परम धर्म का प्रतिपादन, शैवागम के अनुसार पाशुपत ज्ञान तथा उसके साधनों का वर्णन

ऋषियों ने पूछा – वायुदेव! वह कौन-सा श्रेष्ठ अनुष्ठान है, जो मोक्षस्वरूप ज्ञान को अपरोक्ष कर देता है? उसको और उसके साधनों को आज आप हमें बताने की कृपा करें।

वायु ने कहा – भगवान् शिव का बताया हुआ जो परम धर्म है, उसी को श्रेष्ठ अनुष्ठान कहा गया है। उसके सिद्ध होने पर साक्षात् मोक्षदायक शिव अपरोक्ष हो जाते हैं। वह परम धर्म पाँचों पर्वों के कारण क्रमशः पाँच प्रकार का जानना चाहिये। उन पर्वों के नाम हैं – क्रिया, तप, जप, ध्यान और ज्ञान। ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं, उन उत्कृष्ट साधनों से सिद्ध हुआ धर्म परम धर्म माना गया है। जहाँ परोक्ष ज्ञान भी अपरोक्ष ज्ञान होकर मोक्षदायक होता है। वैदिक धर्म दो प्रकार के बताये गये हैं – परम और अपरम। धर्म-शब्द से प्रतिपाद्य अर्थ में हमारे लिये श्रुति ही प्रमाण है। योगपर्यन्त जो परम धर्म है, वह श्रुतियों के शिरोभूत उपनिषद् में वर्णित है और जो अपरम धर्म है, वह उसकी अपेक्षा नीचे श्रुति के मुख-भाग से अर्थात् संहिता-मन्त्रों द्वारा प्रतिपादित हुआ है। जिसमें पशु (बद्ध) जीवों का अधिकार नहीं है, वह वेदान्तवर्णित धर्म 'परम धर्म' माना गया है। उससे भिन्न जो यज्ञ-यागादि हैं, उसमें सबका अधिकार होने से वह साधारण या 'अपरम थर्म' कहलाता है। जो अपरम धर्म है, वही परम धर्म का साधन है। धर्म-शास्त्र आदि के द्वारा उसका सम्यक् रूप से विस्तारपूर्वक सांगोपांग निरूपण हुआ है। भगवान् शिव के द्वारा प्रतिपादित जो परम धर्म है, उसी का नाम श्रेष्ठ अनुष्ठान है। इतिहास और पुराणों द्वारा उसका किसी प्रकार विस्तार हुआ है, परंतु शैव-शास्त्रों द्वारा उसके विस्तार का सांगोपांग निरूपण किया गया है। वहीं उसके स्वरूप का सम्यक् रूप से प्रतिपादन हुआ है। साथ ही उसके संस्कार और अधिकार भी सम्यक् रूप से विस्तारपूर्वक बताये गये हैं। शैव-आगम के दो भेद हैं – श्रौत और अश्रौत। जो श्रुति के सार तत्त्व से सम्पन्न है वह श्रौत है; और जो स्वतन्त्र है, वह अश्रौत माना गया है। स्वतन्त्र शैवागम पहले दस प्रकार का था, फिर अठारह प्रकार का हुआ। वह कायिका आदि संज्ञाओं से सिद्ध होकर सिद्धान्त नाम धारण करता है। श्रुतिसारमय जो शैव-शास्त्र है, उसका विस्तार सौ करोड़ श्लोकों में किया गया है। उसी में उत्कृष्ट 'पाशुपत व्रत' और 'पाशुपत ज्ञान' का वर्णन किया गया है। युग-युग में होनेवाले शिष्यों को उसका उपदेश देने के लिये भगवान् शिव स्वयं ही योगाचार्यरूप से जहाँ-तहाँ अवतीर्ण हो उसका प्रचार करते हैं।

