उपमन्यु द्वारा श्रीकृष्ण को पाशुपत ज्ञान का उपदेश

ऋषियों ने पूछा – पाशुपत ज्ञान क्या है? भगवान् शिव पशुपति कैसे हैं? और अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ने उपमन्यु से किस प्रकार प्रश्न किया था? वायुदेव! आप साक्षात् शंकर के स्वरूप हैं, इसलिये ये सब बातें बताइये। तीनों लोकों में आपके समान दूसरा कोई वक्ता इन बातों को बताने में समर्थ नहीं है।

सूतजी कहते हैं – उन महर्षियों की यह बात सुनकर वायुदेव ने भगवान् शंकर का स्मरण करके इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया।

वायुदेव बोले – महर्षियो! पूर्वकाल में श्रीकृष्णरूपधारी भगवान् विष्णु ने अपने आसन पर बेठे हुए महर्षि उपमन्यु से उन्हें प्रणाम करके न्यायपूर्वक यों प्रश्न किया।

श्रीकृष्ण ने कहा – भगवन्! महादेवजी ने देवी पार्वती को जिस दिव्य पाशुपत ज्ञान तथा अपनी सम्पूर्ण विभूति का उपदेश दिया था, मैं उसी को सुनना चाहता हूँ। महादेवजी पशुपति कैसे हुए? पशु कौन कहलाते हैं? वे पशु किन पाशों से बाँधे जाते हैं और फिर किस प्रकार उनसे मुक्त होते हैं?

महात्मा श्रीकृष्ण के इस प्रकार पूछने पर श्रीमान् उपमन्यु ने महादेवजी तथा देवी पार्वती को प्रणाम करके उनके प्रश्न के अनुसार उत्तर देना आरम्भ किया।

उपमन्यु बोले – देवकीनन्दन! ब्रह्माजी से लेकर स्थावरपर्यन्त जो भी संसार के वश-वर्ती चराचर प्राणी हैं, वे सब-के-सब भगवान् शिव के पशु कहलाते हैं और उनके पति होने के कारण देवेश्वर शिव को पशुपति कहा गया है। वे पशुपति अपने पशुओं को मल और माया आदि पाशों से बाँधते हैं और भक्तिपूर्वक उनके द्वारा आराधित होने पर वे स्वयं ही उन्हें उन पाशों से मुक्त करते हैं। जो चौबीस तत्त्व हैं, वे माया के कार्य एवं गुण हैं। वे ही विषय कहलाते हैं, जीवों (पशुओं) को बाँधनेवाले पाश वे ही हैं। इन पाशों द्वारा ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यन्त समस्त पशुओं को बाँधकर महेश्वर पशुपतिदेव उनसे अपना कार्य कराते हैं। उन महेश्वर की ही आज्ञा से प्रकृति पुरुषोच्चित बुद्धि को जन्म देती है। बुद्धि अहंकार को प्रकट करती है तथा अहंकार कल्याणदायी देवाधिदेव शिव की आज्ञा से ग्यारह इन्द्रियों और पाँच तन्मात्राओं को उत्पन्न करता है। तन्मात्राएं भी उन्हीं महेश्वर के महान् शासन से प्रेरित हो क्रमशः पाँच महाभूतों को उत्पन्न करती हैं। वे सब महाभूत शिव की आज्ञा से ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त देहधारियों के लिये देह की सृष्टि करते हैं, बुद्धि कर्तव्य का निश्चय करती है और अहंकार अभिमान करता है। चित्त चेतता है और मन संकल्प-विकल्प करता है, श्रवण आदि ज्ञानेन्द्रियाँ पथक्-पृथक् शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं। वे महादेवजी के आज्ञाबल से केवल अपने ही विषयों को ग्रहण करती हैं। वाक् आदि कर्मेन्द्रियाँ कहलाती हैं और शिव की इच्छा से अपने लिये नियत कर्म ही करती हैं, दूसरा कुछ नहीं। शब्द आदि जाने जाते हैं और बोलना आदि कर्म किये जाते हैं। इन सबके लिये भगवान् शंकर की गुरुतर आज्ञा का उल्लंघन करना असम्भव है। परमेश्वर शिव के शासन से ही आकाश सर्वव्यापी होकर समस्त प्राणियों को अवकाश प्रदान करता है, वायुतत्त्व प्राण आदि नाम-भेदों द्वारा बाहर-भीतर के सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। अग्नितत्त्व देवताओं के लिये हव्य और कव्यभोजी पितरों के लिये कव्य पहुँचाता है। साथ ही मनुष्यों के लिये पाक आदि का भी कार्य करता है। जल सबको जीवन देता है और पृथ्वी सम्पूर्ण जगत् को सदा धारण किये रहती है।

