भगवान् शिव का पार्वती तथा पार्षदों के साथ मन्दराचल पर जाकर रहना, शुम्भ-निशुम्भ के वध के लिये ब्रह्माजी की प्रार्थना से शिव का पार्वती को 'काली' कहकर कुपित करना और काली का 'गौरी' होने के लिये तपस्या के निमित्त जाने की आज्ञा माँगना
वायुदेवता कहते हैं – इस प्रकार महादेवजी से ही सनातन पराशक्ति को पाकर प्रजापति ब्रह्मा मैथुनी सृष्टि करने की इच्छा लेकर स्वयं भी आधे शरीर से अद्भुत नारी और आधे शरीर से पुरुष हो गये। आधे शरीर से जो नारी उत्पन्न हुई थी, वह उनसे शतरूपा ही प्रकट हुई थी। ब्रह्माजी ने अपने आधे पुरुष-शरीर से विराट् को उत्पन्न किया। वे विराट् पुरुष ही स्वायम्भुव मनु कहलाते हैं। देवी शतरूपा ने अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके उद्दीप्त यशवाले मनु को ही पतिरूप में प्राप्त किया।
इसके पश्चात् मनु के वंश तथा दक्षयज्ञ-विध्वंस आदि के प्रसंग सुनाकर वायुदेवता ने यह बताया कि भगवान् शंकर ने दक्ष तथा देवताओं के अपराध क्षमा कर दिये।
तदनन्तर ऋषियों ने पूछा – प्रभो! अपने गणों तथा देवी के साथ अन्तर्धान होकर भगवान् शिव कहाँ गये, कहाँ रहे और क्या करके विरत हुए?
वायुदेव बोले – महर्षियो! पर्वतों में श्रेष्ठ और विचित्र कन्दराओं से सुशोभित जो परम सुन्दर मन्दराचल है, वही अपनी तपस्या के प्रभाव से देवाधिदेव महादेवजी का प्रिय निवास-स्थान हुआ। उसने पार्वती और शिव को अपने सिर पर ढोने के लिये बड़ा भारी तप किया था और दीर्घकाल के बाद उसे उनके चरणारविन्दों के स्पर्श का सुख प्राप्त हुआ। उस पर्वत के सौन्दर्य का विस्तारपूर्वक वर्णन सहस्त्रों मुखों द्वारा सौ करोड़ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता। उसके सामने समस्त पर्वतों का सौन्दर्य तुच्छ हो जाता है। इसीलिये महादेवजी ने देवी का प्रिय करने की इच्छा से उस अत्यन्त रमणीय पर्वत को अपना अन्तःपुर बना लिया। इस सर्वश्रेष्ठ पर्वत का स्मरण करके रैभ्य-आश्रम के समीप स्थित हुए अम्बिका सहित भगवान् त्रिलोचन वहाँ से अन्तर्धान होकर चले गये। मन्दराचल के उद्यान में पहुँचकर देवी सहित महेश्वर वहाँ की रमणीय तथा दिव्य अन्तःपुर की भूमियों में रमण करने लगे।
जब इस तरह कुछ समय बीत गया और ब्रह्माजी की मैथुनी सृष्टि के द्वारा जब प्रजाएँ बढ़ गयीं, तब शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए। वे परस्पर भाई थे। उनके तपोबल से प्रभावित हो परमेष्ठी ब्रह्मा ने उन दोनों भाइयों को यह वर दिया था कि 'इस जगत् के किसी भी पुरुष से तुम मारे नहीं जा सकोगे।' उन दोनों ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की थी कि 'पार्वती देवी के अंश से उत्पन्न जो अयोनिजा कन्या उत्पन्न हो, जिसे पुरुष का स्पर्श तथा रति नहीं प्राप्त हुई हो तथा जो अलंघ्य पराक्रम से सम्पन्न हो, उसके प्रति कामभाव से पीड़ित होने पर हम युद्ध में उसी के हाथों मारे जायँ।' उनकी इस प्रार्थना पर ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर स्वीकृति दे दी। तभी से युद्ध में इन्द्र आदि देवताओं को जीतकर उन दोनों ने जगत् को अनीतिपूर्वक वेदों के स्वाध्याय और वषट्कार (यज्ञ) आदि से रहित कर दिया। तब ब्रह्मा ने उन दोनों के वध के लिये देवेश्वर शिव से प्रार्थना की – 'प्रभो! आप एकान्त में देवी की निन्दा करके भी जैसे-तैसे उन्हें क्रोध दिलाइये और उनके रूप-रंग की निन्दा से उत्पन्न हुई, कामभाव से रहित, कुमारीस्वरूपा शक्ति को निशुम्भ और शुम्भ के वध के लिये देवताओं को अर्पित कीजिये।'
ब्रह्माजी के इस तरह प्रार्थना करने पर भगवान् नीललोहित रुद्र एकान्त में पार्वती की निन्दा-सी करते हुए मुसकराकर बोले – 'तुम तो काली हो।' तब सुन्दर वर्णवाली देवी पार्वती अपने श्यामवर्ण के कारण आक्षेप सुनकर कुपित हो उठीं और पतिदेव से मुसकराकर समाधानरहित वाणी द्वारा बोलीं।
