पाशुपत-व्रत की विधि और महिमा तथा भस्मधारण की महत्ता
ऋषि बोले – भगवन्! हम परम उत्तम पाशुपत-व्रत को सुनना चाहते हैं, जिसका अनुष्ठान करके ब्रह्मा आदि सब देवता पाशुपत माने गये हैं।
वायुदेव ने कहा – मैं तुम सब लोगों को गोपनीय पाशुपत-व्रत का रहस्य बताता हूँ, जिसका अथर्वशीर्ष में वर्णन है तथा जो सब पापों का नाश करनेवाला है। चित्रा से युक्त पौर्णमासी इसके लिये उत्तम काल है। शिव के द्वारा अनुगृहीत स्थान ही इसके लिये उत्तम देश है अथवा क्षेत्र, बगीचे आदि तथा वनप्रान्त भी शुभ एवं प्रशस्त देश हैं। पहले त्रयोदशी को भलीभाँति स्नान करके नित्यकर्म सम्पन्न कर ले। फिर अपने आचार्य की आज्ञा लेकर उनका पूजन और नमस्कार करके व्रत के अंगरूप से देवताओं की विशेष पूजा करे। उपासक को स्वयं श्वेत वस्त्र, श्वेत यज्ञोपवीत, श्वेत पुष्प और श्वेत चन्दन धारण करना चाहिये। वह कुश के आसन पर बैठकर हाथ में मुट्ठीभर कुश ले पूर्व या उत्त की ओर मुँह करके तीन प्राणायाम करने के पश्चात् भगवान् शिव और देवी पार्वती का ध्यान करे। फिर यह संकल्प करे कि मैं शिवशास्त्र में बतायी हुई विधि के अनुसार यह पाशुपत-व्रत करूँगा। वह जब तक शरीर गिर न जाय, तब तक के लिये अथवा बारह, छः या तीन वर्षों के लिये अथवा बारह, छः, तीन या एक महीने के लिये अथवा बारह, छः, तीन या एक दिन के इस व्रत की दीक्षा ले। संकल्प करके विरजा होम के लिये विधिवत् अग्नि की स्थापना करके क्रमशः घी, समिधा और चरु से हवन करे। तत्पश्चात् तत्त्वों की शुद्धि के उपदेश से फिर मूलमन्त्र द्वारा उन समिधा आदि सामग्रियों की ही आहुतियाँ दे। उस समय वह बारंबार यह चिन्तन करे कि 'मेरे शरीर में जो ये तत्त्व हैं, सब शुद्ध हो जायँ।' उन तत्त्वों के नाम इस प्रकार हैं – पाँचों भूत, उनकी पाँचों तन्मात्राएं, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच विषय, त्वचा आदि सात धातु, प्राण आदि पाँच वायु, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति, पुरुष, राग, विद्या, कला, नियति, काल, माया, शुद्ध विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति-तत्त्व और शिव-तत्त्व – ये क्रमशः तत्त्व कहे गये हैं।
विरज मन्त्रों से आहुति करके होता रजोगुणरहित शुद्ध हो जाता है। फिर शिव का अनुग्रह पाकर वह ज्ञानवान् होता है। तदनन्तर गोबर लाकर उसकी पिण्डी बनाये। फिर उसे मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके अग्नि में डाल दे। इसके बाद इसका प्रोक्षण करके उस दिन व्रती केवल हविष्य खाकर रहे। जब रात बीतकर प्रातःकाल आये, तब चतुर्दशी में पुनः पूर्वोक्त सब कृत्य करे। उस दिन शेष समय निराहार रहकर ही बिताये। फिर पूर्णिमा को प्रातःकाल इसी तरह होम पर्यन्त कर्म करके रुद्राग्नि का उपसंहार करे। तदनन्तर यत्नपूर्वक उसमें से भस्म ग्रहण करे। इसके बाद साधक चाहे जटा रखा ले, चाहे सारा सिर मुड़ा ले या चाहे तो केवल सिर पर शिखा धारण करे। इसके बाद स्नान करके यदि वह लोकलज्जा से ऊपर उठ गया हो तो दिगम्बर