बालक उपमन्यु को दूध के लिये दुःखी देख माता का उसे शिव की आराधना के लिये प्रेरित करना तथा उपमन्यु की तीव्र तपस्या

ऋषियों ने पूछा – प्रभो! धौम्य के बड़े भाई उपमन्यु जब छोटे बालक थे, तब उन्होंने दूध के लिये तपस्या की थी और भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें क्षीरसागर प्रदान किया था। परंतु शैशवावस्था में उन्हें शिवशास्त्र के प्रवचन की शक्ति कैसे प्राप्त हुई अथवा वे कैसे शिव के सत्स्वरूप को जानकर तपस्या में निरत हुए? तपश्चरण के पर्व में उन्हें भस्म के विज्ञान की प्राप्ति कैसे हुई, जिससे जो रुद्राग्नि का उत्तम वीर्य है, उस आत्मरक्षक भस्म को उन्होंने प्राप्त किया?

वायुदेव ने कहा – महर्षियो! जिन्होंने वह तप किया था, वे उपमन्यु कोई साधारण बालक नहीं थे, परम बुद्धिमान् मुनिवर व्याघ्रपाद के पुत्र थे। उन्हें जन्मान्तर में ही सिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। परंतु किसी कारणवश वे अपने पद से च्युत हो गये – योगभ्रष्ट हो गये। अतः भाग्यवश जन्म लेकर वे मुनिकुमार हुए।

एक समय की बात है अपने मामा के आश्रम में उन्हें पीने के लिये बहुत थोड़ा दूध मिला। उनके मामा का बेटा अपनी इच्छा के अनुसार गरम-गरम उत्तम दूध पीकर उनके सामने खड़ा था। मातुलपुत्र को इस अवस्था में देखकर व्याघ्रपादकुमार उपमन्यु के मन में ईर्ष्या हुई और वे अपनी माँ के पास जाकर बड़े प्रेम से बोले – 'मातः! महाभागे! तपस्विनि! मुझे अत्यन्त स्वादिष्ठ गरम-गरम गाय का दूध दो। मैं थोड़ा-सा नहीं पीऊँगा।'

बेटे की यह बात सुनकर व्याघ्रपाद की पत्नी तपस्विनी माता के मन में उस समय बड़ा दुःख हुआ। उसने पुत्र को बड़े आदर के साथ छाती से लगा लिया और प्रेमपूर्वक लाड़-प्यार करके अपनी निर्धनता का स्मरण हो आने से वह दुःखी हो विलाप करने लगी। महातेजस्वी बालक उपमन्यु बारंबार दूध को याद करके रोते हुए माता से कहने लगे – 'माँ! दूध दो, दूध दो।' बालक के उस हठ को जानकर उस तपस्विनी ब्राह्मणपत्नी ने उसके हठ के निवारण के लिये एक सुन्दर उपाय किया। उसने स्वयं उञ्छ-वृत्ति से कुछ बीजों का संग्रह किया था। उन बीजों को देखकर उसने तत्काल उठा लिया और पीसकर पानी में घोल दिया। फिर मीठी वाणी में बोली – 'आओ, आओ मेरे लाल!' यों कह बालक को शान्त करके हृदय से लगा लिया और दुःख से पीड़ित हो उसने कृत्रिम दूध उसके हाथ में दे दिया। माता के दिये हुए उस बनावटी दूध को पीकर बालक अत्यन्त व्याकुल हो उठा और बोला – 'माँ! यह दूध नहीं है।' तब वह बहुत दुःखी हो गयी और बेटे का मस्तक सूँघकर अपने दोनों हाथों से उसके कमलसदृश नेत्रों को पोंछती हुई बोली – 'बेटा! अपने पास सभी वस्तुओं का अभाव होने के कारण दरिद्रतावश मुझ अभागिनी ने पीसे हुए बीज को पानी में घोलकर यह तुम्हें मिथ्या दूध दिया था। तुम 'दूध नहीं दिया' ऐसा कहकर रोते हुए मुझे बारंबार दुःखी करते हो। किंतु भगवान् शिव की कृपा के बिना तुम्हारे लिये कहीं दूध नहीं है। भक्तिपूर्वक माता पार्वती और अनुचरों सहित भगवान् शिव के चरणारविन्दों में जो कुछ समर्पित किया गया हो, वही सम्पूर्ण सम्पत्तियों का कारण होता है। महादेवजी ही धन देने वाले हैं। इस समय हम लोगों ने उनकी आराधना नहीं की है। वे भगवान् ही सकाम पुरुषों को उनकी इच्छा के अनुसार फल देने वाले हैं। हम लोगों ने आज से पहले कभी भी धन की कामना से भगवान् शिव की पूजा नहीं की है। इसीलिये हम दरिद्र हो गये और यही कारण है कि तुम्हारे लिये दूध नहीं मिल रहा है। बेटा! पूर्वजन्म में भगवान् शिव अथवा विष्णु के उद्देश्य से जो कुछ दिया जाता है, वही वर्तमान जन्म में मिलता है, दूसरा कुछ नहीं।