शिव की आज्ञा सम्पूर्ण देवताओं के लिये अलंघनीय है। उसी से प्रेरित होकर देवराज इन्द्र देवताओें का पालन, दैत्यों का दमन और तीनों लोकों का संरक्षण करते हैं। वरुणदेव सदा जलतत्व के पालन और संरक्षण का कार्य सँभालते हैं, साथ ही दण्डनीय प्राणियों को अपने पाशों द्वारा बाँध लेते हैं। धन के स्वामी यक्षराज कुबेर प्राणियों को उनके पुण्य के अनुरूप सदा धन देते हैं और उत्तम बुद्धिवाले पुरुषों को सम्पत्ति के साथ ज्ञान भी प्रदान करते हैं। ईश्वर असाधु पुरुषों का निग्रह करते हैं तथा शेष शिव की ही आज्ञा से अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण करते हैं। उन शेष को श्रीहरि की तामसी रौद्रमूर्ति कहा गया है, जो जगत् का प्रलय करने वाली है। ब्रह्माजी शिव की ही आज्ञा से सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं तथा अपनी अन्य मूर्तियों द्वारा पालन और संहार का कार्य भी करते हैं। भगवान् विष्णु अपनी त्रिविध मूर्तियों द्वारा विश्व का पालन, सर्जन और संहार भी करते हैं। विश्वात्मा भगवान् हर भी तीन रूपों में विभक्त हो सम्पूर्ण जगत् का संहार, सृष्टि और रक्षा करते हैं। काल सबको उत्पन्न करता है। वही प्रजा की सृष्टि करता है तथा वही विश्व का पालन करता है। यह सब वह महाकाल की आज्ञा से प्रेरित होकर ही करता है। भगवान् सूर्य उन्हीं की आज्ञा से अपने तीन आंशों द्वारा जगत् का पालन करते, अपनी किरणों द्वारा वृष्टि के लिये आदेश देते और स्वयं ही आकाश में मेघ बनकर बरसते हैं। चन्द्रभूषण शिव का शासन मानकर ही चन्द्रमा ओषधियों का पोषण और प्राणियों को आह्लदित करते हैं। साथ ही देवताओं को अपनी अमृतमयी कलाओं का पान करने देते हैं। आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, आकाशचारी ऋषि, सिद्ध, नागगण, मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, कीट आदि, स्थावर प्राणी, नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वन, सरोवर, अंगों सहित वेद, शास्त्र, मन्त्र, वैदिकस्तोत्र और यज्ञ आदि, कालाग्नि से लेकर शिवपर्यन्त भुवन, उनके अधिपति, असंख्य ब्रह्माण्ड, उनके आवरण, वर्तमान, भूत और भविष्य, दिशा-विदिशाएँ, कला आदि काल के भिन-भिन्न भेद तथा जो कुछ भी इस जगत् में देखा और सुना जाता है, वह सब भगवान् शंकर की आज्ञा के बल से ही टिका हुआ है। उनकी आज्ञा के ही बल से यहाँ पृथ्वी, पर्वत, मेघ, समुद्र, नक्षत्रगण, इन्द्रादि देवता, स्थावर, जंगम अथवा जड और चेतन सबकी स्थिति है।

(अध्याय २)