भगवान् शंकर का इन्द्ररूप धारण करके उपमन्यु के भक्तिभाव की परीक्षा लेना, उन्हें क्षीरसागर आदि देकर बहुत-से वर देना और अपना पुत्र मानकर पार्वती के हाथ में सौंपना, कृतार्थ हुए उपमन्यु का अपनी माता के स्थान पर लौटना

तदनन्तर भगवान् विष्णु के अनुरोध करने पर श्रीशिवजी ने पहले इन्द्र का रूप धारण करके उपमन्यु के पास जाने का विचार किया। फिर श्वेत ऐरावत पर आरूढ़ हो स्वयं देवराज इन्द्र का शरीर ग्रहण करके भगवान् सदाशिव देवता, असुर, सिद्ध तथा बड़े-बड़े नागों के साथ उपमन्यु मुनि के तपोवन की ओर चले। उस समय वह ऐरावत दायीं सूँड़ में चँवर लेकर शची सहित दिव्यरूपवाले देवराज इन्द्र को हवा कर रहा था और बायीं सूँड़ में श्वेत छत्र लेकर उन पर लगाये चल रहा था। इन्द्र का रूप धारण किये उमा सहित भगवान् सदाशिव उस श्वेत छत्र से उसी तरह सुशोभित हो रहे थे, जैसे उदित हुए पूर्ण चन्द्रमण्डल से मन्दराचल शोभायमान होता है। इस तरह इन्द्र के स्वरूप का आश्रय ले परमेश्वर शिव उपमन्यु के उस आश्रम पर अपने उस भक्त पर अनुग्रह करने के लिये जा पहुँचे। इन्द्ररूपधारी परमेश्वर शिव को आया देख मुनियों में श्रेष्ठ उपमन्यु मुनि ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा – देवेश्वर! जगन्नाथ! भगवन्! देवशिरोमणे! आप स्वयं यहाँ पधारे, इससे मेरा यह आश्रम पवित्र हो गया।'

इन्द्ररूपधारी शिव बोले – उत्तम व्रत का पालन करनेवाले धौम्य के बड़े भैया महामुने उपमन्यो! में तुम्हारी इस तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। तुम वर माँगो, मैं तुम्हें सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएं प्रदान करूँगा।

वायुदेवता कहते हैं – उन इन्द्रदेव के ऐसा कहने पर उस समय मुनिप्रवर उपमन्यु ने हाथ जोड़कर कहा – 'भगवन्! मैं भगवान् शिव की भक्ति माँगता हूँ।' यह सुनकर इन्द्र ने कहा – 'क्या तुम मुझे नहीं जानते! में समस्त देवताओं का पालक और तीनों लोकों का अधिपति इन्द्र हूँ। सब देवता मुझे नमस्कार करते हैं। ब्रह्मर्षे! मेरे भक्त हो जाओ। सदा मेरी ही पूजा करो तुम्हारा कल्याण हो। में तुम्हें सब कुछ दूँगा। निर्गुण रुद्र को त्याग दो। उस निर्गुण रुद्र से तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध होगा, जो देवताओं की पंक्ति से बाहर होकर पिशाचभाव को प्राप्त हो गया है।'

वायुदेवता कहते हैं – यह सुनकर पंचाक्षरमन्त्र का जप करते हुए वे मुनि उपमन्यु इन्द्र को अपने धर्म में विघ्न डालने के लिये आया हुआ जानकर बोले।

उपमन्यु ने कहा – यद्यपि तुम भगवान् शिव की निन्दा में तत्पर हो, तथापि इसी प्रसंग में परमात्मा महादेवजी की निर्गुणता बताकर तुमने स्वयं ही उनका सम्पूर्ण महत्त्व स्पष्टरूप से कह दिया। तुम नहीं जानते कि भगवान् रुद्र सम्पूर्ण देवेश्वरों के भी ईश्वर हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के भी जनक हैं तथा प्रकृति से परे हैं। ब्रह्मवादी लोग उन्हीं को सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त तथा नित्य एक और अनेक कहते हैं। अतः मैं उन्हीं से वर मागूँगा। जो युक्तिवाद से परे तथा सांख्य और योग के सारभूत अर्थ का ज्ञान प्रदान करनेवाले हैं, तत्त्वज्ञानी पुरुष उत्कृष्ट जानकर जिनकी उपासना करते हैं उन भगवान् शिव से ही मैं वर मागूँगा। देवाधम! दूध के लिये जो मेरी इच्छा है, वह यों ही रह जाय; परंतु शिवास्त्र के द्वारा तुम्हारा वध करके मैं अपने इस शरीर को त्याग दूँगा।