उपमन्यु बोले – माँ! यदि माता पार्वती सहित भगवान् शिव विद्यमान हैं, तब आज से शोक करना व्यर्थ है। महाभागे! अब शोक छोड़ो, सब मंगलमय ही होगा। माँ! आज मेरी बात सुन लो। यदि कहीं महादेवजी हैं तो मैं देर से या जल्दी ही उनसे क्षीरसागर माँग लाऊँगा।

वायुदेवता कहते हैं – उस महाबुद्धिमान् बालक की वह बात सुनकर उसकी मनस्विनी माता उस समय बहुत प्रसन्न हुई और यों बोली।

माता ने कहा – बेटा! तुमने बहुत अच्छा विचार किया है। तुम्हारा यह विचार मेरी प्रसन्नता को बढ़ानेवाला है। अब तुम देर न लगाओ। साम्ब सदाशिव का भजन करो। अन्य देवताओं को छोड़कर मन, वाणी और क्रिया द्वारा भक्तिभाव के साथ पार्षदगणों सहित उन्हीं साम्ब सदाशिव का भजन करो। 'नमः शिवाय' यह मन्त्र उन देवाधिदेव वरदायक शिव का साक्षात् वाचक माना गया है। प्रणव सहित जो दूसरे सात करोड़ महामन्त्र हैं, वे सब इसी में लीन होते हैं और फिर इसी से प्रकट होते हैं। यह मन्त्र दूसरे सभी मन्त्रों से प्रबल है। यही सबकी रक्षा करने में समर्थ है; अतः दूसरे की इच्छा नहीं करनी चाहिये। इसलिये तुम दूसरे मन्त्रों को त्यागकर केवल पंचाक्षर के जप में लग जाओ। इस मन्त्र के जिह्वा पर आते ही यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता है। यह उत्तम भस्म जिसे मैंने तुम्हारे पिताजी से ही प्राप्त किया है, यह विरजा होम की अग्नि से सिद्ध हुआ है, अतः बड़ी-से-बड़ी आपत्तियों का निवारण करनेवाला है। मैंने तुम्हें जो पंचाक्षरमन्त्र बताया है, उसको मेरी आज्ञा से ग्रहण करो। इसके जप से ही शीघ्र तुम्हारी रक्षा होगी।

वायुदेवता कहते हैं – इस प्रकार आज्ञा देकर और 'तुम्हारा कल्याण हो' ऐसा कहकर माता ने पुत्र को विदा किया। मुनि उपमन्यु ने उस आज्ञा को शिरोधार्य करके ही उसके चरणों में प्रणाम किया और तपस्या के लिये जाने की तैयारी की। उस समय माता ने आशीर्वाद देते हुए कहा – 'सब देवता तुम्हारा मंगल करें।' माता की आज्ञा पाकर उस बालक ने दुष्कर तपस्या आरम्भ की। हिमालय पर्वत के एक शिखर पर जाकर उपमन्यु एकाग्रचित्त हो केवल वायु पीकर रहने लगे। उन्होंने आठ ईंटों का एक मन्दिर बनाकर उसमें मिट्ठी के शिवलिंग की स्थापना की। उसमें माता पार्वती तथा गणों सहित अविनाशी महादेवजी का आवाहन करके भक्तिभाव से पंचाक्षरमन्त्र द्वारा ही वन के पत्र-पुष्ष आदि उपचारों से उनकी पूजा करते हुए वे चिरकाल तक उत्तम तपस्या में लगे रहे। उस एकाकी कृशकाय बालक द्विजवर उपमन्यु को शिव में मन लगाकर तपस्या करते देख मरीचि के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हुए कुछ मुनियों ने अपने राक्षसस्वभाव से सताना और उनके तप में विघ्न डालना आरम्भ किया। उनके द्वारा सताये जाने पर भी उपमन्यु किसी प्रकार तप में लगे रहे और सदा 'नमः शिवाय' का आर्तनाद की भाँति जोर-जोर से उच्चारण करते रहे। उस शब्द को सुनते ही उनकी तपस्या में विघ्न डालनेवाले वे मुनि उस बालक को सताना छोड़कर उसकी सेवा करने लगे। ब्राह्मणबालक महात्मा उपमन्यु की उस तपस्या से सम्पूर्ण चराचर जगत् प्रदीप्त एवं संतप्त हो उठा।

(अध्याय ३४)