शिव और शिवा की विभूतियों का वर्णन
श्रीकृष्ण ने पूछा – भगवन्! अमिततेजस्वी भगवान् शिव की मूर्तियों ने इस सम्पूर्ण जगत् को जिस प्रकार व्याप्त कर रखा है, वह सब मैंने सुना। अब मुझे यह जानने की इच्छा है कि परमेश्वरी शिवा और परमेश्वर शिव का यथार्थ स्वरूप क्या है, उन दोनों ने स्त्री और पुरुषरूप इस जगत् को किस प्रकार व्याप्त कर रखा है।
उपमन्यु बोले – देवकीनन्दन! मैं शिवा और शिव के श्रीसम्पन्न ऐश्वर्य का और उन दोनों के यथार्थ स्वरूप का संक्षेप से वर्णन करूँगा। विस्तारपूर्वक इस विषय का वर्णन तो भगवान् शिव भी नहीं कर सकते। साक्षात् महादेवी पार्वती शक्ति हैं और महादेवजी शक्तिमान्। उन दोनों की विभूति का लेशमात्र ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् के रूप में स्थित है। यहाँ कोई वस्तु जडरूप है और कोई वस्तु चेतनरूप। वे दोनों क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध तथा पर और अपर कहे गये हैं। जो चिन्मण्डल जडमण्डल के साथ संयुक्त हो संसार में भटक रहा है, वही अशुद्ध और अपर कहा गया है। उससे भिन्न जो जड के बन्धन से मुक्त है, वह पर और शुद्ध कहा गया है। अपर और पर चिदचित्स्वरूप हैं, इन पर स्वभावतः शिव और शिवा का स्वामित्व है। शिवा और शिव के ही वश में यह विश्व है। विश्व के वश में शिवा और शिव नहीं हैं। यह जगत् शिव और शिवा के शासन में है, इसलिये वे दोनों इसके ईश्वर या विश्वेश्वर कहे गये हैं। जैसे शिव हैं वैसी शिवादेवी हैं, तथा जैसी शिवादेवी हैं, वैसे ही शिव हैं। जिस तरह चन्द्रमा और उनकी चाँदनी में कोई अन्तर नहीं है, उसी प्रकार शिव और शिवा में कोई अन्तर न समझे। जैसे चन्द्रका के बिना ये चन्द्रमा सुशोभित नहीं होते उसी प्रकार शिव विद्यमान होने पर भी शक्ति के बिना सुशोभित नहीं होते। जैसे ये सूर्यदेव कभी प्रभा के बिना नहीं रहते और प्रभा भी उन सूर्यदेव के बिना नहीं रहती, निरन्तर उनके आश्रय ही रहती है, उसी प्रकार शक्ति और शक्तिमान् को सदा एक-दूसरे की अपेक्षा होती है। न तो शिव के बिना शक्ति रह सकती है और न शक्ति के बिना शिव। जिसके द्वारा शिव सदा देहधारियों को भोग और मोक्ष देने में समर्थ होते हैं, वह आदि अद्वितीय चिन्मयी पराशक्ति शिव के ही आश्रित है। ज्ञानी पुरुष उसी शक्ति को सर्वेश्वर परमात्मा शिव के अनुरूप उन-उन अलौकिक गुणों के कारण उनकी समधर्मिणी कहते हैं। वह एकमात्र चिन्मयी पराशक्ति सृष्टिधर्मिणी है। वही शिव की इच्छा से विभागपूर्वक नाना प्रकार के विश्व की रचना करती है। वह शक्ति मूलप्रकृति, माया और त्रिगुणा – तीन प्रकार की बतायी गयी है, उस शक्तिरूपिणी शिवा ने ही इस जगत् का विस्तार किया है। व्यवहार भेद से शक्तियों के एक-दो, सौ, हजार एवं बहुसंख्यक भेद हो जाते हैं।
शिव की इच्छा से पराशक्ति शिव-तत्त्व के साथ एकता को प्राप्त होती है। तबसे कल्प के आदि में उसी प्रकार सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है, जैसे तिल से तेल का। तदनन्तर शक्तिमान् से शक्ति में क्रियामयी शक्ति प्रकट होती है। उसके विक्षुब्ध होने पर आदिकाल में पहले नाद की उत्पत्ति हुई। फिर नाद से बिन्दु का प्राकट्य हुआ और बिन्दु से सदाशिव देव का। उन सदाशिव से महेश्वर प्रकट हुए और महेश्वर से शुद्ध विद्या। वह वाणी की ईश्वरी है। इस प्रकार त्रिशुलधारी महेश्वर