इस शैव-शास्त्र को संक्षिप्त करके उसके सिद्धान्त का प्रवचन करनेवाले मुख्यतः चार महर्षि हैं – रुरु, दधीच, अगस्त्य और महायशस्वी उपमन्यु। उन्हें संहिताओं का प्रवर्तक 'पाशुपत' जानना चाहिये। उनकी संतान परम्परा में सैकड़ों-हजारों गुरुजन हो चुके हैं। पाशुपत सिद्धान्त में जो परम धर्म बताया गया है, वह चर्या आदि चार पादों * [ चर्या, विद्या, क्रिया और योग] के कारण चार प्रकार का माना गया है। उन चारों में जो पाशुपत योग है, वह दृढ़तापूर्वक शिव का साक्षात्कार करानेवाला है। इसलिये पाशुपत योग ही श्रेष्ठ अनुष्ठान माना गया है। उसमें भी ब्रह्माजी ने जो उपाय बताया है, उसका वर्णन किया जाता है। भगवान् शिव के द्वारा परिकल्पित जो 'नामाष्टकमय योग' है, उसके द्वारा सहसा 'शैवी प्रज्ञा का उदय होता है। उस प्रज्ञा द्वारा पुरुष शीघ्र ही सुस्थिर परम ज्ञान प्राप्त कर लेता है। जिसके हृदय में वह ज्ञान प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके ऊपर भगवान् शिव प्रसन्न होते हैं। उनके कृपा-प्रसाद से वह परम योग सिद्ध होता है, जो शिव का अपरोक्ष दर्शन कराता है। शिव के अपरोक्ष ज्ञान से संसार-बन्धन का कारण दूर हो जाता है। इस प्रकार संसार से मुक्त हुआ पुरुष शिव के समान हो जाता है। यह ब्रह्माजी का बताया हुआ उपाय है। उसी का पृथक् वर्णन करते हैं। शिव, महेश्वर, रुद्र, विष्णु, पितामह (ब्रह्मा), संसारवैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा – ये मुख्यतः आठ नाम हैं। ये आठों मुख्य नाम शिव के प्रतिपादक हैं। इनमें से आदि पाँच नाम क्रमशः शान्त्यतीता आदि पाँच कलाओं से सम्बन्ध रखते हैं और उन पाँच उपाधियों को ग्रहण करने से सदाशिव आदि के बोधक होते हैं। उपाधि की निवृत्ति होने पर इन भेदों की निवृत्ति हो जाती है। वह पद ही नित्य है। किंतु उस पद पर प्रतिष्ठित होनेवाले अनित्य कहे गये हैं। पदों का परिवर्तन होने पर पदवाले पुरुष मुक्त हो जाते हैं। परिवर्तन के अनन्तर पुनः दूसरे आत्माओं को उस पद की प्राप्ति बतायी जाती है और उन्हीं के वे आदि पाँच नाम नियत होते हैं। उपादान आदि योग से अन्य तीन नाम (संसारवैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा) भी त्रिविध उपाधि का प्रतिपादन करते हुए शिव में ही अनुगत होते हैं।

अनादि मल का संसर्ग उनमें पहले से ही नहीं है तथा वे स्वभावतः अत्यन्त शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये 'शिव' कहलाते हैं अथवा वे ईश्वर समस्त कल्याणमय गुणों के एकमात्र घनीभूत विग्रह हैं। इसलिये शिवतत्त्व के अर्थ को जानने वाले श्रेष्ठ महात्मा उन्हें शिव कहते हैं। तेईस तत्त्वों से परे जो प्रकृति बतायी गयी है, उससे भी परे पच्चीसवें तत्त्व के स्थान में पुरुष को बताया गया है, जिसे वेद के आदि में ओंकाररूप कहा गया है। ओंकार और पुरुष में वाच्य-वाचक-भाव सम्बन्ध है उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान एकमात्र वेद से ही होता है। वे ही वेदान्त में प्रतिष्ठित हैं। किंतु वह प्रकृति से संयुक्त है; अतः उससे भी परे जो परम पुरुष है, उसका नाम 'महेश्वर' है; क्योंकि प्रकृति और पुरुष दोनों की प्रवृत्ति उसी के अधीन है अथवा यह जो अविनाशी त्रिगुणमय तत्त्व है, इसे प्रकृति समझना चाहिये। इस प्रकृति को माया कहते हैं। यह माया जिनकी शक्ति है, उन मायापति का नाम 'महेश्वर' है। महेश्वर के सम्बन्ध से जो माया अथवा प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करते हैं, वे अनन्त या 'विष्णु' कहे गये हैं। वे ही कालात्मा और परमात्मा आदि नामों से पुकारे जाते हैं। उन्हीं को स्थूल और सूक्ष्मरूप भी कहा गया है। दुःख अथवा दुःख के हेतु का नाम 'सत्' है। जो प्रभु उसका द्रावण करते हैं – उसे मार भगाते हैं, उन परम कारण शिव को साधु पुरुष 'रुद्र' कहते हैं। कला, काल आदि तत्त्वों से लेकर भूतों में पृथ्वी-पर्यन्त जो छत्तीस [* कला, काल, नियति, विद्या, राग, प्रकृति और गुण – ये सात तत्त्व, पंचतन्मात्रा, दस इन्द्रियाँ, चार अन्तःकरण, पाँच शब्द आदि विषय तथा आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी ये छत्तीस तत्त्व हैं।] तत्त्व हैं, उन्हीं से शरीर बनता है। उस शरीर, इन्द्रिय आदि में जो तन्द्रारहित हो व्यापक रूप से स्थित हैं, वे भगवान् शिव 'रुद्र' कहे गये। जगत् के पितारूप जो मूर्त्यात्मा हैं, उन सबके पिता के रूप में भगवान् शिव विराजमान हैं; इसलिये वे 'पितामह' कहे गये हैं। जैसे रोगों के निदान को जाननेवाला वैद्य तदनुकूल उपायों और दवाओं से रोग को दूर कर देता है, उसी तरह ईश्वर लययोगाधिकार से सदा जड-मूल सहित संसार-रोग की निवृत्ति करते हैं; अतः सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता विद्वान् उन्हें 'संसारवैद्य' कहते हैं। दस विषयों के ज्ञान के लिये दसों इन्द्रियों के होते हुए भी जीव तीनों कालों में होनेवाले स्थूल-सूक्ष्म पदार्थों को पूर्ण रूप से नहीं जानते; क्योंकि माया ने ही उन्हें मल से आवृत्त कर दिया है। परंतु भगवान् सदाशिव सम्पूर्ण विषयों के ज्ञान के साधनभूत इन्द्रियादि के न होने पर भी जो वस्तु जिस रूप में स्थित है, उसे उसी रूप में ठीक-ठीक जानते हैं; इसलिये वे 'सर्वज्ञ' कहलाते हैं। जो इन सभी उत्तम गुणों से नित्य संयुक्त होने के कारण सबके आत्मा हैं, जिनके लिये अपने से अतिरिक्त किसी दूसरे आत्मा की सत्ता नहीं है, वे भगवान् शिव स्वयं ही 'परमात्मा' हैं।

