पार्वती की तपस्या, एक व्याघ्र पर उनकी कृपा, ब्रह्माजी का उनके पास आना, देवी के साथ उनका वार्तालाप, देवी के द्वारा काली त्वचा का त्याग और उससे कृष्णवर्णा कुमारी कन्या के रूप में उत्पन्न हुई कौशिकी के द्वारा शुम्भ-निशुम्भ का वध

वायुदेव कहते हैं – महर्षियो! तदनन्तर पतिव्रता माता पार्वती पति की परिक्रमा करके उनके वियोग से होनेवाले दुःख को किसी तरह रोककर हिमालय पर्वत पर चली गयीं। उन्होंने पहले सखियों के साथ जिस स्थान पर तप किया था, उस स्थान से उनका प्रेम हो गया था। अतः फिर उसी को उन्होंने तपस्या के लिये चुना। तदनन्तर माता-पिता के घर जा उनका दर्शन और प्रणाम करके उन्हें सब समाचार बताकर उनकी आज्ञा ले उन्होंने सारे आभूषण उतार दिये और फिर तपोवन में जा स्नान के पश्चात् तपस्वी का परम पावन वेष धारण करके अत्यन्त तीव्र एवं परम दुष्कर तपस्या करने का संकल्प किया। वे मन-ही-मन सदा पति के चरणारविन्दों का चिन्तन करती हुई किसी क्षणिक लिंग में उन्हीं का ध्यान करके पूजन की बाह्य विधि के अनुसार जंगल के फल-फूल आदि उपकरणों द्वारा तीनों समय उनका पूजन करती थीं। 'भगवान् शंकर ही ब्रह्मा का रूप धारण करके मेरी तपस्या का फल मुझे देंगे।' ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर वे प्रतिदिन तपस्या में लगी रहती थीं। इस तरह तपस्या करते-करते जब बहुत समय बीत गया, तब एक दिन उनके पास कोई बहुत बड़ा व्याघ्र देखा गया। वह दुष्ट भाव से वहाँ आया था। पार्वतीजी के निकट आते ही उस दुरात्मा का शरीर जडवत् हो गया। वह उनके समीप चित्रलिखित-सा दिखायी देने लगा। दुष्टभाव से पास आये हुए उस व्याघ्र को देखकर भी देवी पार्वती साधारण नारी की भाँति स्वभाव से विचलित नहीं हुईं। उस व्याघ्र के सारे अंग अकड़ गये थे। वह भूख से अत्यन्त पीड़ित हो रहा था और यह सोचकर कि 'यही मेरा भोजन है' निरन्तर देवी की ओर ही देख रहा था। देवी के सामने खड़ा-खड़ा वह उनकी उपासना-सी करने लगा। इधर देवी के हृदय में सदा यही भाव आता था कि यह व्याघ्र मेरा ही उपासक है, दुष्ट वन-जन्तुओं से मेरी रक्षा करनेवाला है। यह सोचकर वे उस पर कृपा करने लगीं। उन्हीं की कृपा से उसके तीनों प्रकार के मल तत्काल नष्ट हो गये। फिर तो उस व्याघ्र को सहसा देवी के स्वरूप का बोध हुआ, उसकी भूख मिट गयी और उसके अंगों की जडता भी दूर हो गयी। साथ ही उसकी जन्मसिद्ध दुष्टता नष्ट हो गयी और उसे निरन्तर तृप्ति बनी रहने लगी। उस समय उत्कृष्ट रूप से अपनी कृतार्थता का अनुभव करके वह तत्काल भक्त हो गया और उन परमेश्वरी की सेवा करने लगा। अब वह अन्य दुष्ट जन्तुओं को खदेड़ता हुआ तपोवन में विचरने लगा। इधर देवी की तपस्या बढ़ी और तीव्र से तीव्रतर होती गयी।

देवता शुम्भ आदि दैत्यों के दुराग्रह से दुःखी हो ब्रह्माजी की शरण में गये। उन्होंने शत्रुपीडनजनित अपने दुःख को उनसे निवेदन किया। शुम्भ और निशुम्भ वरदान पाने के घमंड से देवताओं को जैसे-जैसे दुःख देते थे, वह सब सुनकर ब्रह्माजी को उन पर बड़ी दया आयी। उन्होंने दैत्यवध के लिये भगवान् शंकर के साथ हुई बातचीत का स्मरण करके देवताओं के साथ देवी के तपोवन को प्रस्थान किया। वहाँ सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा ने उत्तम तप में परिनिष्ठित परमेश्वरी पार्वती को देखा। वे सम्पूर्ण जगत् की प्रतिष्ठा-सी जान पड़ती थीं। अपने, श्रीहरि के तथा रुद्रदेव के भी जन्मदाता पिता महामहेश्वर की भार्या आर्या जगन्माता गिरिराजनन्दिनी पार्वतीजी को ब्रह्माजी ने प्रणाम किया।

देवगणों के साथ ब्रह्माजी को आया देख देवी ने उनके योग्य अर्ध्य देकर स्वागत आदि के द्वारा उनका सत्कार किया। बदले में उनका भी सत्कार और अभिनन्दन करके ब्रह्माजी अनजान की भाँति देवी की तपस्या का कारण पूछने लगे।

ब्रह्माजी बोले – देवि! इस तीव्र तपस्या के द्वारा आप यहाँ किस अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि करना चाहती हैं? तपस्या के सम्पूर्ण फलों की सिद्धि तो आपके ही अधीन है। जो समस्त लोकों के स्वामी हैं, उन्हीं परमेश्वर को पति के रूप में पाकर आपने तपस्या का सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लिया है अथवा यह सारा ही क्रियाकलाप आपका लीलावास है। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि आप इतने दिनों से महादेवजी के विरह का कष्ट कैसे सह रही हैं?

