भगवान् रुद्र के ब्रह्माजी के मुख से प्रकट होने का रहस्य, रुद्र के महामहिम स्वरूप का वर्णन, उनके द्वारा रुद्रगणों की सृष्टि तथा ब्रह्माजी के रोकने से उनका सृष्टि से विरत होना
ऋषि बोले – प्रभो! आपने चतुर्मुख ब्रह्मा के मुख से परमात्मा रुद्रदेव की सृष्टि बतायी है। इस विषय में हम को संशय होता है। जो प्रलयकाल में कुपित होकर ब्रह्मा, विष्णु और अग्नि सहित समस्त लोक का संहार कर डालते हैं; जिन्हें ब्रह्मा और विष्णु भय से प्रणाम करते हैं, जिन लोकसंहारकारी महेश्वर के वश में वे दोनों सदा ही रहते हैं, जिन महादेवजी ने पूर्वकाल में ब्रह्मा और विष्णु को अपने शरीर से प्रकट किया था, जो प्रभु सदा ही उन दोनों के योगक्षेम का निर्वाह करनेवाले हैं, वे आदिदेव पुरातन पुरुष भगवान् रुद्र अव्यक्तजन्मा ब्रह्मा के पुत्र कैसे हो गये? तात! भगवान् ब्रह्मा ने मुनियों से जैसी बात बतायी थी, वह सब आप ठीक-ठीक कहिये। भगवान् शिव के उत्तम यश का श्रवण करने के लिये हमारे हृदय में बड़ी श्रद्धा है।
वायुदेवता ने कहा – ब्राह्मणो! तुम सब लोग जिज्ञासा में कुशल हो, अतः तुमने यह बहुत ही उचित प्रश्न किया है। मैंने भी पूर्वकाल में पितामह ब्रह्माजी के समक्ष यही प्रश्न रखा था। उसके उत्तर में पितामह ने मुझसे जो कुछ कहा था, वही मैं तुम्हें बताऊँगा। जैसे रुद्रदेव उत्पन्न हुए और फिर जिस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु की परस्पर उत्पत्ति हुई, वह सब विषय सुना रहा हूँ। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र – तीनों ही कारणात्मा हैं। वे क्रमशः चराचर जगत् की सृष्टि, पालन और संहार के हेतु हैं और साक्षात् महेश्वर से प्रकट हुए हैं। उनमें परम ऐश्वर्य विद्यमान है। वे परमेश्वर से भावित और उनकी शक्ति से अधिष्ठित हो सदा उनके कार्य करने में समर्थ होते हैं। पूर्वकाल में पिता महेश्वर ने ही उन तीनों को तीन कर्मों में नियुक्त किया था। ब्रह्मा की सृष्टिकार्य में, विष्णु की रक्षाकार्य में तथा रुद्र की संहारकार्य में नियुक्ति हुई थी। कल्पान्तर में परमेश्वर शिव के प्रसाद से रुद्रटेव ने ब्रह्मा और नारायण की सृष्टि की थी। इसी तरह दूसरे कल्प में जगन्मय ब्रह्मा ने रुद्र तथा विष्णु को उत्पन्न किया था। फिर कल्पान्तर में भगवान् विष्णु ने भी रुद्र तथा ब्रह्मा की सृष्टि की थी। इस तरह पुनः ब्रह्मा ने नारायण की और रुद्रदेव ने ब्रह्मा की सृष्टि की। इस प्रकार विभिन्न कल्पों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर परस्पर उत्पन्न होते और एक-दूसरे का हित चाहते हैं। उन-उन कल्पों के वृत्तान्त को लेकर महर्षिगण उनके प्रभाव का वर्णन किया करते हैं।
