ऋषियों के प्रश्न का उत्तर देते हुए वायुदेव के द्वारा शिव के स्वतन्त्र एवं सर्वानुग्राहक स्वरूप का प्रतिपादन
तदनन्तर ऋषियों ने कई कारण दिखाकर पूछा – वायुदेव! यदि शिव सदा शान्तभाव से रहकर ही सब पर अनुग्रह करते हैं तो सबकी अभिलाषाओं को एक साथ ही पूर्ण क्यों नहीं कर देते? जो सब कुछ करने में समर्थ होगा, वह सबको एक साथ ही बन्धन-मुक्त क्यों नहीं कर सकेगा? यदि कहें अनादिकाल से चले आनेवाले सबके विचित्र कर्म अलग-अलग हैं, अतः सबको एक समान फल नहीं मिल सकता तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि कर्मों की विचित्रता भी यहाँ नियामक नहीं हो सकती। कारण कि वे कर्म भी ईश्वर के कराने से ही होते हैं। इ्स विषय में बहुत कहने से क्या लाभ। उपर्यक्त रूप से विभिन्न युक्तियों द्वारा फैलायी गयी नास्तिकता जिस प्रकार से शीघ्र ही निवृत्त हो जाय, वैसा उपदेश दीजिये।
वायुदेवता ने कहा – ब्राह्मणो! आप लोगों ने युक्तियों से प्रेरित होकर जो संशय उपस्थित किया है, वह उचित ही है; क्योंकि किसी बात को जानने की इच्छा अथवा तत्त्वज्ञान के लिये उठाया गया प्रश्न साधु-बुद्धिवाले पुरुषों में नास्तिकता का उत्पादन नहीं कर सकता। मैं इस विषय में ऐसा प्रमाण प्रस्तुत करूंगा, जो सत्पुरुषों के मोह को दूर करनेवाला है। असत् पुरुषों का जो अन्यथा भाव होता है, उसमें प्रभु शिव की कृपा का अभाव ही कारण है। परिपूर्ण परमात्मा शिव के परम अनुग्रह के बिना कुछ भी कर्तव्य नहीं है, ऐसा निश्चय किया गया है। परानुग्रह कर्म में स्वभाव ही पर्याप्त (पूर्णतः समर्थ) है, अन्यथा निःस्वभाव पुरुष किसी पर भी अनुग्रह नहीं कर सकता। पशु और पाशरूप सारा जगत् ही पर कहा गया है। वह अनुग्रह का पात्र है। पर को अनुगृहीत करने के लिये पति की आज्ञा का समन्वय आवश्यक है। पति आज्ञा देनेवाला है, वही सदा सब पर अनुग्रह करता है। उस अनुग्रह के लिये ही आज्ञा-रूप अर्थ को स्वीकार करने पर शिव परतन्त्र कैसे कहे जा सकते हैं। अनुग्राहक की अपेक्षा न रखकर कोई भी अनुग्रह सिद्ध नहीं हो सकता। अतः स्वातन्त्रय-शब्द के अर्थ की अपेक्षा न रखना ही अनुग्रह का लक्षण है। जो अनुग्राह्य है, वह परतन्त्र माना जाता है; क्योंकि पति के अनुग्रह के बिना उसे भोग और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जो मूर्त्यात्मा हैं, वे भी अनुग्रह के पात्र हैं; क्योंकि उनसे भी शिव की आज्ञा की निवृत्ति नहीं होती – वे भी शिव की आज्ञा से बाहर नहीं हैं। यहाँ कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो शिव की आज्ञा के अधीन न हो। सकल (सगुण या साकार) होने पर भी जिसके द्वारा हमें निष्कल (निर्गुण या निराकार) शिव की प्राप्ति होती है, उस मूर्ति या लिंग के रूप में साक्षात् शिव ही विराज रहे हैं। वह 'शिव की मूर्ति है' यह बात तो उपचार से कही जाती है। जो साक्षात् निष्कल तथा परम कारणरूप शिव हैं, वे किसी के द्वारा भी साकार अनुभाव से उपलक्षित नहीं होते, ऐसी बात नहीं है। यहाँ प्रमाणगम्य होना उनके स्वभाव का उपपादक नहीं है, प्रमाण अथवा प्रतीक मात्र से अपेक्षा-बुद्धि का उदय नहीं होता। वे परम तत्त्व के उपलक्षण मात्र हैं, इसके सिवा उनका और कोई अभिप्राय नहीं है। कोई-न-कोई मूर्ति ही आत्मा का साक्षात् उपलक्षण होती है। 