मन्दराचल पर गौरीदेवी का स्वागत, महादेवजी के द्वारा उनके और अपने उत्कृष्ट स्वरूप एवं अविच्छेद्य सम्बन्ध पर प्रकाश तथा देवी के साथ आये हुए व्याघ्र को उनका गणाध्यक्ष बनाकर अन्तःपुर के द्वार पर सोमनन्दी नाम से प्रतिष्ठित करना
ऋषियों ने पूछा – अपने शरीर को दिव्य गौरवर्ण से युक्त बनाकर गिरिराजकुमारी देवी पार्वती ने जब मन्दराचल प्रदेश में प्रवेश किया, तब वे अपने पति से किस प्रकार मिलीं? प्रवेशकाल में उनके भवनद्वार पर रहनेवाले गणेश्वरों ने क्या किया तथा महादेवजी ने भी उन्हें देखकर उस समय उनके साथ कैसा बर्ताव किया?
वायुदेवता ने कहा – जिस प्रेमगर्भित रस के द्वारा अनुरागी पुरुषों के मन का हरण हो जाता है, उस परम रस का ठीक-ठीक वर्णन करना असम्भव है। द्वारपाल बड़ी उतावली से राह देखते थे। उनके साथ ही महादेवजी भी देवी के आगमन के लिये उत्सुक थे। जब वे भवन में प्रवेश करने लगीं, तब शंकित हो उन-उन प्रेमजनित भावों से वे उनकी ओर देखने लगे। देवी भी उनकी ओर उन्हीं भावों से देख रही थीं। उस समय उस भवन में रहनेवाले श्रेष्ठ पार्षदों ने देवी की वन्दना की। फिर देवी ने विनययुक्त वाणी द्वारा भगवान् त्रिलोचन को प्रणाम किया। वे प्रणाम करके अभी उठने भी नहीं पायी थीं कि परमेश्वर ने उन्हें दोनों हाथों से पकड़कर बड़े आनन्द के साथ हृदय से लगा लिया। फिर मुसकराते हुए वे एकटक नेत्रों से उनके मुखचन्द्र की सुधा का पान-सा करने लगे। फिर उनसे बातचीत करने के लिये उन्होंने पहले अपनी ओर से वार्ता आरम्भ की।
देवाधिदेव महादेवजी बोले – सर्वांगसुन्दरि प्रिये! क्या तुम्हारी वह मनोदरशा दूर हो गयी, जिसके रहते तुम्हारे क्रोध के कारण मुझे अनुनय-विनय का कोई भी उपाय नहीं सूझता था। यदि साधारण लोगों की भाँति हम दोनों में भी एक-दूसरे के अप्रिय का कारण विद्यमान है, तब तो इस चराचर जगत् का नाश हुआ ही समझना चाहिये। मैं अग्नि के मस्तक पर स्थित हूँ और तुम सोम के। हम दोनों से ही यह अग्नि-सोमात्मक जगत् प्रतिष्ठित है! जगत् के हित के लिये स्वेच्छा से शरीर धारण करके विचरनेवाले हम दोनों के वियोग में यह जगत् निराधार हो जायगा। इसमें शास्त्र और युक्ति से निश्चित किया हुआ दूसरा हेतु भी है। यह स्थावर-जंगम रूप जगत् वाणी और अर्थमय ही है। तुम साक्षात् वाणीमय अमृत हो और मैं अर्थमय परम उत्तम अमृत हूँ। ये दोनों अमृत एक-दूसरे से विलग कैसे हो सकते हैं। तुम मेरे स्वरूप का बोध करानेवाली विद्या हो और मैं तुम्हारे दिये हुए विश्वासपूर्ण बोध से जानने योग्य परमात्मा हूँ। हम दोनों क्रमशः विद्यात्मा और वेद्यात्मा हैं, फिर हममें वियोग होना कैसे सम्भव है। मैं अपने प्रयत्न से जगत् की सृष्टि और संहार नहीं करता। एकमात्र आज्ञा से ही सबकी सृष्टि और संहार उपलब्ध होते हैं। वह अत्यन्त गौरवपूर्ण आज्ञा तुम्हीं हो। ऐश्वर्य का एकमात्र सार आज्ञा (शासन) है, क्योंकि वही स्वतन्त्रता का लक्षण है। आज्ञा से वियुक्त होने पर मेरा ऐश्वर्य कैसा होगा। हम लोगों का एक-दूसरे से विलग होकर रहना कभी सम्भव नहीं है। देवताओं के कार्य की सिद्धि के उद्देश्य से ही मैंने उस समय उस दिन लीलापूर्वक व्यंग्य वचन कहा था। तुम्हें भी तो यह बात अज्ञात नहीं थी। फिर तुम कृपित कैसे हो गयीं! अतः यही कहना पड़ता है कि तुमने मुझ पर भी जो क्रोध किया था, वह त्रिलोकी की रक्षा के लिये ही था; क्योंकि तुम में ऐसी कोई बात नहीं है, जो जगत् के प्राणियों का अनर्थ करने वाली हो।