से वागीश्वरी नामक शक्ति का प्रादर्भाव हुआ, जो वर्णों (अक्षरों) के रूप में विस्तार को प्राप्त होती है और मातृका कहलाती है। तदनन्तर अनन्त के समावेश से माया ने काल, नियति, कला और विद्या की सृष्टि की। कला से राहु तथा पुरुष हुए। फिर माया से ही त्रिगुणात्मिका अव्यक्त प्रकृति हुई। उस त्रिगुणात्मक अव्यक्त से तीनों गुण पथक्-पथक् प्रकट हुए। उनके नाम हैं – सत्त्व, रज और तम; इनसे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। गुणों में क्षोभ होने पर उनसे गुणेश नामक तीन मूर्तियाँ प्रकट हुईं। साथ ही 'महत्' आदि तत्त्वों का क्रमशः प्रादुर्भाव हुआ। उन्हीं से शिव की आज्ञा के अनुसार असंख्य अण्ड-पिण्ड प्रकट होते हैं, जो अनन्त आदि विद्येश्वर चक्रवर्तियों से अधिष्ठित हैं। शरीरान्तर के भेद से शक्ति के बहुत-से भेद कहे गये हैं। स्थूल और सूक्ष्म के भेद से उनके अनेक रूप जानने चाहिये। रुद्र की शक्ति रौद्री, विष्णु की वैष्णवी, ब्रह्मा की ब्रह्माणी और इन्द्र की इन्द्राणी कहलाती है। यहाँ बहुत कहने से क्या लाभ – जिसे विश्व कहा गया है, वह उसी प्रकार शकत्यात्मा से व्याप्त है, जैसे शरीर अन्तरात्मा से। अतः सम्पूर्ण स्थावर-जंगमरूप जगत् शक्तिमय है। यह पराशक्ति परमात्मा शिव की कला कहीं गयी है। इस तरह यह पराशक्ति ईश्वर की इच्छा के अनुसार चलकर चराचर जगत् की सृष्टि करती है, ऐसा विज्ञ पुरुषों का निश्चय है। ज्ञान, क्रिया और इच्छा – अपनी इन तीन शक्तियों द्वारा शक्तिमान् ईश्वर सदा सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित होते हैं। यह इस प्रकार हो और यह इस प्रकार न हो – इस तरह कार्यों का नियमन करने वाली महेश्वर की इच्छाशक्ति नित्य है। उनकी जो ज्ञानशक्ति है, वह बुद्धिरूप होकर कार्य, करण, कारण और प्रयोजन का ठीक-ठीक निश्चय करती है; तथा शिव की जो क्रियाशक्ति है, वह संकल्परूपिणी होकर उनकी इच्छा और निश्चय के अनुसार कार्यरूप सम्पूर्ण जगत् की क्षणभर में कल्पना कर देती है। इस प्रकार तीनों शक्तियों से जगत् का उत्थान होता है। प्रसव-धर्मवाली जो शक्ति है, वह पराशक्ति से प्रेरित होकर ही सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करती है। इस तरह शक्तियों के संयोग से शिव शक्तिमान् कहलाते हैं। शक्ति और शक्तिमान् से प्रकट होने के कारण यह जगत् शाक्त और जैव कहा गया है। जैसे माता-पिता के बिना पुत्र का जन्म नहीं होता, उसी प्रकार भव और भवानी के बिना इस चराचर जगत् की उत्पत्ति नहीं होती। स्त्री और पुरुष से प्रकट हुआ जगत् स्त्री और पुरुषरूप ही है; यह स्त्री और पुरुष की विभूति है, अतः स्त्री और पुरुष से अधिष्ठित है। इनमें शक्तिमान् पुरुषरूप शिव तो परमात्मा कहे गये हैं और स्त्रीरूपिणी शिवा उनकी पराशक्ति। शिव सदाशिव कहे गये हैं और शिवा मनोन्मनी। शिव को महेश्वर जानना चाहिये और शिवा माया कहलाती हैं। परमेश्वर शिव पुरुष हैं और परमेश्वरी शिवा प्रकृति। महेश्वर शिव रुद्र हैं और उनकी वल्लभा शिवादेवी रुद्राणी। विश्वेश्वर देव विष्णु हैं और उनकी प्रिया लक्ष्मी। जब सृष्टिकर्ता शिव ब्रह्मा कहलाते हैं, तब उनकी प्रिया को ब्रह्माणी कहते हैं। भगवान् शिव भास्कर हैं और भगवती शिवा प्रभा। कामनाशन शिव महेन्द्र हैं और गिरिराजनन्दिनी उमा शची। महादेवजी अग्नि हैं और उनकी अर्द्धागिनी उमा