शिव के शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वमय, सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूप का तथा उनकी प्रणवरूपता का प्रतिपादन
उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! शिव को न तो आणव मल का ही बन्धन प्राप्त है, न कर्म का और न माया का ही। प्राकृत, बौद्ध, अहंकार, मन, चित्त, इन्द्रिय, तन्मात्रा और पंचभूतसम्बन्धी भी कोई बन्धन उन्हें नहीं छू सका है। अमिततेजस्वी शम्भु को न काल, न कला, न विद्या, न नियति, न राग और न द्वेषरूप ही बन्धन प्राप्त है। उनमें न तो कर्म हैं, न उन कर्मों का परिपाक है, न उनके फलस्वरूप सुख और दुःख हैं, न उनका वासनाओं से सम्बन्ध है, न कर्मों के संस्कारों से। भूत, भविष्य और वर्तमान भोगों तथा उनके संस्कारों से भी उनका सम्पर्क नहीं है। न उनका कोई कारण है, न कर्ता। न आदि है, न अन्त और न मध्य है; न कर्म और करण है; न अकर्तव्य है और न कर्तव्य ही है। उनका न कोई बन्धु है और न अबन्धु; न नियन्ता है, न प्रेरक; न पति है, न गुरु है और न त्राता ही है। उनसे अधिक की चर्चा कौन करे, उनके समान भी कोई नहीं है। उनका न जन्म होता है न मरण। उनके लिये कोई वस्तु न तो वांछित है और न अवांछित ही। उनके लिये न विधि है न निषेध। न बन्धन है न मुक्ति। जो-जो अकल्याणकारी दोष हैं वे उनमें कभी नहीं रहते। परंतु सम्पूर्ण कल्याणकारी गुण उनमें सदा ही रहते हैं; क्योंकि शिव साक्षात् परमात्मा हैं। वे शिव अपनी शक्तियों द्वारा इस सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त होकर अपने स्वभाव से च्युत न होते हुए सदा ही स्थित रहते हैं; इसलिये उन्हें स्थाणु कहते हैं। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् शिव से अधिष्ठित है; अतः भगवान् शिव सर्वरूप माने गये हैं। जो ऐसा जानता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता।
रुद्र सर्वरूप हैं। उन्हें नमस्कार है। वे सत्स्वरूप, परम महान् पुरुष, हिरण्यबाहु भगवान्, हिरण्यपति, ईश्वर, अम्बिकापति, ईशान, पिनाकपाणि तथा वृषभवाहन हैं। एकमात्र रुद्र ही परब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही कृष्ण-पिंगलवर्णवाले पुरुष हैं। वे हृदय के भीतर कमल के मध्य-भाग में केश के अग्रभाग की भाँति सूक्ष्म रूप से चिन्तन करने योग्य हैं। उनके केश सुनहरे रंग के हैं। नेत्र कमल के समान सुन्दर हैं। अंगकान्ति अरुण और ताम्रवर्ण की है। वे सुवर्णमय नीलकण्ठ देव सदा विचरते रहते हैं। उन्हें सौम्य, घोर, मिश्र, अक्षर, अमृत और अव्यय कहा गया है। वे पुरुषविशेष परमेश्वर भगवान् शिव काल के भी काल हैं। चेतन और अचेतन से परे हैं। इस प्रपंच से भी परात्पर हैं। शिव में ऐसे ज्ञान और ऐश्वर्य देखे गये हैं, जिनसे बढ़कर ज्ञान और ऐश्वर्य अन्यत्र नहीं हैं। मनीषी पुरुषों ने भगवान् शिव को लोक में सबसे अधिक ऐश्वर्यशाली पद पर प्रतिष्ठित बताया है। प्रत्येक कल्प में उत्पन्न होकर एक सीमित काल तक रहनेवाले ब्रह्माओं को आदिकाल में विस्तारपूर्वक शास्त्र का उपदेश देने वाले भगवान् शिव ही हैं। एक सीमित काल तक रहनेवाले गुरुओं के भी वे गुरु हैं। वे सर्वेश्वर सदा सभी के गुरु हैं। काल की सीमा उन्हें छू नहीं सकती। उनकी शुद्ध स्वाभाविक शक्ति सबसे बढ़कर है। उन्हें अनुपम ज्ञान और नित्य अक्षय शरीर प्राप्त है। उनके ऐश्वर्य की कहीं तुलना नहीं है। उनका सुख अक्षय और बल अनन्त है। उनमें असीम तेज, प्रभाव, पराक्रम, क्षमा और करुणा भरी है। वे नित्य परिपूर्ण हैं। उन्हें सृष्टि आदि से अपने लिये कोई प्रयोजन नहीं है। दूसरों पर परम अनुग्रह ही उनके समस्त कर्मों का फल है। प्रणव उन परमात्मा शिव का वाचक है। शिव, रुद्र आदि नामों में प्रणव ही सबसे उत्कृष्ट माना गया है। प्रणववाच्य शम्भु के चिन्तन और जप से जो सिद्धि प्राप्त होती है, वही परा सिद्धि है, इसमें संशय नहीं है।
इसीलिये शास्त्रों के पारंगत मनस्वी विद्वान वाच्य और वाचक की एकता स्वीकार करते हुए महादेवजी को प्रणवरूप कहते हैं। माण्डूक्य-उपनिषद् में प्रणव की चार मात्राएँ बतायी गयी हैं – अकार, उकार, मकार और नाद। अकार को ऋग्वेद कहते हैं। उकार यजुर्वेदरूप कहा गया है। मकार सामवेद है और नाद अथर्ववेद की श्रुति है। अकार महाबीज है, वह रजोगुण तथा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा है। उकार प्रकृतिरूपा योनि है, वह सत्त्वगुण तथा पालनकर्ता श्रीहरि है। मकार जीवात्मा एवं बीज है, वह तमोगुण तथा संहारकर्ता रुद्र है। नाद परम पुरुष परमेश्वर है, वह निर्गुण एवं निष्क्रिय शिव है। इस प्रकार प्रणव अपनी तीन मात्राओं के द्वारा ही तीन रूपों में इस जगत् का प्रतिपादन करके अपनी अर्द्धमात्रा (नाद) के द्वारा शिवस्वरूप का बोध कराता है। जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं है, जिनसे बढ़कर कोई न तो अधिक सूक्ष्म है और न महान् ही है तथा जो अकेले ही वृक्ष की भाँति निश्चल भाव से प्रकाशमय आकाश में स्थित हैं, उन परम पुरुष परमेश्वर शिव से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है।
(अध्याय ६)