जगत् 'वाणी और अर्थरूप' है – इसका प्रतिपादन
वायुदेवता कहते हैं – महर्षियो! अब यह बता रहा हूँ कि जगत् की वागर्थात्मकता की सिद्धि कैसे की गयी है। छः अध्वाओं (मार्गों) का सम्यक् ज्ञान मैं संक्षेप से ही करा रहा हूँ, विस्तार से नहीं। कोई भी ऐसा अर्थ नहीं है, जो बिना शब्द का हो और कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो बिना अर्थ का हो। अतः समयानुसार सभी शब्द सम्पूर्ण अर्थों के बोधक होते हैं। प्रकृति का यह परिणाम शब्दभावना और अर्थभावना के भेद से दो प्रकार का है। उसे परमात्मा शिव तथा पार्वती की प्राकृत मूर्ति कहते हैं। उनकी जो शब्दमयी विभूति है, उसे विद्वान् तीन प्रकार की बताते हैं – स्थूला, सूक्ष्म और परा। स्थूला वह है, जो कानों को प्रत्यक्ष सुनायी देती है; जो केवल चिन्तन में आती है, वह सूक्ष्म कही गयी है और जो चिन्तन की भी सीमा से परे है, उसे परा कहा गया है। वह शक्तिस्वरूपा है। वही शिवतत्त्व के आश्रित रहनेवाली, पराशक्ति कही गयी है। ज्ञानशक्ति के संयोग से वही इच्छा की उपोद्बलिका (उसे दृढ़ करने वाली) होती है। वह सम्पूर्ण शक्तियों की समष्टिरूपा है। वही शक्तितत्त्व के नाम से विख्यात हो समस्त कार्यसमूह की मूल प्रकृति मानी गयी है। उसी को कुण्डलिनी कहा गया है। वही विशुद्धाध्वपरा माया है। वह स्वरूपतः विभागरहित होती हुई भी छः अध्वाओं के रूप में विस्तार को प्राप्त होती है। उन छः अध्वाओं में से तीन तो शब्दरूप हैं और तीन अर्थरूप बताये गये हैं। सभी पुरुषों को आत्मशुद्धि के अनुरूप सम्पूर्ण तत्त्वों के विभाग से लय और भोग के अधिकार प्राप्त होते हैं। वे सम्पूर्ण तत्त्वकलाओं द्वारा यथायोग्य प्राप्त हैं। परा प्रकृति के जो आदि में पाँच प्रकार के परिणाम होते हैं, वे ही निवृत्ति आदि कलाएं हैं। मन्त्राध्वा, पदाध्वा और वर्णाध्वा – ये तीन अध्वा शब्द से सम्बन्ध रखते हैं तथा भुवनाध्वा, तत्त्वाध्वा और कलाध्वा – ये तीन अर्थ से सम्बन्ध रखने वाले हैं। इन सब में भी परस्पर व्याप्य-व्यापक भाव बताया जाता है। सम्पूर्ण मन्त्र पदों से व्याप्त हैं; क्योंकि वे वाक्यरूप हैं। सम्पूर्ण पद भी वर्णों से व्याप्त हैं; क्योंकि विद्वान पुरुष वर्णों के समूह को ही पद कहते हैं। वे वर्ण भी भुवनों से व्याप्त हैं; क्योंकि उन्हीं में उनकी उपलब्धि होती है। भुवन भी तत्त्वों के समूह द्वारा बाहर-भीतर से व्याप्त हैं; क्योंकि उनकी उत्पत्ति ही तत्त्वों से हुई है। उन कारणभूत तत्त्वों से ही उनका आरम्भ हुआ है। अनेक भुवन उनके अंदर से ही प्रकट हुए हैं। उनमें से कुछ तो पुराणों में प्रसिद्ध हैं। अन्य भुवनों का ज्ञान शिवसम्बन्धी आगम से प्राप्त करना चाहिये। कुछ तत्त्व सांख्य और योगशास्त्रों में भी प्रसिद्ध हैं।
