परमेश्वर शिव के यथार्थ स्वरूप का विवेचन तथा उनकी शरण में जाने से जीव के कल्याण का कथन

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! यह चराचर जगत् देवाधिदेव महादेवजी का स्वरूप है। परंतु पशु (जीव) भारी पाश से बँधे होने के कारण जगत् को इस रूप में नहीं जानते। महर्षिगण उन परमेश्वर शिव के निर्विकल्प परम भाव को न जानने के कारण उन एक का ही अनेक रूपों में वर्णन करते हैं – कोई उस परमतत्त्व को अपर ब्रह्मरूप कहते हैं, कोई परब्रह्मरूप बताते हैं और कोई आदि-अन्त से रहित उत्कृष्ट महादेवस्वरूप कहते हैं। पंच महाभूत, इन्द्रिय, अन्तःकरण तथा प्राकृत विषयरूप जड तत्त्व को अपर ब्रह्म कहा गया है। इससे भिन्न समष्टि चैतन्य का नाम परब्रह्म है। बृहत् और व्यापक होने के कारण उसे ब्रह्म कहते हैं। प्रभो! वेदों एवं ब्रह्माजी के अधिपति परब्रह्म परमात्मा शिव के वे पर और अपर दो रूप हैं। कुछ लोग महेश्वर शिव को विद्याविद्यास्वरूपी कहते हैं। इनमें विद्या चेतना है और अविद्या अचेतना। यह विद्याविद्यारूप विश्व जगद्गुरु भगवान् शिव का रूप ही है, इसमें संदेह नहीं है; क्योंकि विश्व उनके वश में है। भ्रान्ति, विद्या तथा पराविद्या या परम तत्त्व – ये शिव के तीन उत्कृष्ट रूप माने गये हैं। पदार्थों के विषय में जो अनेक प्रकार की असत्य धारणाएँ हैं, उन्हें भ्रान्ति कहते हैं। यथार्थ धारणा या ज्ञान का नाम विद्या है तथा जो विकल्परहित परम ज्ञान है, उसे परम तत्त्व कहते हैं। परम तत्त्व ही सत् है, इससे विपरीत असत् कहा गया है। सत् और असत् दोनों का पति होने के कारण शिव सदसत्पति कहलाते हैं। अन्य महर्षियों ने क्षर, अक्षर और उन दोनों से परे परम तत्त्व का प्रतिपादन किया है। सम्पूर्ण भूत क्षर हैं और जीवात्मा अक्षर कहलाता है। वे दोनों परमेश्वर के रूप हैं; क्योंकि उन्हीं के अधीन हैं। शान्तस्वरूप शिव उन दोनों से परे हैं इसलिये क्षराक्षरपर कहे गये हैं। कुछ महर्षि परम कारणरूप शिव को समष्टि-व्यष्टिस्वरूप तथा समष्टि और व्यष्टि का कारण कहते हैं। अव्यक्त को समष्टि कहते हैं और व्यक्त को व्यष्टि। वे दोनों परमेश्वर शिव के रूप हैं, क्योंकि उन्हीं की इच्छा से प्रवृत्त होते हैं। उन दोनों के कारणरूप से स्थित भगवान् शिव परम कारण हैं। अतः कारणार्थवेत्ता ज्ञानी पुरुष उन्हें समष्टि-व्यष्टि का कारण बताते हैं। कुछ लोग परमेश्वर को जाति-व्यक्तिस्वरूप कहते हैं। जिसका शरीर में भी अनुवर्तन हो, वह जाति कही गयी है। शरीर की जाति के आश्रित रहनेवाली जो व्यावृत्ति है, जिसके द्वारा जातिभावना का आच्छादन और वैयक्तिक भावना का प्रकाशन होता है, उसका नाम व्यक्ति है। जाति और व्यक्ति दोनों ही भगवान् शिव की आज्ञा से परिपालित हैं, अतः उन महादेवजी को जाति-व्यक्तिस्वरूप कहा गया है।