इस प्रकार प्रिय वचन बोलनेवाले साक्षात् परमेश्वर शिव के प्रति श्रृंगाररस के सारभूत भावों की प्राकृतिक जन्मभूमि देवी पार्वती अपने पति की कही हुई यह मनोहर बात सुनकर इसे सत्य जान मुसकराकर रह गयीं, लज्जावश कोई उत्तर न दे सकीं। केवल कौशिकी के यश का वर्णन छोड़कर और कुछ उन्होंने नहीं कहा। देवी ने कौशिकी के विषय में जो कुछ कहा उसका वर्णन करता हूँ।
देवी बोलीं – 'भगवन्! मैंने जिस कौशिकी की सृष्टि की है, उसे कया आपने नहीं देखा है? वैसी कन्या न तो इस लोक में हुई है और न होगी।' यों कहकर देवी ने उसके विन्ध्य पर्वत पर निवास करने तथा समरांगण में शुम्भ और निशुम्भ का वध करके उन पर विजय पाने का प्रसंग सुनाकर उसके बल-पराक्रम का वर्णन किया। साथ ही यह भी बताया कि वह उपासना करनेवाले लोगों को सदा प्रत्यक्ष फल देती है तथा निरन्तर लोकों की रक्षा करती रहती है। इस विषय में ब्रह्माजी आपको आवश्यक बातें बतायेंगे।
उस समय इस प्रकार बातचीत करती हुई देवी की आज्ञा से ही एक सखी ने उस व्याघ्र को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। उसे देखकर देवी कहने लगीं – 'देव! यह व्याघ्र मैं आपके लिये भेंट लायी हूँ। आप इसे देखिये। इसके समान मेरा उपासक दूसरा कोई नहीं है। इसने दुष्ट जन्तुओं के समूह से मेरे तपोवन की रक्षा की थी। यह मेरा अत्यन्त भक्त है और अपने रक्षणात्मक कार्य से मेरा विश्वासपात्र बन गया है। मेरी प्रसन्नता के लिये यह अपना देश छोड़कर यहाँ आ गया है। महेश्वर! यदि मेरे आने से आपको प्रसन्नता हुई है और यदि आप मुझसे अत्यन्त प्रेम करते हैं तो मैं चाहती हूँ कि यह नन्दी की आज्ञा से मेरे अन्तःपुर के द्वार पर अन्य रक्षकों के साथ उन्हीं के चिह्न धारण करके सदा स्थित रहे।
वायुदेव कहते हैं – देवी के इस मधुर और अन्ततोगत्वा प्रेम बढ़ानेवाले शुभ वचन को सुनकर महादेवजी ने कहा – 'मैं बहुत प्रसन्न हूँ।' फिर तो वह व्याघ्र उसी क्षण लचकती हुई सुवर्णजटित बेंत की छड़ी, रत्नों से जटित विचित्र कवच, सर्प की-सी आकृतिवाली छुरी तथा रक्षकोचित वेष धारण किये गणाध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित दिखायी दिया। उसने उमा सहित महादेव और नन्दी को आनन्दित किया था। इसलिये सोमनन्दी नाम से विख्यात हुआ। इस प्रकार देवी का प्रिय कार्य करके चन्द्रार्धभूषण महादेवजी ने उन्हें रत्नभूषित दिव्य आभूषणों से भूषित किया। चन्द्रभूषण भगवान् शिव ने सर्वमनोहारिणी गिरिराजकुमारी गौरी देवी को पलंग पर बिठाकर उस समय सुन्दर अलंकारों से स्वयं ही उनका श्रृंगार किया।
(अध्याय २७)