हें प्राप्त थे। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओं के पुनः-पुनः आने पर उनके चिहन और नाम-रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं, उसी प्रकार युगादि काल में भी उनके पूर्वभाव ही दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार स्वयम्भू ब्रह्माजी की लोकसृष्टि उन्हीं के विभिन्न अंगों से प्रकट हुई हैं। महत् से लेकर विशेष पर्यन्त सब कुछ प्रकृति का विकार है। यह प्राकृत जगत् चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा से उद्भासित, ग्रह और नक्षत्रों से मण्डित, नदियों, पर्वतों तथा समुद्रों से अलंकृत और भाँति-भाँति के रमणीय नगरों एवं समृद्धिशाली जनपदों से सुशोभित है। इसी को ब्रह्माजी का वन या ब्रह्मवृक्ष कहते हैं।
उस ब्रह्मवन में अव्यक्त एवं सर्वज्ञ ब्रह्मा विचरते हैं। वह सनातन ब्रह्मवृक्ष अव्यक्तरूपी बीज से प्रकट एवं ईश्वर के अनुग्रह पर स्थित है। बुद्धि इसका तना और बड़ी-बड़ी डालियाँ हैं। इन्द्रियाँ भीतर के खोखले हैं। महाभूत इसकी सीमा है। विशेष पदार्थ इसके निर्मल पत्ते हैं। धर्म और अधर्म इसके सुन्दर फूल हैं। इसमें सुख और दुःखरूपी फल लगते हैं तथा यह सम्पूर्ण भूतों के जीवन का सहारा है। ब्राह्मणलोग द्युलोक को उनका मस्तक, आकाश को नाभि, चन्द्रमा और सूर्य को नेत्र, दिशाओं को कान और पृथ्वी को उनके पैर बताते हैं। वे अचिन्त्य-स्वरूप महेश्वर ही सब भूतों के निर्माता हैं। उनके मुख से ब्राह्मण प्रकट हुए हैं। वक्षःस्थल के ऊपरी भाग से क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई है, दोनों जाँघों से वैश्य और पैरों से शृद्र उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार उनके अंगों से ही सम्पूर्ण वर्णों का प्रादुर्भाव हुआ है।
(अध्याय ७ - १२)