'शिव की मूर्ति है' इस कथन का अभिप्राय यह है कि उस मूर्ति के रूप में परम शिव विराजमान हैं। मूर्ति उनका उपलक्षण है। जैसे काष्ठ आदि आलम्बन का आश्रय लिये बिना केवल अग्नि कहीं उपलब्ध नहीं होती, उसी प्रकार शिव भी मूर्त्यात्मा में आरूढ़ हुए बिना उपलब्ध नहीं होते। यही वस्तुस्थिति है। जैसे किसी से यह कहने पर कि 'तुम आग ले आओ' उसके द्वारा जलती हुई लकड़ी आदि के सिवा साक्षात् अग्नि नहीं लायी जाती, उसी प्रकार शिव का पूजन भी मूर्तिरूप में ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसीलिये पूजा आदि में 'मूर्त्यात्मा' की परिकल्पना होती है; क्योंकि मूर्त्यात्मा के प्रति जो कुछ किया जाता है, वह साक्षात् शिव के प्रति किया गया ही माना गया है। लिंग आदि में विशेषतः अर्चाविग्रह में जो पूजनकृत्य होता है, वह भगवान् शिव का ही पूजन है। उन-उन मूर्तियों के रूप में शिव की भावना करके हम लोग शिव की ही उपासना करते हैं। जैसे परमेष्ठी शिव मूर्त्यात्मा पर अनुग्रह करते हैं, उसी प्रकार मूर्त्यात्मा में स्थित शिव हम पशुओं पर अनुग्रह करते हैं। परमेष्ठी शिव ने लोकों पर अनुग्रह करने के लिये ही सदाशिव आदि सम्पूर्ण मूर्त्यात्माओं को अधिष्ठित – अपनी आज्ञा में रखकर अनुगृहीत किया है।
भगवान् शिव सब पर अनुग्रह ही करते हैं, किसी का निग्रह नहीं करते, क्योंकि निग्रह करनेवाले लोगों में जो दोष होते हैं, वे शिव में असम्भव हैं। ब्रह्मा आदि के प्रति जो निग्रह देखे गये हैं, वे भी श्रीकण्ठमूर्ति शिव के द्वारा लोकहित के लिये ही किये गये हैं। विद्वानों की दृष्टि में निग्रह भी स्वरूप से दूषित नहीं है। (जब वह राग-द्वेष से प्रेरित होकर किया जाता है, तभी निन्दनीय माना जाता है।) इसीलिये दण्डनीय अपराधियों को राजाओं की ओर से मिले हुए दण्ड की प्रशंसा की जाती है। यदि साधु की रक्षा करनी है तो असाधु का निवारण करना ही होगा। पहले साम आदि तीन उपायों से असाधु के निवारण का प्रयत्न किया जाता है। यदि यह प्रयत्न सफल नहीं हुआ तो अन्त में चौथे उपाय दण्ड का ही आश्रय लिया जाता है। यह दण्डान्त अनुशासन लोकहित के लिये ही किया जाना चाहिये। यही उसके औचित्य को परिलक्षित कराता है। यदि अनुशासन इसके विपरीत हो तो उसे अहितकर कहते हैं। जो सदा हित में ही लगे रहनेवाले हैं, उन्हें ईश्वर का दृष्टान्त अपने सामने रखना चाहिये। (ईश्वर केवल दुष्टों को ही दण्ड देते हैं, इसीलिये निर्दोष कहे जाते हैं।) अतः जो दुष्टों को ही दण्ड देता है, वह उस निग्रह-कर्म को लेकर सत्पुरुषों द्वारा लांछित कैसे किया जा सकता है। लोक में जहाँ कहीं भी निग्रह होता है, वह यदि विद्वेषपूर्वक न हो, तभी श्रेष्ठ माना जाता है। जो पिता पुत्र को दण्ड देकर उसे अधिक शिक्षित बनाता है, वह उससे द्वेष नहीं करता।