स्वाहा। भगवान् त्रिलोचन यम हैं और गिरिराजनन्दिनी उप्रा यमप्रिया। भगवान् शंकर निर्ऋति हैं और पार्वती नैर्ऋति। भगवान् रुद्र वरुण हैं और पार्वती वारुणी। चन्द्रशेखर शिव वायु हैं और पार्वती वायुप्रिया। शिव यक्ष हैं और पार्वती ऋद्धि। चन्द्रार्धशेखर शिव चन्द्रमा हैं और रुद्रवल्लभा उमा रोहिणी। परमेश्वर शिव ईशान हैं और परमेश्वरी शिवा उनकी पत्नी। नागराज अनन्त को वलय रूप में धारण करनेवाले भगवान् शंकर अनन्त हैं और उनकी वल्लभा शिवा अनन्ता। कालशत्रु शिव कालाग्निरुद्र हैं और काली कालान्तकप्रिया हैं। जिनका दूसरा नाम पुरुष है, ऐसे स्वायम्भुव मनु के रूप में साक्षात् शम्भु ही हैं और शिवप्रिया उमा शतरूपा हैं। साक्षात् महादेव दक्ष हैं और परमेश्वरी पार्वती प्रसृति। भगवान् भव रुचि हैं और भवानी को ही विद्वान् पुरुष आकृति कहते हैं। महादेवजी भृगु हैं और पार्वती ख्याति। भगवान् रुद्र मरीचि हैं और शिववल्लभा सम्भूति। भगवान् गंगाधर अंगिरा हैं और साक्षात् उमा स्मृति। चन्द्रमौलि पुलस्त्य हैं और पार्वती प्रीति। त्रिपुरनाशक शिव पुलह हैं और पार्वती ही उनकी प्रिया हैं। यज्ञविध्वंसी शिव क्रतु कहे गये हैं और उनकी प्रिया पार्वती संनति। भगवान् शिव अत्रि हैं और साक्षात् उमा अनसूया। कालहन्ता शिव कश्यप हैं और महेश्वरी उमा देवमाता अदिति। कामनाशन शिव वसिष्ठ हैं और साक्षात् देवी पार्वती अरुन्धती। भगवान् शंकर ही संसार के सारे पुरुष हैं और महेश्वरी शिवा ही सम्पूर्ण स्त्रियाँ। अतः सभी स्त्री-पुरुष उन्हीं की विभूतियाँ हैं।
भगवान् शिव विषयी हैं और परमेश्वरी उमा विषय। जो कुछ सुनने में आता है वह सब उमा का रूप है और श्रोता साक्षात् भगवान् शंकर हैं। जिसके विषय में प्रश्न या जिज्ञासा होती है, उस समस्त वस्तु-समुदाय का रूप शंकरवल्लभा शिवा स्वयं धारण करती हैं तथा पूछनेवाला जो पुरुष है, वह बाल चन्द्रशेखर विश्वात्मा शिवरूप ही है। भववल्लभा उमा ही द्रष्टव्य वस्तुओं का रूप धारण करती हैं और द्रष्टा पुरुष के रूप में शशिखण्डमौलि भगवान् विश्वनाथ ही सब कुछ देखते हैं। सम्पूर्ण रस की राशि महादेवी हैं और उस रस का आस्वादन करनेवाले मंगलमय महादेव हैं। प्रेमसमुह पार्वती हैं और प्रियतम विषभोजी शिव हैं। देवी महेश्वरी सदा मन्तव्य वस्तुओं का स्वरूप धारण करती हैं और विश्वात्मा महेश्वर महादेव उन वस्तुओं के मन्ता (मनन करनेवाले हैं)। भववल्लभा पार्वती बोद्धव्य (जानने योग्य) वस्तुओं का स्वरूप धारण करती हैं और शिशु-शशिशेखर भगवान् महादेव ही उन वस्तुओं के ज्ञाता हैं। सामर्थ्यशाली भगवान् पिनाकी सम्पूर्ण प्राणियों के प्राण हैं और सबके प्राणों की स्थिति जलरूपिणी माता पार्वती हैं। त्रिपुरान्तक पशुपति की प्राणवल्लभा पार्वती देवी जब क्षेत्र का स्वरूप धारण करती हैं, तब काल के भी काल भगवान् महाकाल क्षेत्रज्ञरूप में स्थित होते हैं। शूलधारी महादेवजी दिन हैं तो शूलपाणि प्रिया पार्वती रात्रि। कल्याणकारी महादेवजी आकाश हैं और शंकरप्रिया पार्वती पृथिवी। भगवान् महेश्वर समुद्र हैं तो गिरिरगाज-कन्या शिवा उसकी तटभूमि हैं। वृषभध्वज महादेव वृक्ष हैं, तो विश्वेश्वरप्रिया उमा उस पर फैलनेवाली लता हैं। भगवान् त्रिपुरनाशक महादेव सम्पूर्ण पुँल्लिंगरूप को स्वयं धारण करते हैं और महादेवमनोरमा देवी शिवा सारा स्त्रीलिंगरूप धारण करती हैं। शिववल्लभा शिवा समस्त शब्दजाल का रूप धारण करती हैं और बालेन्दुशेखर शिव सम्पूर्ण अर्थ का। जिस-जिस पदार्थ की जो-जो शक्ति कही गयी है, वह-वह शक्ति तो विश्वेश्वरी देवी शिवा हैं और वह-वह सारा पदार्थ साक्षात् महेश्वर हैं। जो सबसे परे है, जो पवित्र है, जो पुण्यमय है तथा जो मंगलरूप है, उस-उस वस्तु को महाभाग महात्माओं ने उन्हीं दोनों शिव-पार्वती के तेज से विस्तार को प्राप्त हुई बताया है।
