गौरीदेवी का व्याघ्र को अपने साथ ले जाने के लिये ब्रह्माजी से आज्ञा माँगना, ब्रह्माजी का उसे दुष्कर्मी बताकर रोकना, देवी का शरणागत को त्यागने से इनकार करना, ब्रह्माजी का देवी की महत्ता बताकर अनुमति देना और देवी का माता-पिता से मिलकर मन्दराचल को जाना

वायुदेवतवा कहते हैं – कौशिकी को उत्पन्न करके उसे ब्रह्माजी के हाथ में देने के पश्चात् गौरीदेवी ने प्रत्युपकार के लिये पितामह से कहा।

देवी बोलीं – क्या आपने मेरे आश्रम में रहनेवाले इस व्याघ्र को देखा है? इसने दुष्ट जन्तुओं से मेरे तपोवन की रक्षा की है। यह मुझमें अपना मन लगाकर अनन्यभाव से मेरा भजन करता रहा है। अतः इसकी रक्षा के सिवा दूसरा कोई मेरा प्रिय कार्य नहीं है। यह मेरे अन्तःपुर में विचरनेवाला होगा। भगवान् शंकर इसे प्रसन्नतापूर्वक गणेश्वर का पद प्रदान करेंगे। मैं इसे आगे करके सखियों के साथ यहाँ से जाना चाहती हूँ। इसके लिये आप मुझे आज्ञा दें; क्योंकि आप प्रजापति हैं।

देवी के ऐसा कहने पर उन्हें भोली-भाली जान हँसते और मुसकराते हुए ब्रह्माजी उस व्याघ्र की पुरानी क्रूरतापूर्ण करतूतें बताते हुए उसकी दुष्टता का वर्णन करने लगे।

ब्रह्माजी ने कहा – देवि! कहाँ तो पशुओं में क्रूर व्याघ्र और कहाँ यह आपकी मंगलमयी कृपा। आप विषधर सर्प के मुख में साक्षात् अमृत क्यों सींच रही हैं? यह केवल व्याघ्र के रूप में रहनेवाला कोई दुष्ट निशाचर है। इसने बहुत-सी गौओं और तपस्वी ब्राह्मणों को खा डाला है। यह उन सबको इच्छानुसार ताप देता हुआ मनमाना रूप धारण करके विचरता है। अतः इसे अपने पापकर्म का फल अवश्य भोगना चाहिये। ऐसे दुष्टों पर आपको कृपा करने की कया आवश्यकता है? इस स्वभाव से ही कलुषित चित्तवाले दुष्ट जीव से देवी को क्या काम है?

देवी बोलीं – आपने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक है। यह ऐसा ही सही, तथापि मेरी शरण में आ गया है। अतः मुझे इसका त्याग नहीं करना चाहिये।

ब्रह्माजी ने कहा – देवि! इसकी आपके प्रति भक्ति है, इस बात को जाने बिना ही मैंने आपके समक्ष इसके पूर्वचरित्र का वर्णन किया है। यदि इसके भीतर भक्ति है तो पहले के पापों से इसका क्या बिगड़नेवाला है; क्योंकि आपके भक्त का कभी नाश नहीं होता। जो आपकी आज्ञा का पालन नहीं करता, वह पुण्यकर्मा होकर भी क्या करेगा। देवि! आप ही अजन्मा, बुद्धिमती, पुरातन शक्ति और परमेश्वरी हैं। सबके बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था आपके ही अधीन है। आपके सिवा पराशक्ति कौन है? आपके बिना किसको कर्मजनित सिद्धि प्राप्त हो सकती है? आप ही असंख्य रुद्रों की विविध शक्ति हैं। शक्तिरहित कर्ता काम करने में कौन-सी सफलता प्राप्त करेगा? भगवान् विष्णु को, मुझको तथा अन्य देवता, दानव और राक्षसों को उन-उन ऐश्वर्यों की प्राप्ति कराने के लिये आपकी आज्ञा है कारण है। असंख्य ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र जो आपकी आज्ञा का पालन करनेवाले हैं, बीत चुके हैं और भविष्य में भी होंगे। देवेश्वरि! आपकी आराधना किये बिना हम सब श्रेष्ठ देवता भी धर्म आदि चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति नहीं कर सकते। आपके संकल्प से ब्रह्मत्व और स्थावरत्व का तत्काल व्यत्यास (फेर-बदल) भी हो जाता है अर्थात् ब्रह्मा स्थावर (वक्ष आदि) हो जाता है और स्थावर ब्रह्मा; क्योंकि पुण्य और पाप के फलों की व्यवस्था आपने ही की है। आप ही जगत् के स्वामी परमात्मा शिव की अनादि, अमध्य और अनन्त आदि सनातन शक्ति हैं। आप सम्पूर्ण लोकयात्रा का निर्वाह करने के लिये किसी अद्भुत मूर्ति में आविष्ट हो नाना प्रकार के भावों से क्रीड़ा करती हैं। भला, आपको ठीक-ठीक कौन जानता है। अतः यह पापाचारी व्याघ्र भी आज आपकी कृपा से परम सिद्धि प्राप्त करे, इसमें कौन बाधक हो सकता है।

इस प्रकार उनके परम तत्त्व का स्मरण कराकर ब्रह्माजी ने जब उचित प्रार्थना की, तब गौरीदेवी तपस्या से निवृत्त हुईं। तदनन्तर देवी की आज्ञा लेकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये। फिर देवी ने अपने वियोग को न सह सकनेवाले माता-पिता मैना और हिमवान का दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया तथा उन्हें नाना प्रकार से आश्वासन दिया। इसके बाद देवी ने तपस्या के प्रेमी तपोवन के वृक्षों को देखा। वे उनके सामने फूलों की वर्षा कर रहे थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो उनसे होनेवाले वियोग के शोक से पीड़ित हो वे आँसू बरसा रहे हों। अपनी शाखाओं पर बैठे हुए विहंगमों के कलरवों के व्याज से मानो वे व्याकुलतापूर्वक नाना प्रकार से दीनतापूर्ण विलाप कर रहे थे। तदनन्तर पति के दर्शन के लिये उतावली हो उस व्याघ्र को औरस पुत्र की भांति स्नेह से आगे करके सखियों से बातचीत करती और देह की दिव्य प्रभा से दसों दिशाओं को उद्दीपित करती हुई गौरीदेवी मन्दराचल को चली गयीं, जहाँ सम्पूर्ण जगत् के आधार, स्त्रष्टा, पालक और संहारक पतिदेव महेश्वर विराजमान थे।

(अध्याय २६)