शिव की आज्ञा का पालन ही हित है और जो हित है, वही उनका अनुग्रह है। अतएव सबको हित में नियुक्त करनेवाले शिव सब पर अनुग्रह करनेवाले कहे गये हैं। जो उपकार-शब्द का अर्थ है, उसे भी अनुग्रह ही कहा गया है; क्योंकि उपकार भी हितरूप ही होता है। अतः सबका उपकार करनेवाले शिव सर्वानुग्राहक हैं। शिव के द्वारा जडचेतन सभी सदा हित में ही नियुक्त होते हैं। परंतु सबको जो एक साथ और एक समान हित की उपलब्धि नहीं होती, इसमें उनका स्वभाव ही प्रतिबन्धक है। जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा सभी कमलों को विकास के लिये प्रेरित करते हैं, परंतु वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार एक साथ और एक समान विकसित नहीं होते, स्वभाव भी पदार्थों के भावी अर्थ का कारण होता है, किंतु वह नष्ट होते हुए अर्थ को कर्ताओं के लिये सिद्ध नहीं कर सकता। जैसे अग्नि का संयोग सुवर्ण को ही पिघलाता है, कोयले या अंगार को नहीं, उसी प्रकार भगवान् शिव परिपक्व मलवाले पशुओं को ही बन्धनमुक्त करते हैं, दूसरों को नहीं। जो वस्तु जैसी होनी चाहिये, वैसी वह स्वयं नहीं बनती। वैसी बनने के लिये कर्ता की भावना का सहयोग होना आवश्यक है। कर्ता की भावना के बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है, अतः कर्ता सदा स्वतन्त्र होता है।
सब पर अनुग्रह करनेवाले शिव जिस तरह स्वभाव से ही निर्मल हैं, उसी तरह 'जीव' संज्ञा धारण करने वाली आत्माएँ स्वभावतः मलिन होती हैं। यदि ऐसी बात न होती तो वे जीव क्यों नियमपूर्वक संसार में भटकते और शिव क्यों संसार-बन्धन से परे रहते? विद्वान् पुरुष कर्म और माया के बन्धन को ही जीव का 'संसार' कहते हैं। यह बन्धन जीव को ही प्राप्त होता है, शिव को नहीं। इसमें कारण है, जीव का स्वाभाविक मल। वह कारणभूत मल जीवों का अपना स्वभाव ही है, आगन्तुक नहीं है। यदि आगन्तुक होता तो किसी को भी किसी भी कारण से बन्धन प्राप्त हो जाता। जो यह हेतु है, वह एक है; क्योंकि सब जीवों का स्वभाव एक-सा है। यद्यपि सब में एक-सा आत्मभाव है, तो भी मल के परिपाक और अपरिपाक के कारण कुछ जीव बद्ध हैं और कुछ बन्धन से मुक्त हैं। बद्ध जीवों में भी कुछ लोग लय और भोग के अधिकार के अनुसार उत्कृष्ट और निकृष्ट होकर ज्ञान और ऐश्वर्य आदि की विषमता को प्राप्त होते हैं अर्थात् कुछ लोग अधिक ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त होते हैं तथा कुछ लोग कम। कोई मूर्त्यात्मा होते हैं और कोई साक्षात् शिव के समीप विचरनेवाले होते हैं। मूर्त्यात्माओं में कोई तो शिवस्वरूप हो छहों अध्वाओं के ऊपर स्थित होते हैं कोई अध्वाओं के मध्य मार्ग में महेश्वर होकर रहते हैं और कोई निम्न भाग में रुद्ररूप से स्थित होते हैं। शिव के समीपवर्ती स्वरूप में भी माया से परे होने के कारण उत्कृष्ट मध्यम और निकृष्ट के भेद से तीन श्रेणियाँ होती हैं – वहाँ निम्न स्थान में आत्मा की स्थिति है, मध्यम स्थान में अन्तरात्मा की स्थिति है और जो सबसे उत्कृष्ट श्रेणी का स्थान हैं उसमें परमात्मा की स्थिति है। ये ही क्रमश ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कहलात हैं। कोई वसु (जीव) परमात्मणद का आश्रय लेनेवाले होते हैं, कोई अन्तरात्मपद पर और आत्मपद पर प्रतिष्ठित होते हैं।