जैसे जलते हुए दीपक की शिखा समूचे घर को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शिव-पार्वती का ही यह तेज व्याप्त होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाश दे रहा है। ये दोनों शिवा और शिव सर्वरूप हैं, सबका कल्याण करनेवाले हैं; अतः सदा ही इन दोनों का पूजन, नमन एवं चिन्तन करना चाहिये।
श्रीकृष्ण! आज मैंने तुम्हारे समक्ष अपनी बुद्धि के अनुसार परमेश्वर शिवा और शिव के यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया है, परंतु इयत्तापूर्वक नहीं; अर्थात इस वर्णन से यह नहीं मान लेना चाहिये कि इन दोनों के यथार्थरूप का पूर्णतः वर्णन हो गया; क्योंकि इनके स्वरूप की इयत्ता (सीमा) नहीं है। जो समस्त महापुरुषों के भी मन की सीमा से परे है, परमेश्वर शिव और शिवा के उस यथार्थ स्वरूप का वर्णन कैसे किया जा सकता है। जिन्होंने अपने चित्त को महेश्वर के चरणों में अर्पित कर दिया है तथा जो उनके अनन्यभक्त हैं उनके ही मन में वे आते हैं और उन्हीं की बुद्धि में आरूढ़ होते हैं। दूसरों की बुद्धि में वे आरूढ़ नहीं होते। यहाँ मैंने जिस विभूति का वर्णन किया है, वह प्राकृत है, इसलिये अपरा मानी गयी है। इससे भिन्न जो अप्राकृत एवं परा विभूति है, वह गुह्य है। उनके गुह्य रहस्य को जानने वाले पुरुष ही उन्हें जानते हैं। परमेश्वर की यह अप्राकृत परा विभूति वह है, जहाँ से मन और इन्द्रियों सहित वाणी लौट आती है। परमेश्वर की वही विभूति यहाँ परम धाम है, वही यहाँ परमगति है और वही यहाँ पराकाष्ठा है। जो अपने श्वास और इन्द्रियों पर विजय पा चुके हैं, वे योगीजन ही उसे पाने का प्रयत्न करते हैं। शिवा और शिव की यह विभूति संसाररूपी विषधर सर्प के डसने से मृत्यु के अधीन हुए मानवों के लिये संजीवनी ओषधि है। इसे जाननेवाला पुरुष किसी से भी भयभीत नहीं होता। जो इस परा और अपरा विभूति को ठीक-ठीक जान लेता है, वह अपरा विभूति को लाँघकर परा विभूति का अनुभव करने लगता है।
श्रीकृष्ण! यह तुमसे परमात्मा शिव और पार्वती के यथार्थ स्वरूप का गोपनीय होने पर भी वर्णन किया गया है; क्योंकि तुम भगवान् शिव की भक्ति के योग्य हो। जो शिष्य न हों, शिव के उपासक न हों और भक्त भी न हों, ऐसे लोगों को कभी शिव-पार्वती की इस विभूति का उपदेश नहीं देना चाहिये। यह वेद की आज्ञा है। अतः अत्यन्त कल्याणमय श्रीकृष्ण! तुम दूसरों को इसका उपदेश न देना। जो तुम्हारे जैसे योग्य पुरुष हों, उन्हीं से कहना; अन्यथा मौन ही रहना। जो भीतर से पवित्र, शिव का भक्त और विश्वासी हो, वह यदि इसका कीर्तन करे तो मनोवांछित फल का भागी होता है। यदि पहले के प्रबल प्रतिबन्धक कर्मों द्वारा प्रथम बार फल की प्राप्ति में बाधा पड़ जाय, तो भी बारंबार साधन का अभ्यास करना चाहिये। ऐसा करनेवाले पुरुष के लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
(अध्याय ४)