वायुदेवता कहते हैं – ऐसा कहकर स्वयं मर जाने का निश्चय करके उपमन्यु दूध की भी इच्छा छोड़कर इन्द्र का वध करने के लिये उद्यत हो गये। उस समय अघोर अस्त्र से अभिमन्त्रित घोर भस्म को लेकर मुनि ने इन्द्र के उद्देश्य से छोड़ दिया और बड़े जोर से सिंहनाद किया। फिर शम्भु के युगल चरणारविन्दों का चिन्तन करते हुए वे अपनी देह को दग्ध करने के लिये उद्यत हो गये और आग्नेयी धारणा धारण करके स्थित हुए।

ब्राह्मण उपमन्यु जब इस प्रकार स्थित हुए, तब भगदेवता के नेत्र का नाश करनेवाले भगवान् शिव ने योगी उपमन्यु की उस धारणा को अपनी सौम्यदृष्टि से रोक दिया। उनके छोड़े हुए उस अघोरास्त्र को नन्दीश्वर की आज्ञा से शिववल्लभ नन्दी ने बीच में ही पकड़ लिया। तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् शिव ने अपने बालेन्दुशेखररूप को धारण कर लिया और ब्राह्मण उपमन्यु को उसे दिखाया। इतना ही नहीं, उस प्रभु ने उस मुनि को सहस्त्रों क्षीरसागर, सुधासागर, दधि आदि के सागर, घृत के समुद्र, फलसम्बन्धी रस के समुद्र तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थों के समुद्र का दर्शन कराया और पूओं का पहाड़ खड़ा करके दिखा दिया। इसी तरह देवी पार्वती के साथ महादेवजी वहाँ वृषभ पर आरूढ़ दिखायी दिये। वे अपने गणाध्यक्षों तथा त्रिशूल आदि दिव्यास्त्रों से घिरे हुए थे। देवलोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी तथा विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं से दसों दिशाएँ आच्छादित हो गयीं।

उस समय उपमन्यु आनन्दसागर की लहरों से घिरे हुए थे। वे भक्तिविनम्र चित्त से पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़ गये। इसी समय वहाँ मुसकराते हुए भगवान् शिव ने 'यहाँ आओ, यहाँ आओ' कहकर उन्हें बुलाया और उनका मस्तक सूँघकर अनेक वर दिये।

शिव बोले – वत्स! तुम अपने भाई बन्धुओं के साथ सदा इ्च्छानुसार भक्ष्य-भोज्य पदार्थों का उपभोग करो। दुःख से छुटकर सर्वदा सुखी रहो, तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति भक्ति सदा बनी रहे। महाभाग उपमन्यो! ये पार्वती देवी तुम्हारी माता हैं। आज मैंने तुम्हें अपना पुत्र बना लिया और तुम्हारे लिये क्षीरसागर प्रदान किया। केवल दूध का ही नहीं, मधु, दही, अन्न, घी, भात तथा फल आदि के रस का भी समुद्र तुम्हें दे दिया। ये पूओं के पहाड़ तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थों के सागर मैंने तुम्हें समर्पित किये। महामुने! ये सब ग्रहण करो। आज से मैं महादेव तुम्हारा पिता हूँ और जगदम्बा उमा तुम्हारी माता हैं। मैंने तुम्हें अमरत्व तथा गणपति का सनातन पद प्रदान किया। अब तुम्हारे मन में जो दूसरी-दूसरी अभिलाषाएँ हों, उन सबको तुम बड़ी प्रसन्नता के साथ वर के रूप में माँगो। मैं संतुष्ट हूँ। इसलिये वह सब दूँगा। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