कोई- कोई शिव को प्रधान, पुरुष, व्यक्त और कालरूप कहते हैं। प्रकृति का ही नाम प्रधान है। जीवात्मा को ही क्षेत्रज्ञ कहते हैं। तेईस तत्वों को मनीषी पुरुषों ने व्यक्त कहा है और जो कार्य-प्रपंच के परिणाम का एकमात्र कारण है, उसका नाम काल है। भगवान् शिव इन सबके ईश्वर, पालक, धारणकर्ता, प्रवर्तक, निवर्तक तथा आविर्भाव और तिरोभाव के एकमात्र हेतु हैं। वे स्वयंप्रकाश एवं अजन्मा हैं। इसीलिये उन महेश्वर को प्रधान, पुरुष, व्यक्त और कालरूप कहा गया है। कारण, नेता, अधिपति और धाता बताया गया है। कुछ लोग महेश्वर को विराट और हिरण्यगर्भरूप बताते हैं। जो सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि के हेतु हैं, उनका नाम हिरण्यगर्भ है और विश्वरूप को विराट कहते हैं। ज्ञानी पुरुष भगवान् शिव को अन्तर्यामी और परम पुरुष कहते हैं। दूसरे लोग उन्हें प्राज्ञ, तैजस और विश्वरूप बताते हैं। कोई उन्हें तुरीयरूप मानते हैं और कोई सौम्यरूप। कितने ही विद्वानों का कथन है कि वे ही माता, मान, मेय और मितिरूप हैं। अन्य लोग कर्ता, क्रिया, कार्य, करण और कारणरूप कहते हैं। दूसरे ज्ञानी उन्हें जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिरूप बताते हैं। कोई भगवान् शिव को तुरीयरूप कहते हैं तो कोई तुरीयातीत। कोई निर्गुण बताते हैं, कोई सगुण। कोई संसारी कहते हैं, कोई असंसारी। कोई स्वतन्त्र मानते हैं, कोई अस्वतन्त्र। कोई उन्हें घोर समझते हैं, कोई सौम्य। कोई रागवान् कहते हैं, कोई वीतराग; कोई निष्क्रिय बताते हैं, कोई सक्रिय। किन्हीं के कथनानुसार वे निरिन्द्रिय हैं तो किन्हीं के मत में सेन्द्रिय हैं। एक उन्हें ध्रुव कहता है तो दूसरा अध्रुव; कोई उन्हें साकार बताते हैं तो कोई निराकार। किन्हीं के मत में वे अदृश्य हैं तो किन्हीं के मत में दृश्य; कोई उन्हें वर्णनीय मानते हैं तो कोई अनिर्वचनीय। किन्हीं के मत में वे शब्दस्वरूप हैं तो किन्हीं के मत में शब्दातीत; कोई उन्हें चिन्तन का विषय मानते हैं तो कोई अचिन्त्य समझते हैं। दूसरे लोगों का कहना है कि वे ज्ञानस्वरूप हैं, कोई उन्हें विज्ञान की संज्ञा देते हैं। किन्हीं के मत में वे ज्ञेय हैं और किन्हीं के मत में अज्ञेय। कोई उन्हें पर बताता है तो कोई अपर। इस तरह उनके विषय में नाना प्रकार की कल्पनाएँ होती हैं। इन नाना प्रतीतियों के कारण मुनिजन उन परमेश्वर के यथार्थ स्वरूप का निश्चय नहीं कर पाते। जो सर्वभाव से उन परमेश्वर की शरण में आ गये हैं, वे ही उन परम कारण शिव को बिना यत्न के ही जान पाते हैं। जब तक पशु (जीव), जिनका दूसरा कोई ईश्वर नहीं है उन सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, पुराणपुरुष तथा तीनों लोकों के शासक शिव को नहीं देखता, तब तक वह पाशों से बद्ध हो इस दुःखमय संसार-चक्र में गाड़ी के पहिये की नेमि के समान घूमता रहता है। जब यह द्रष्टा जीवात्मा सबके शासक, ब्रह्मा के भी आदिकारण, सम्पूर्ण जगत् के रचयिता, सुवर्णोपम, दिव्य प्रकाशस्वरूप परम पुरुष का साक्षात्कार कर लेता है, तब पुण्य और पाप दोनों को भलीभाँति हटाकर निर्मल हुआ वह ज्ञानी महात्मा सर्वोत्तम समता को प्राप्त कर लेता है।

(अध्याय ५)