शिवशास्त्रों में प्रसिद्ध तथा दूसरे-दूसरे भी जो तत्त्व हैं, वे सब-के-सब कलाओं द्वारा यथायोग्य व्याप्त हैं। परा प्रकति के जो आदिकाल में पाँच परिणाम हुए, वे ही निवृत्ति आदि कलाएँ हैं। वे पाँच कलाएँ उत्तरोत्तर तत्त्वों से व्याप्त हैं। अतः परा शक्ति सर्वत्र व्यापक है। वह विभागरहित होकर भी छः अध्वाओं के रूप में विभक्त है। शक्ति से लेकर पृथ्वीतत्त्व पर्यन्त सम्पूर्ण तत्त्वों का प्रादर्भाव शिवतत्त्व से हुआ है। अतः जैसे घड़े आदि मिट्टी से व्याप्त हैं, उसी प्रकार वे सारे तत्त्व एकमात्र शिव से ही व्याप्त हैं। जो छः अध्वाओं से प्राप्त होने वाला है, वही शिव का परम धाम है। पाँच तत्त्वों के शोधन से व्यापिका और अव्यापिका शक्ति जानी जाती है। निवृत्तिकला के द्वारा रुद्रलोक पर्यन्त ब्रह्माण्ड की स्थिति का शोधन होता है। प्रतिष्ठा-कला द्वारा उससे भी ऊपर जहाँ तक अव्यक्त की सीमा है, वहाँ तक की शोध की जाती है। मध्यवर्तिनी विद्या-कला द्वारा उससे भी ऊपर विद्येश्वर पर्यन्त स्थान का शोधन होता है। शान्ति-कला द्वारा उससे भी ऊपर के स्थान का तथा शान्त्यतीता-कला के द्वारा अध्वा के अन्त तक का शोधन हो जाता है। उसी को 'परम व्योम' कहा गया है।
ये पाँच तत्त्व बताये गये, जिनसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। वहीं साधकों को यह सब कुछ देखना चाहिये; जो अध्वा की व्याप्ति को न जानकर शोधन करना चाहता है, वह शुद्धि से वंचित रह जाता है, उसके फल को नहीं पा सकता। उसका सारा परिश्रम व्यर्थ, केवल नरक की ही प्राप्ति करानेवाला होता है। शक्तिपात का संयोग हुए बिना तत्त्वों का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। उनकी व्याप्ति और वद्धि का ज्ञान भी असम्भव है। शिव की जो चित्स्वरूपा परमेश्वरी पराशक्ति है, वही आज्ञा है। उस कारणरूपा आज्ञा के सहयोग से ही शिव सम्पूर्ण शिव के अधिष्ठाता होते हैं। विचारदृष्टि से देखा जाय तो आत्मा में कभी विकार नहीं होता। यह विकार की प्रतीति माया मात्र है। न तो बन्धन है और न उस बन्धन से छुटकारा दिलानेवाली कोई मुक्ति है। शिव की जो अव्यभिचारिणी पराशक्ति है, वही सम्पूर्ण ऐश्वर्य की पराकाष्ठा है। वह उन्हीं के समान धर्मवाली है और विशेषतः उनके उन-उन विलक्षण भावों से युक्त है। उसी शक्ति के साथ शिव गृहस्थ बने हुए हैं और वह भी सदा उन शिव के ही साथ उनको गृहिणी बनकर रहती है। जो प्रकृतिजन्य जगत्-रूप कार्य है, वही उन शिव दम्पति की संतान है। शिव कर्ता हैं और शक्ति कारण। यही उन दोनों का भेद है। वास्तव में एकमात्र साक्षात् शिव ही दो रूपों में स्थित हैं। कुछ लोगों का कहना है कि स्त्री और पुरुष रूप में ही उनका भेद है। अन्य लोग कहते हैं कि पराशक्ति शिव में नित्य समवेत है। जैसे प्रभा सूर्य से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार चित्स्वरूपिणी पराशक्ति शिव से अभिन ही है। यही सिद्धान्त है। अतः शिव परम कारण हैं, उनकी आज्ञा ही परमेश्वरी है। उसी से प्रेरित होकर शिव की अविनाशी मूल प्रकृति कार्यभेद से महामाया, माया और त्रिगुणात्मिक प्रकृति – इन तीन रूपों में स्थित हो छः अध्वाओं को प्रकट करती है। वह छः प्रकार का अध्वा वागर्थमय है, वही सम्पूर्ण जगत् के रूप में स्थित है; सभी शास्त्रसमूह इसी भाव का विस्तार से प्रतिपादन करते हैं।
(अध्याय २९)