हो जाय। अथवा गेरुआ वस्त्र, मृगचर्म या फटे-पुराने चीथड़े को ही धारण कर ले। एक वस्त्र धारण करे या वल्कल पहनकर रहे। कटि में मेखला धारण करके हाथ में दण्ड ले ले। तदनन्तर दोनों पैर धोकर आचमन करे। विरजाग्नि से प्रकट हुए भस्म को एकत्र करके 'अग्निरिति भस्म' इत्यादि छः अथर्ववेदीय मन्त्रों द्वारा उसे अपने शरीर में लगाये। मस्तक से लेकर पैर तक सभी अंगों में उसे अच्छी तरह मल दे। इसी क्रम से प्रणव या शिवमन्त्र द्वारा सर्वांग में भस्म रमाकर 'त्रयायुषम्' इत्यादि मन्त्रों से ललाट आदि अंगो में त्रिपुण्ड्र की रचना करे। इस प्रकार शिवभाव को प्राप्त हो शिवयोग का आचरण करे। तीनों संध्याओं के समय ऐसा ही करना चाहिये। यही 'पाशुपत-व्रत' है, जो भोग और मोक्ष देनेवाला है। यह जीवों के पशुभाव को निवृत्त कर देता है। इस प्रकार पाशुपत-व्रत के अनुष्ठान द्वारा पशुत्व का परित्याग करके लिंगमूर्ति सनातन महादेवजी का पूजन करना चाहिये। यदि वैभव हो तो सोने का अष्टदल कमल बनवाये, जिसमें नौ प्रकार के रत्न जड़े गये हों। उसमें कर्णिका और केसर भी हों। ऐसे कमल को भगवान् का आसन बनावे। धनाभाव होने पर लाल या सफेद कमल के फूल का आसन अर्पित करे। वह भी न मिले तो केवल भावनामय कमल समर्पित करे।
उस कमल की कर्णिका में पीठिका सहित छोटे से स्फटिक मणिमय लिंग की स्थापना करके क्रमशः विधिपूर्वक उसका पूजन करे। उस लिंग का शोधन करके पहले शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी स्थापना कर लेनी चाहिये। फिर आसन दे पंचमुख के प्रकार से मूर्ति की कल्पना करके पंचगव्य आदि से पूर्ण, अपने वैभव के अनुसार संगृहीत भरे हुए सुवर्णनिर्मित कलशों से उस मूर्ति को स्नान कराये। फिर सुगन्धित द्रव्य, कपूर, चन्दन और कुंकुम आदि से वेदी सहित भूषणभूषित शिवलिंग का अनुलेपन करके बिल्वपत्र, लाल कमल, श्वेत कमल, नील कमल, अन्यान्य सुगन्धित पुष्प, पवित्र एवं उत्तम पत्र तथा दूर्वा और अक्षत आदि विचित्र उपचार चढ़ाकर यथाप्राप्त सामग्रियों द्वारा महापूजन की विधि से उसमें मूर्ति की अभ्यर्चना करे। फिर धूप, दीप और नैवेद्य निवेदन करे। इस तरह भगवान् शिव को उत्तम वस्त्र निवेदन करके अपना कल्याण करे। उस व्रत में विशेषतः वे सभी वस्तुएं देनी चाहिये, जो अपने को अधिक प्रिय हों, श्रेष्ठ हों, और न्यायपूर्वक उपार्जित हुई हों। बिल्वपत्र, उत्पल और कमलों की संख्या एक-एक हजार होनी चाहिये। अन्य पत्रों और फूलो में से प्रत्येक की संख्या एक सौ आठ होनी चाहिये। इन सामग्रियों में भी बिल्वपत्र को विशेष यत्नपूर्वक जुटाये। उसे भूलकर भी न छोड़े। सोने का बना हुआ एक ही कमल एक सहस्त्र कमलों से श्रेष्ठ बताया गया है। नीलकमल आदि के विषय में भी यही बात है। ये सब बिल्वपत्रों के समान ही महत्त्व रखते हैं। अन्य पुष्पों के लिये कोई नियम नहीं है। वे जितने मिलें, उतने ही चढ़ाने चाहिये। अष्टांग अर्घ्य उत्कृष्ट माना जाता है। धूप और आलेप (चन्दन) के विषय में विशेष बात यह है। 