प्रयेक कल्प में भगवान् रुद्र के आविर्भाव का जो कारण है, उसे बता रहा हूँ। उन्हीं के प्रादुर्भाव से ब्रह्माजी की सृष्टि का प्रवाह अविच्छिन्नरूप से चलता रहता है। ब्रह्माण्ड से उत्पन्न होनेवाले ब्रह्मा प्रत्येक कल्प में प्रजा की सृष्टि करके प्राणियों की वृद्धि न होने से जब अत्यन्त दुःखी हो मूर्छित हो जाते हैं, तब उनके दुःख की शान्ति और प्रजावर्ग की वद्धि के लिये उन-उन कल्पों में रुद्रगणों के स्वामी कालस्वरूप नीललोहित महेश्वर रुद्र अपने कारणभूत परमेश्वर की आज्ञा से ब्रह्माजी के पुत्र होकर उन पर अनुग्रह करते हैं। वे ही तेजोराशि, अनामय, अनादि, अनन्त, धाता, भूतसंहारक और सर्वव्यापी भगवान् ईश परम ऐश्वर्य से संयुक्त, परमेश्वर से भावित और सदा उन्हीं की शक्ति से अधिष्ठित हो उन्हीं के चिह्न धारण करते हैं। उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हो उन्हीं के समान रूप धारण कर उनके कार्य करने में समर्थ होते हैं। इनका सारा व्यवहार उन्हीं परमेश्वर के समान होता है। ये उनकी आज्ञा के पालक हैं। सहस्त्रों सू्यों के समान उनका तेज है। वे अर्धचन्द्र को आभूषण के रूप में धारण करते हैं। उनके हार, बाजूबंद और कड़े सर्पमय हैं। वे मूँज की मेखला धारण करते हैं। जलंधर, विरिंच और इन्द्र उनकी सेवा में खड़े रहते हैं तथा हाथ में कपालखण्ड उनकी शोभा बढ़ाता है। गंगा की ऊँची तरंगों से उनके पिंगलवर्णवाले केश और मुख भीगे रहते हैं। उनके कमनीय कैलास पर्वत के विभिन्न प्रान्त टूटी हुई दाढ़वाले सिंह आदि वन्य पशुओं से आक्रान्त हैं। उनके बायें कानों के पास गोलाकार कुण्डल झिलमिलाता रहता है। वे महान् वृषभ पर सवारी करते हैं। उनकी वाणी महान् मेघ की गर्जना के समान गम्भीर है, कान्ति प्रचण्ड अग्नि के समान उद्दीप्त हे और बल-पराक्रम भी महान् है। इस प्रकार ब्रह्मपुत्र महेश्वर का विशाल रूप बड़ा भयानक है। वे ब्रह्माजी को विज्ञान देकर सृष्टिकार्य में उनकी सहायता करते हैं। अतः रुद्र के कृपाप्रसाद से प्रत्येक कल्प में प्रजापति की प्रजासृष्टि प्रवाहरूप से नित्य बनी रहती है।
एक समय ब्रह्माजी ने नीललोहित भगवान् रुद्र से सृष्टि करने की प्रार्थना की। तब भगवान् रुद्र ने मानसिक संकल्प के द्वारा बहुत-से पुरुषों की सृष्टि की। वे सब-के-सब उनके अपने ही समान थे। सबने जटाजूट धारण कर रखे थे। सभी निर्भय, नीलकण्ठ और त्रिनेत्र थे। जरा और मृत्यु उनके पास नहीं पहुँचने पाती थी। चमकीले शूल उनके श्रेष्ठ आयुध थे। उन रुद्रगणों ने सम्पूर्ण चौदह भुवनों को आच्छादित कर लिया था। उन विविध रुद्रों को देखकर पितामह ने रुद्रदेव से कहा – 'देवदेवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप ऐसी प्रजाओं की सृष्टि न कीजिये, आपका कल्याण हो। अब दूसरी प्रजाओं की सृष्टि कीजिये, जो मरणधर्मवाली हों।'
ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर परमेश्वर रुद्र उनसे हँसते हुए बोले – 'मेरी सृष्टि वैसी नहीं होगी। अशुभ प्रजाओं की सृष्टि तुम्हीं करो।' ब्रह्माजी से ऐसा कहकर सम्पूर्ण भूतों के स्वामी भगवान् रुद्र उन रुद्रगणों के साथ प्रजा की सृष्टि के कार्य से निवृत्त हो गये।
(अध्याय १३ - १४)