वायुदेव कहते हैं – ऐसा कहकर महादेवजी ने उन्हें दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लिया और मस्तक सूँघकर यह कहते हुए देवी की गोद में दे दिया कि यह तुम्हारा पुत्र है। देवी ने कार्तिकेय की भाँति प्रेमपूर्वक्क उनके मस्तक पर अपना करकमल रखा और उन्हें अविनाशी कुमारपद प्रदान किया। क्षीरसागर ने भी साकाररूप धारण करके उनके हाथ में अनश्वर पिण्डीभूत स्वादिष्ठ दूध समर्पित किया। तत्पश्चात् पार्वती देवी ने संतुष्टचित्त हो उन्हें योगजनित ऐश्वर्य, सदा संतोष, अविनाशिनी ब्रह्मविद्या और उत्तम समृद्धि प्रदान की। तदनन्तर उनके तपोमय तेज को देखकर प्रसन्नचित्त हुए शम्भु ने उपमन्यु मुनि को पुनः दिव्य वरदान दिया। पाशुपत-व्रत, पाशुपतज्ञान, तात्त्विक व्रतयोग तथा चिरकाल तक उसके प्रवचन की परम पटुता उन्हें प्रदान की। भगवान् शिव और शिवा से दिव्य वर तथा नित्य कुमारत्व पाकर वे प्रमुदित हो उठे। इसके बाद प्रसन्नचित्त हो प्रणाम करके हाथ जोड़ ब्राह्मण उपमन्यु ने देवदेव महेश्वर से यह वर माँगा।

उपमन्यु बोले – देवदेवेश्वर! प्रसन्न होइये। परमेश्वर! प्रसन्न होइये और मुझे अपनी परम दिव्य एवं अव्यभिचारिणी भक्ति दीजिये। महादेव! मेरे जो अपने सगे-सम्बन्धी हैं, उनमें मेरी सदा श्रद्धा बनी रहने का वर दीजिये! साथ ही, अपना दासत्व, उत्कृष्ट स्नेह और नित्य सामीप्य प्रदान कीजिये।

ऐसा कहकर प्रसन्नचित्त हुए द्विजश्रेष्ठ उपमन्यु ने हर्षगद्गद वाणी द्वारा महादेवजी का स्तवन किया।

उपमन्यु बोले – देवदेव! महादेव! शरणागतवत्सल! करुणासिन्धो! साम्बसदाशिव! आप सदा मुझ पर प्रसन होइये।

वायुदेव कहते हैं – उनके ऐसा कहने पर सबको वर देने वाले प्रसन्नात्मा महादेव ने मुनिवर उपमन्यु को इस प्रकार उत्तर दिया।

शिव बोले – वत्स उपमन्यो! मैं तुम पर संतुष्ट हूँ। इसलिये मैंने तुम्हें सब कुछ दे दिया। ब्रह्मर्षे! तुम मेरे सुदृढ़ भक्त होः क्योंकि इस विषय में मैंने तुम्हारी परीक्षा ले ली है। तुम अजर-अमर, दुःखरहित, यशस्वी, तेजस्वी और दिव्य ज्ञान से सम्पन्न होओ। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे बन्धु-बान्धव, कुल तथा गोत्र सदा अक्षय रहेंगे। मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति सदा बनी रहेगी। विप्रवर! मैं तुम्हारे आश्रम में नित्य निवास करूँगा। तुम मेरे पास सानन्द विचरोगे।

ऐसा कहकर उपमन्यु को अभीष्ट वर दे करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी भगवान् महेश्वर वहीं अन्तर्धान हो गये। उन श्रेष्ठ परमेश्वर से उत्तम वर पाकर उपमन्यु का हृदय प्रसन्नता से खिल उठा। उन्हें बहुत सुख मिला और वे अपनी जन्मदायिनी माता के स्थान पर चले गये।

(अध्याय ३५)