ऋषियों के पूछने पर वायुदेव का श्रीकृष्ण और उपमन्यु के मिलन का प्रसंग सुनाना, श्रीकृष्ण को उपमन्यु से ज्ञान का और भगवान् शंकर से पुत्र का लाभ
सृत उवाच
नमः समस्तसंसारचक्रभ्रमणहेतवे।
गौरीकुचतटद्वन्द्वकुङ्कुमाङ्कितवक्षसे ॥
सूतजी कहते हैं – जो समस्त संसार-चक्र के परिभ्रमण में कारणरूप हैं तथा गौरी के युगल उरोजों में लगे हुए केसर से जिनका वक्षःस्थल अंकित है, उन भगवान् उमावललभ शिव को नमस्कार है।
उपमन्यु को भगवान् शंकर के कृपा प्रसाद के प्राप्त होने का प्रसंग सुनाकर मध्याह्नकाल में नित्य-नियम के उद्देश्य से वायुदेव कथा बंद करके उठ गये। तब नैमिषारण्य-निवासी अन्य ऋषि भी 'अब अमुक बात पूछनी है' ऐसा निश्चय करके उठे और प्रतिदिन की भाँति अपना तात्कालिक नित्यकर्म पूरा करके भगवान् वायुदेव को आया देख फिर आकर उनके पास बैठ गये। नियम समाप्त होने पर जब आकाशजन्मा वायुदेव मुनियों की सभा में अपने लिये निश्चित उत्तम आसन पर विराजमान हो गये – सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे लोकवन्दित पवनदेव परमेश्वर की श्रीसम्पन्न विभूति का मन-ही-मन चिन्तन करके इस प्रकार बोले – 'मैं उन सर्वज्ञ और अपराजित महान् देव भगवान् शंकर की शरण लेता हूँ, जिनकी विभूति इस समस्त चराचर जगत् के रूप में फैली हुई है।'
उनकी शुभ वाणी को सुनकर वे निष्पाप ऋषि भगवान् की विभूति का विस्तारपूर्वक वर्णन सुनने के लिये यह उत्तम वचन बोले।
ऋषियों ने कहा – भगवन्! आपने महात्मा उपमन्यु का चरित्र सुनाया, जिससे यह ज्ञात हुआ कि उन्होंने केवल दूध के लिये तपस्या करके भी परमेश्वर शिव से सब कुछ पा लिया। हमने पहले से ही सुन रखा है कि अनायास ही महान् कर्म करनेवाले वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण किसी समय धौम्य के बड़े भाई उपमन्यु से मिले थे और उनकी प्रेरणा से पाशुपत-व्रत का अनुष्ठान करके उन्होंने परम ज्ञान प्राप्त कर लिया था; अतः आप यह बतायें कि भगवान् श्रीकृष्ण ने परम उत्तम पाशुपत-ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया।
वायुदेव बोले – अपनी इच्छा से अवतीर्ण होने पर भी सनातन वासुदेव ने मानव-शरीर की निन्दा-सी करते हुए लोकसंग्रह के लिये शरीर की शुद्धि की थी। वे पुत्र-प्राप्ति के निमित्त तप करने के लिये उन महामुनि के आश्रम पर गये थे, जहाँ बहुत-से मुनि उपमन्युजी का दर्शन कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी वहाँ जाकर उनका दर्शन किया। उनके सारे अंग भस्म से उज्ज्वल दिखायी देते थे। मस्तक त्रिपुण्ड् से अंकित था। रुद्राक्ष की माला ही उनका आभूषण थी। वे जटामण्डल से मण्डित थे। शास्त्रों से वेद की भाँति वे अपने शिष्यभूत महर्षियों से घिरे हुए थे और शिवजी के ध्यान में तत्पर हो शान्त भाव से बैठे थे। उन महातेजस्वी उपमन्यु का दर्शन करके श्रीकृष्ण ने उन्हें नमस्कार किया। उस समय उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो आया। श्रीकृष्ण ने बड़े आदर के साथ मुनि की तीन बार परिक्रमा की। फिर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ मस्तक झुका हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। तदनन्तर उपमन्यु ने विधिपूर्वक 'अग्निरिति भस्म' इत्यादि मन्त्रों से श्रीकृष्ण के शरीर में भस्म लगाकर उनसे बारह महीने का साक्षात् पाशुपत-द्रत करवाया। तत्पश्चात् मुनि ने उन्हें उत्तम ज्ञान प्रदान किया। उसी समय से उत्तम व्रत का पालन करनेवाले सम्पूर्ण दिव्य पाशुपत मुनि उन श्रीकृष्ण को चारों ओर घेरकर उनके पास बैठे रहने लगे। फिर गुरु की आज्ञा से परम शक्तिमान् श्रीकृष्ण ने पुत्र के लिये साम्ब शिव को आराधना का उद्देश्य मन में लेकर तपस्या की। उस तपस्या से संतुष्ट हो एक वर्ष के पश्चात् पार्षदों सहित, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर साम्ब शिव ने उन्हें दर्शन दिया। श्रीकृष्ण ने वर देने के लिये प्रकट हुए सुन्दर अंगवाले महादेवजी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनकी स्तुति भी की। गणों सहित साम्ब सदाशिव का स्तवन करके श्रीकृष्ण ने अपने लिये एक पुत्र प्राप्त किया। वह पुत्र तपस्या से संतुष्ट चित्त हुए साक्षात् शिव ने श्रीविष्णु को दिया था। चूँकि साम्ब शिव ने उन्हें अपना पुत्र प्रदान किया, इसलिये श्रीकृष्ण ने जाम्बवती कुमार का नाम साम्ब ही रखा। इस प्रकार अमित पराक्रमी श्रीकृष्ण को महर्षि उपमन्यु से ज्ञान-लाभ और भगवान् शंकर से पुत्र-लाभ हुआ। इस प्रकार यह सब प्रसंग मैंने पूरा-पूरा कह सुनाया। जो प्रतिदिन इसे कहता-सुनता या सुनाता है, वह भगवान् विष्णु का ज्ञान पाकर उन्हीं के साथ आनन्दित होता है।
(अध्याय १)