'वामदेव' नामक मुख में चन्दन, 'तत्पुरुष' नामक मुख में हरिताल और 'ईशान' नामक मुख में भस्म लगाना चाहिये। कोई-कोई भस्म की जगह आलेपन का विधान करते हैं। दूसरे प्रकार के धूप का विधान होने से कुछ लोग प्रसिद्ध धूप का निषेध करते हैं। 'अधघोर' नामक मुख के लिये श्वेत अगुरु का धूप देना चाहिये। 'तत्पुरुष' नामक मुख के लिये कृष्ण अगुरु के धूप का विधान है। 'वामदेव' के लिये गुग्गुल, 'सद्योजात' मुख के लिये सौगन्धिक तथा 'ईशान' के लिये भी उशीर आदि धूप को विशेष रूप से देना चाहिये। शर्करा, मधु, कपूर, कपिला गाय का घी, चन्दन का चूरा तथा अगुरु नामक काष्ठ आदि का चूर्ण – इन सबको मिलाकर जो धूप तैयार किया जाता है, उसे सबके लिये सामान्य रूप से उपयोग के योग्य बताया गया है। कपूर की बत्ती और घी के दीपक जलाकर दीपमाला देनी चाहिये। तत्पश्चात् प्रत्येक मुख के लिये पृथक्-पृथक् अर्ध्य और आचमन देने का विधान है।
प्रथम आवरण में गणेश और कार्तिकेय की पूजा करनी चाहिये। उनके साथ ही बाह्य अंगों की भी पूजा आवश्यक है। प्रथमावरण की पूजा हो जाने पर द्वितीयावरण में चक्रवर्ती विघ्नेश्वरों का पूजन करना चाहिये। तृतीयावरण में भव आदि अष्टमूर्तियों की पूजा का विधान है। वहीं महादेव आदि एकादश मूर्तियों का भी पूजन आवश्यक है। चौथे आवरण में सभी गणेश्वर पूजनीय हैं। पंचमावरण में कमल के बाह्यभाग में क्रमशः दस दिक्पालों, उनके अस्त्रों और अनुचरों की क्रमशः पूजा करनी चाहिये। वहीं ब्रह्मा के मानस पुत्रों की, समस्त ज्योतिर्गणों की, सब देवी-देवताओं की, सभी आकाशचारियों की, पातालवासियों की, अखिल मुनीश्वरों की, योगियों की, सब यज्ञों की, द्वादश सूर्यों की, मातृकाओं की, गणों सहित क्षेत्रपालों की और इस समस्त चराचर जगत् की पूजा करनी चाहिये। इन सबको शंकरजी की विभूति मानकर शिव की प्रसन्नता के लिये ही इनका पूजन करना उचित है।
इस प्रकार आवरणपूजा के पश्चात् परमेश्वर शिव का पूजन करके उन्हें भक्तिपूर्वक घृत और व्यंजन सहित मनोहर हविष्य निवेदन करना चाहिये। मुखशुद्धि के लिये आवश्यक उपकरणों सहित ताम्बूल देकर नाना प्रकार के फूलों से पुनः इष्टदेव का श्रृंगार करे। आरती उतारे। तत्पश्चात् पूजन का शेष कृत्य पूर्ण करे। प्याला तथा उपकारक सामग्रियों सहित शय्या समर्पित करे। शय्या पर चन्द्रमा के समान चमकीला हार दे। राजोचित मनोहर वस्तुएँ सब प्रकार से संचित करके दे। स्वयं पूजन करे, दूसरों से भी कराये तथा प्रत्येक पूजन में आहुति दे। इसके बाद स्तुति, प्रार्थना और जप करके पंचाक्षरी विद्या को जपे। परिक्रमा और प्रणाम करके अपने-आपको समर्पित करे। तदनन्तर इृष्टदेव के सामने ही गुरु और ब्राह्मण की पूजा करे। इसके बाद अर्घ्य और आठ फूल देकर पूजित लिंग या मूर्ति से देवता का विसर्जन करे। फिर अग्निदेव का भी विसर्जन करके पूजा समाप्त करे। मनुष्य को चाहिये कि प्रतिदिन इसी प्रकार पूर्वोक्त रूप से सेवा करे। पूजन के अन्त में सुवर्णमय कमल तथा अन्य सब उपकरणों सहित उस शिवलिंग को गुरु के हाथ में दे दे अथवा शिवालय में स्थापित कर