देवी ने कहा – ब्राह्मन्! जब सृष्टि के आदिकाल में महादेवजी से आपकी उत्पत्ति सुनी जाती है, तब समस्त प्रजाओं में प्रथम होने के कारण आप मेरे ज्येष्ठ पुत्र होते हैं। फिर जब प्रजा की वद्धि के लिये आपके ललाट से भगवान् शिव का प्रादुर्भाव हुआ, तब आप मेरे पति के पिता और मेरे श्वशुर होने के कारण गुरुजनों की कोटि में आ जाते हैं और जब मैं यह सोचती हूँ कि स्वयं मेरे पिता गिरिराज हिमालय आपके पुत्र हैं तब आप मेरे साक्षात् पितामह लगते हैं। लोकपितामह! इस तरह आप लोकयात्रा के विधाता हैं। अन्तःपुर में पति के साथ जो वृत्तान्त घटित हुआ है, उसे मैं आपके सामने कैसे कह सकूँगी? अतः यहाँ बहुत कहने से क्या लाभ। मेरे शरीर में जो यह कालापन है, इसे सात्त्विक विधि से त्यागकर मैं गौरवर्णा होना चाहती हूँ।

ब्रह्माजी बोले – देवि! इतने ही प्रयोजन के लिये आपने ऐसा कठोर तप क्यों किया? कया इसके लिये आपकी इच्छा मात्र ही पर्याप्त नहीं थी? अथवा यह आपकी एक लीला ही है। जगन्मातः! आपकी लीला भी लोकहित के लिये ही होती है। अतः आप इसके द्वारा मेरे एक अभीष्ट फल की सिद्धि कीजिये। निशुम्भ और शुम्भ नामक दो दैत्य हैं, उनको मैंने वर दे रखा है। इससे उनका घमंड बहुत बढ़ गया है और वे देवताओं को सता रहे हैं। उन दोनों को आपके ही हाथ से मारे जाने का वरदान प्राप्त हुआ है। अतः अब विलम्ब करने से कोई लाभ नहीं। आप क्षणभर के लिए सुस्थिर हो जाइये। आपके द्वारा जो शक्ति रची या छोड़ी जायगी, वही उन दोनों के लिये मृत्यु हो जायगी।

ब्रह्माजी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर गिरिराजकुमारी देवी पार्वती सहसा अपने काली त्वचा के आवरण को उतारकर गौरवर्णा हो गयीं। त्वचवा कोष (काली त्वचामय आवरण) रूप से त्यागी गयी जो उनकी शक्ति थी उसका नाम 'कौशिकी' हुआ। वह काले मेघ के समान कान्तिवाली कृष्णवर्णा कन्या हो गयी। देवी की वह मायामयी शक्ति ही योगनिद्रा और वैष्णवी कहलाती है। उसके आठ बड़ी-बड़ी भुजाएँ थीं। उसने उन हाथों में शंख, चक्र और त्रिशूल आदि आयुध धारण कर रखे थे। उस देवी के तीन रूप हैं – सौम्य, घोर और मिश्र। वह तीन नेत्रों से युक्त थी। उसने मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट धारण कर रखा था। उसे पुरुष का स्पर्श तथा रति का योग नहीं प्राप्त था और वह अत्यन्त सुन्दरी थी। देवी ने अपनी इस सनातन शक्ति को ब्रह्मजी के हाथ में दे दिया। वही दैत्यप्रवर शुम्भ और निशुम्भ का वध करने वाली हुईं। उस समय प्रसन्न हुए ब्रह्माजी ने उस पराशक्ति को सवारी के लिये एक प्रबल सिंह प्रदान किया, जो उनके साथ ही आया था। उस देवी के रहने के लिये ब्रह्माजी ने विन्ध्यगिरि पर वासस्थान दिया और वहाँ नाना प्रकार के उपचारों से उनका पूजन किया। विश्वकर्मा ब्रह्मा के द्वारा सम्मानित हुई वह शक्ति अपनी माता गौरी को और ब्रह्माजी को क्रमशः प्रणाम करके अपने ही अंगों से उत्पन्न और अपने ही समान शक्तिशालिनी बहुसंख्यक शक्तियों को साथ ले दैत्यराज शुम्भ-निशुम्भ को मारने के लिये उद्यत होकर विन्ध्य पर्वत को चली गयी। उसने समरांगण में उन दोनों दैत्यराजों को मार गिराया। उस युद्ध का अन्यत्र वर्णन हो चुका है, इसलिये उसकी विस्तृत कथा यहाँ नहीं कही गयी। दूसरे स्थलों से उसकी ऊहा कर लेनी चाहिये। अब मैं प्रस्तुत प्रसंग का वर्णन करता हूँ।

(अध्याय २५)