आचार्य की कृपा से इन आठों नामों का अर्थ सहित उपदेश पाकर शिव आदि पाँच नामों द्वारा निवृत्ति आदि पाँचों कलाओं की ग्रन्थि का क्रमशः छेदन और गुण के अनुसार शोधन करके गुणित, उद्घातयुक्त और अनिरुद्ध प्राणों द्वारा हृदय, कण्ठ, तालु, भूमध्य और ब्रह्मरन्ध्र से युक्त पुर्यष्टक का भेदन करके सुषुम्णा नाड़ी द्वारा अपने आत्मा को सहस्त्रार चक्र के भीतर ले जाय। उसका शुभ्रवर्ण है। वह तरुण सूर्य के सदृश रक्तवर्ण केसर के द्वारा रंजित और अधोमुख है। उसके पचास दलों में स्थित 'अ' से लेकर 'क्ष' तक सबिन्दु अक्षर-कर्णिका के बीच में गोलाकार चन्द्रमण्डल है। यह चन्द्रमण्डल छत्राकार में स्थित है। उसने एक ऊर्ध्वमुख द्वादश-दल कमल को आवृत कर रखा है। उस कमल की कर्णिका में विद्युत्-सदृश अकथादि त्रिकोण यन्त्र है। उस यन्त्र के चारों ओर सुधासागर होने के कारण वह मणिद्वीप के आकार का हो गया है। उस द्वीप के मध्य-भाग में मणिपीठ है। उसके बीच में नाद बिन्दु के ऊपर हंसपीठ है। उस पर परम शिव विराजमान हैं। उक्त चन्द्रमण्डल के ऊपर शिव के तेज में अपने आत्मा को संयुक्त करे। इस प्रकार जीव को शिव में लीन करके शाक्त अमृतवर्षा के द्वारा अपने शरीर के अभिषिक्त होने की भावना करे। तत्पश्चात् अमृतमय विग्रहवाले अपने आत्मा को ब्रह्मरन्ध्र से उतारकर हृदय में द्वादश-दल कमल के भीतर स्थित चन्द्रमा से परे श्वेत कमल पर अर्द्धनारीशवर रूप में विराजमान मनोहर आकृतिवाले निर्मल देव भक्तवत्सल महादेव शंकर का चिन्तन करे। उनकी अंगकान्ति शुद्धस्फटिक मणि के समान उज्ज्वल है। वे शीतल प्रभा से युक्त और प्रसन्न हैं। इस प्रकार मन-ही-मन ध्यान करके शान्तचित्त हुआ मनुष्य शिव के आठ नामों द्वारा ही भावमय पुष्पों से उनकी पूजा करे। पूजन के अन्त में पुनः प्राणायाम करके चित्त को भलीभाँति एकाग्र रखते हुए शिव-नामाष्टक का जप करे। फिर भावना द्वारा नाभि में आठ आहुतियों का हवन करके पूर्णाहति एवं नमस्कारपूर्वक आठ फूल चढ़ाकर अन्तिम अर्चना पूरी करके चुल्लू में लिये हुए जल की भाँति अपने-आपको शिव के चरणों में समर्पित कर दे। इस प्रकार करने से शीघ्र ही मंगलमय पाशुपत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है और साधक उस ज्ञान की सुस्थिरता पा लेता है। साथ ही वह परम उत्तम पाशुपत-व्रत एवं परम योग को पाकर मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

(अध्याय ३२)