देवी ने कहा – प्रभो! यदि मेरे इस काले रंग पर आपका प्रेम नहीं है तो इतने दीर्घकाल से अपनी शिक्षा का आप दमन क्यों करते रहे हैं? कोई स्त्री कितनी ही सर्वांगसुन्दी क्यों न हो, यदि पति का उस पर अनुराग नहीं हुआ तो अन्य समस्त गुणों के साथ ही उसका जन्म लेना व्यर्थ हो जाता है। स्त्रियों की यह सृष्टि ही पति के भोग का प्रधान अंग है। यदि वह उससे वंचित हो गयी तो इसका और कहाँ उपयोग हो सकता है? इसलिये आपने एकान्त में जिसकी निन्दा की है, उस वर्ण को त्यागकर अब मैं दूसरा वर्ण ग्रहण करूँगी अथवा स्वयं ही मिट जाऊँगी।
ऐसा कहकर देवी पार्वती शय्या से उठकर खड़ी हो गयीं और तपस्या के लिये दृढ़ निश्चय करके गदगद कण्ठ से जाने की आज्ञा माँगने लगीं।
इस प्रकार प्रेम भंग होने से भयभीत हो भूतनाथ भगवान् शिव स्वयं भवानी को प्रणाम करते हुए ही बोले।
भगवान् शिव ने कहा – प्रिये! मैंने क्रीडा या मनोविनोद के लिये यह बात कही है। मेरे इस अभिप्राय को न जानकर तुम कुपित क्यों हो गयीं? यदि तुम पर मेरा प्रेम नहीं होगा तो और किस पर हो सकता है? तुम इस जगत् की माता हो और मैं पिता तथा अधिपति हूँ। फिर तुम पर मेरा प्रेम न होना कैसे सम्भव हो सकता है। हम दोनों का वह प्रेम भी क्या कामदेव की प्रेरणा से हुआ है, कदापि नहीं; क्योंकि कामदेव की उत्पत्ति से पहले ही जगत् की उत्पत्ति हुई है। कामदेव की सृष्टि तो मैंने साधारण लोगों की रति के लिये की है। कामदेव मुझे साधारण देवता के समान मानकर मेरा कुछ-कुछ तिरस्कार करने लगा था, अतः मैंने उसे भस्म कर दिया। हम दोनों का यह लीलाविहार भी जगत् की रक्षा के लिये ही है, अतः उसी के लिये आज मैंने तुम्हारे प्रति यह परिहासयुक्त बात कही थी। मेरे इस कथन की सत्यता तुम पर शीघ्र ही प्रकट हो जायगी।
देवी ने कहा – भगवन्! पति के प्यार से वंचित होने पर जो नारी अपने प्राणों का भी परित्याग नहीं कर देती, वह कुलांगना और शुभलक्षणा होने पर भी सत्पुरुषों द्वारा निन्दित ही समझी जाती है। मेरा शरीर गौरवर्ण का नहीं है, इस बात को लेकर आपको बहुत खेद होता है, अन्यथा क्रीडा या परिहास में भी आपके द्वारा मुझे 'काली-कलूटी' कहा जाना कैसे सम्भव हो सकता था। मेरा कालापन आपको प्रिय नहीं है, इसलिये वह सत्पुरुषों द्वारा भी निन्दित है; अतः तपस्या द्वारा इसका त्याग किये बिना अब मैं यहाँ रह ही नहीं सकती।
शिव बोले – यदि अपनी श्यामता को लेकर तुम्हें इस तरह संताप हो रहा है तो इसके लिये तपस्या करने की क्या आवश्यकता है? तुम मेरी या अपनी इच्छा मात्र से ही दूसरे वर्ण से युक्त हो जाओ।
देवी ने कहा – मैं आपसे अपने रंग का परिवर्तन नहीं चाहती। स्वयं भी इसे बदलने का संकल्प नहीं कर सकती। अब तो तपस्या द्वारा ब्रह्मजी की आराधना करके ही में शीघ्र गौरी हो जाऊँगी।
शिव बोले – महादेवि! पूर्वकाल में मेरी ही कृपा से ब्रह्मा को ब्रह्मपद की प्राप्ति हुई थी। अतः तपस्या द्वारा उन्हें बुलाकर तुम क्या करोगी?
देवी ने कहा – इसमें संदेह नहीं कि ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं को आपसे ही उत्तम पदों की प्राप्ति हुई है, तथापि आपकी आज्ञा पाकर मैं तपस्या द्वारा ब्रह्माजी की आराधना करके ही अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहती हूँ। पूर्वकाल में जब मैं सती के नाम से दक्ष की पुत्री हुई थी, तब तपस्या द्वारा ही मैंने आप जगदीश्वर को पति के रूप में प्राप्त किया था। इसी प्रकार आज भी तपस्या द्वारा ब्राह्मण ब्रह्मा को संतुष्ट करके में गौरी होना चाहती हूँ। ऐसा करने में यहाँ क्या दोष है? यह बताइये।
महादेवी के ऐसा कहने पर वामदेव मुसकराते हुए-से चुप रह गये। देवताओं का कार्य सिद्ध करने की इच्छा से उन्होंने देवी को रोकने के लिये हठ नहीं किया।
(अध्याय १७ - २४)