दे। गुरुओं, ब्राह्मणों तथा विशेषतः व्रतधारियों की पूजा करके सामर्थ्य हो तो भ्क्त ब्राह्मणों तथा दीनों और अनाथों को भी संतुष्ट करे। स्वयं उपवास में असमर्थ होने पर फल-मूल खाकर या दूध पीकर रहे अथवा भिक्षान्नभोजी हो या एक समय भोजन करे। रात को प्रतिदिन परिमित भोजन करे और पवित्र भाव से भूमि पर ही सोये। भस्म पर, तृण पर अथवा चीर या मृगचर्म पर शयन करे। प्रतिदिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इस व्रत का अनुष्ठान करे। यदि शक्ति हो तो रविवार के दिन, आर्द्रा नक्षत्र में दोनों पक्षों की पूर्णिमा और अमावास्या को, अष्टमी को तथा चतुर्दशी को उपवास करे। मन, वाणी और क्रिया द्वारा सम्पूर्ण प्रयत्न से पाखण्डी, पतित, रजस्वला स्त्री, सूतक में पड़े हुए लोग तथा अन्त्यज आदि के सम्पर्क का त्याग करे। निरन्तर क्षमा, दान, दया, सत्यभाषण और अहिंसा में तत्पर रहे। संतुष्ट और शान्त रहकर जप और ध्यान में लगा रहे। तीनों काल स्नान करे अथवा भस्म-स्नान कर ले। मन, वाणी और क्रिया द्वारा विशेष पूजा किया करे। इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ? व्रतधारी पुरुष कभी अशुभ आचरण न करे। प्रमादवश यदि वैसा आचरण बन जाय तो उसके गुरु-लाघव का विचार करके उसके दोष का निवारण करने के लिये पूजा, होम और जप आदि के द्वारा उचित प्रायश्चित्त करे। व्रत की समाप्तिपर्यन्त भूलकर भी अशुभ आचरण न करे। सम्पत्ति हो तो उसके अनुसार गोदान, वृषोत्सर्ग और पूजन करे। भक्त पुरुष निष्कामभाव से शिव की प्रीति के लिये ही सब कुछ करे। यह संक्षेप से इस व्रत की सामान्य विधि कही गयी है।
अब शास्त्र के अनुसार प्रत्येक मास में जो विशेष कृत्य है, उसे बताता हूँ। वैशाखमास में हीरे के बने हुए शिवलिंग का पूजन करना चाहिये। ज्येष्ठभास में मरकत मणिमय शिवलिंग की पूजा उचित है। आषाढ़मास में मोती के बने हुए शिवलिंग को पूजनीय समझे। श्रावणमास में नीलम का बना हुआ शिवलिंग पूजन के योग्य है। भाद्रपदमास में पूजन के लिये पद्मराग मणिमय शिवलिंग को उत्तम माना गया है। आश्विनमास में गोमेदमणि के बने हुए लिंग को उत्तम समझे। कार्तिकमास में मूंगे के और मार्गशीर्षमास में वैदूर्यमणि के बने हुए लिंग की पूजा का विधान है। पौषमास में पुष्पाग (पुखराज) मणि के तथा माघमास में सूर्यकान्तमणि के लिंग का पूजन करना चाहिये। फाल्गुनमास में चन्द्रकान्तमणि के और चैत्र में सूर्यकान्तमणि के बने हुए लिंग के पूजन की विधि है। अथवा रत्नों के न मिलने पर सभी मासों में सुवर्णमय लिंग का ही पूजन करना चाहिये। सुवर्ण के अभाव में चाँदी, ताँबे, पत्थर, मिट्टी, लाह या और किसी वस्तु का जो सुलभ हो, लिंग बना लेना चाहिये। अथवा अपनी रुचि के अनुसार सर्वगन्धमय लिंग का निर्माण करे। व्रत की समाप्ति के समय नित्यकर्म पूर्ण करके पूर्ववत् विशेष पूजा और हवन करने के पश्चात् आचार्य का तथा विशेषतः व्रती ब्राह्मण का पूजन करे। फिर आचार्य की आज्ञा ले पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके कुशासन पर बैठे। हाथ में कुश ले, प्राणायाम करके, 'साम्बसदाशिव' का ध्यान करते हुए यथाशक्ति मूलमन्त्र का जप करे। फिर पूर्ववत् आज्ञा ले हाथ जोड़ नमस्कार करके कहे – 'भगवन्! अब मैं आपकी आज्ञा से इस व्रत का उत्सर्ग करता हूँ।' ऐसा कह शिवलिंग के मूल भाग में उत्तरदिशा की ओर कुशों का त्याग करे। तदनन्तर दण्ड, चीर, जटा और मेखला को भी त्याग दे। इसके बाद फिर विधिपूर्वक आचमन करके पंचाक्षरमन्त्र का जप करे।
जो आत्यन्तिक दीक्षा ग्रहण करके अपने शरीर का अन्त होने तक शान्तभाव से इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह ' नैष्ठिक व्रती' कहा गया है। उसे सब आश्रमों से ऊपर उठा हुआ महापाशुपत जानना चाहिये। वही तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ है और वही महान् व्रतधारी है। जो बारह दिनों तक प्रतिदिन विधिपूर्वक इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह भी नैष्ठिक के ही तुल्य है; क्योंकि उसने तीव्र व्रत का आश्रय लिया है। जो अपने शरीर में घी लगाकर व्रत के सभी नियमों के पालन में तत्पर हो दो-तीन दिन या एक दिन भी इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह भी कोई नैष्ठिक ही है। जो निष्काम होकर अपना परम कर्तव्य मानकर अपने-आपको शिव के चरणों में समर्पित करके इस उत्तम व्रत का सदा अनुष्ठान करता है, उसके समान कहीं कोई नहीं है। विद्वान् ब्राह्मण भस्म लगाकर महापातकजनित अत्यन्त दारुण पापों से भी तत्काल छूट जाता है, इसमें संशय नहीं है। रुद्राग्नि का जो सबसे उत्तम वीर्य (बल) है, वही भस्म कहा गया है। अतः जो सभी समयों में भस्म लगाये रहता है, वह वीर्यवान् माना गया है। भस्म में निष्ठा रखने वाले पुरुष के सारे दोष उस भस्माग्नि के संयोग से दम्ध होकर नष्ट हो जाते हैं। जिसका शरीर भ्स्मस्नान से विशुद्ध है, वह भस्मनिष्ठ कहा गया है। जिसके सारे अंगों में भस्म लगा हुआ है, जो भस्म से प्रकाशमान है, जिसने भस्ममय त्रिपुण्ड्र लगा रखा है तथा जो भस्म से स्नान करता है, वह भस्मनिष्ठ माना गया है। भूत, प्रेत, पिशाच तथा अत्यन्त दुःसह रोग भी भस्मनिष्ठ के निकट से दूर भागते हैं, इसमें संशय नहीं है। वह शरीर को भासित करता है, इसलिये 'भसित' कहा गया है तथा पापों का भक्षण करने के कारण उसका नाम 'भस्म' है। भूति (ऐश्वर्य) कारक होने से उसे 'भूति' या 'विभूति' भी कहते हैं। विभूति रक्षा करने वाली है, अतः उसका एक नाम 'रक्षा' भी है। भस्म के माहात्म्य को लेकर यहाँ और क्या कहा जाय। भस्म से स्नान करनेवाला व्रती पुरुष साक्षात् महेश्वरदेव कहा गया है। यह परमेश्वर (रुद्राग्नि) सम्बन्धी भस्म शिवभक्तों के लिये बड़ा भारी अस्त्र है; क्योंकि उसने धौम्य मुनि के बड़े भाई उपमन्यु के तप में आयी हुई आपत्तियों का निवारण किया था; इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके पाशुपत-व्रत का अनुष्ठान करने के पश्चात् हवन-सम्बन्धी भस्म का धन के समान संग्रह करके सदा भस्मस्नान में तत्पर रहना चाहिये।
(अध्याय ३३)