भगवान् शिव तो अनायास ही समस्त पशुओं को बन्धन से मुक्त करने में समर्थ हैं। फिर वे उन्हें बन्धन में डाले रखकर क्यों दुःख देते हैं? यहाँ ऐसा विचार या संदेह नहीं करना चाहिये; क्योंकि सारा संसार दुःखरूप ही है, ऐसा विचारवानों का निश्चित सिद्धान्त है। जो स्वभावतः दुःखमय है वह दुःखरहित कैसे हो सकता है। स्वभाव में उलट-फेर नहीं हो सकता। वैद्य की दवा से रोग अरोग नहीं होता। वह रोगपीड़ित मनुष्य का अपनी दवा से सुखपूर्वक उद्धार कर देता है। इसी प्रकार जो स्वभावतः मलिन और स्वभाव से ही दुःखी हैं, उन पशुओं को अपनी आज्ञारूपी ओषधि देकर शिव दुःख से छड़ा देते हैं। रोग होने में वैद्य कारण नहीं है, परंतु संसार की उत्पत्ति में शिव कारण हैं। अतः रोग और वैद्य के दृष्टान्त से शिव और संसार के दार्ष्टान्त में समानता नहीं है। इसलिये इसके द्वारा शिव पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता। जब दुःख स्वभाव-सिद्ध है, तब शिव उसके कारण कैसे हो सकते हैं। जीवों में जो स्वाभाविक मल है, वही उन्हें संसार के चक्र में डालता है। संसार का कारणभूत जो मल – अचेतन माया आदि है, वह शिव का सांनिध्य प्राप्त किये बिना स्वयं चेष्टाशील नहीं हो सकता। जैसे चुम्बकमणि लोहे का सांनिध्य पाकर ही उपकारक होता है – लोहे को खींचता है, उसी प्रकार शिव भी जड माया आदि का सांनिध्य पाकर ही उसके उपकारक होते हैं, उसे सचेष्ट बनाते हैं। उनके विद्यमान सांनिध्य को अकारण हटाया नहीं जा सकता। अतः जगत् के लिये जो सदा अज्ञात हैं, वे शिव ही इसके अधिष्ठाता हैं। शिव के बिना यहाँ कोई भी प्रवृत्त (चेष्टाशील) नहीं होता, उनकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। उनसे प्रेरित होकर ही यह सारा जगत् विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करता है, तथापि वे शिव कभी मोहित नहीं होते। उनकी आज्ञारूपिणी जो शक्ति है, वही सबका नियन्त्रण करती है। उसका सब ओर मुख है। उसी ने सदा इस सम्पूर्ण दृश्यप्रपंच का विस्तार किया है, तथापि उसके दोष से शिव दूषित नहीं होते। जो दुर्बुद्धि मानव मोहवश इसके विपरीत मान्यता रखता है, वह नष्ट हो जाता है। शिव की शक्ति के वैभव से ही संसार चलता है, तथापि इससे शिव दूषित नहीं होते।
इसी समय आकाश से शरीररहित वाणी सुनायी दी – 'सत्यम् ओम् अमृतं सौम्यम्! * [ हाँ, वह सत्य है, अमृतमय है और सौम्य है।] इन पदों का वहाँ स्पष्ट उच्चारण हुआ, उसे सुनकर सब लोग बहुत प्रसन्न हुए। उनके समस्त संशयों का निवारण हो गया तथा उन मुनियों ने विस्मित हो प्रभु पवनदेव को प्रणाम किया। इस प्रकार उन मुनियों को संदेहरहित करके भी वायुदेव ने यह नहीं माना कि इन्हें पूर्ण ज्ञान हो गया। 'इनका ज्ञान अभी प्रतिष्ठित नहीं हुआ है' ऐसा समझकर ही वे इस प्रकार बोले।
वायुदेवता ने कहा – मुनियो! परोक्ष और अपरोक्ष के भेद से ज्ञान दो प्रकार का माना गया है। परोक्ष ज्ञान को अस्थिर कहा जाता है और अपरोक्ष ज्ञान को सुस्थिर। युक्तिपूर्ण उपदेश से जो ज्ञान होता है, उसे विद्वान् पुरुष परोक्ष कहते हैं। वही श्रेष्ठ अनुष्ठान से अपरोक्ष हो जायगा। अपरोक्ष ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं होता, ऐसा निश्चय करके तुम लोग आलस्यरहित हो श्रेष्ठ अनुष्ठान की सिद्धि के लिये प्रयत्न करो।
(अध्याय ३० - ३१)