परमेश्वर की शक्ति का ऋषियों द्वारा साक्षात्कार, शिव के प्रसाद से प्राणियों की मुक्ति, शिव की सेवा-भक्ति तथा पाँच प्रकार के शिवधर्म का वर्णन
उपमन्यु कहते हैं – परमेश्वर शिव की स्वाभाविक शक्ति विद्या है, जो सबसे विलक्षण है। वह एक होकर भी अनेक रूप से भासित होती है। जैसे सूर्य की प्रभा एक होकर भी अनेक रूप में प्रकाशित होती है। उस विद्याशक्ति से इच्छा, ज्ञान, क्रिया और माया आदि अनेक शक्तियाँ उत्पन्न हुई हैं, ठीक उसी तरह जैसे अग्नि से बहुत-सी चिनगारियाँ प्रकट होती हैं। उसी से सदाशिव और ईश्वर आदि तथा विद्या और विद्येश्वर आदि पुरुष भी प्रकट हुए हैं। परात्पर प्रकृति भी उसी से उत्पन्न हुई है। महत्तत्त्व् से लेकर विशेष पर्यन्त सारे विकार तथा अज (ब्रह्मा) आदि मूर्तियाँ भी उसी से प्रकट हुईं हैं। इनके सिवा जो अन्य वस्तुएं हैं, वे सब भी उसी शक्ति के कार्य हैं, इसमें संशय नहीं है। वह शक्ति सर्वव्यापिनी, सूक्ष्म तथा ज्ञानानन्दरूपिणी है। उसी से शीतांशुभूषण भगवान् शिव शक्तिमान् कहलाते हैं। शक्तिमान् – शिव वेद्य हैं और शक्तिरूपिणी – शिवा विद्या हैं। वे शक्तिरूपा शिवा ही प्रज्ञा, श्रुति, स्मृति, धृति, स्थिति, निष्ठा, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, कर्मशक्ति, आज्ञाशक्ति, परब्रह्म, परा और अपरा नाम की दो विद्याएँ, शुद्ध विद्या और शुद्ध कला हैं; क्योंकि सब कुछ शक्ति का ही कार्य है। माया, प्रकृति, जीव, विकार, विकृति, असत् और सत् आदि जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब उस शक्ति से ही व्याप्त है।
वे शक्तिरूपिणी शिवादेवी माया द्वारा समस्त चराचर ब्रह्माण्ड को अनायास ही मोह में डाल देती और लीलापूर्वक उसे मोह के बन्धन से मुक्त भी कर देती हैं। इस शक्ति के सत्ताईस प्रकार हैं, सत्ताईस प्रकारवाली इस शक्ति के साथ सर्वेश्वर शिव सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं। इन्हीं के चरणों में मुक्ति विराजती है। पूर्वकाल की बात है, संसार-बन्धन से छूटने की इच्छावाले कुछ ब्रह्मवादी मुनियों के मन में यह संशय हुआ। वे परस्पर मिलकर यथार्थरूप से विचार करने लगे – इस जगत् का कारण क्या है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं और किससे जीवन धारण करते हैं? हमारी प्रतिष्ठा कहाँ है? हमारा अधिष्ठाता कौन है? हम किस के सहयोग से सदा सुख में और दुःख में रहते हैं? किसने इस विश्व की अलंघनीय व्यस्था की है? यदि कहें काल, स्वभाव, नियति (निश्चित फल देनेवाला कर्म) और यदृच्छा (आकस्मिक घटना) इसमें कारण हों तो यह कथन युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता। पाँचों महाभूत तथा जीवात्मा भी कारण नहीं हैं। इन सबका संयोग तथा अन्य कोई भी कारण नहीं है; क्योंकि ये काल आदि अचेतन हैं। जीवात्मा के चेतन होने पर भी वह सुख-दुःख से अभिभूत तथा असमर्थ होने से इस जगत् का कारण नहीं हो सकता। अतः कौन कारण है, इसका विचार करना चाहिये। इस प्रकार आपस में विचार करने पर जब वे युक्तियों द्वारा किसी निर्णय तक न पहुँच सके, तब उन्होंने ध्यानयोग में स्थित होकर परमेश्वर की स्वरूपभूता अचिन्त्य शक्ति का साक्षात्कार किया, जो अपने ही गुणों से – सत्त्व, रज और तम से ढकी है तथा उन तीनों गुणों से परे है। परमेश्वर की वह साक्षात् शक्ति समस्त पाशों का विच्छेद करने वाली है। उसके द्वारा बन्धन काट दिये जाने पर जीव अपनी दिव्य दृष्टि से उन सर्वकारण-कारण शक्तिमान् महादेवजी का दर्शन करने लगते हैं, जो काल से लेकर जीवात्मा तक पूर्वोक्त समस्त कारणों पर तथा सम्पूर्ण विश्व पर अपनी इस शक्ति के द्वारा ही शासन करते हैं। वे परमात्मा अप्रमेय हैं। तदनन्तर परमेश्वर के प्रसादयोग, परमयोग तथा सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा उन मुनियों ने दिव्य गति प्राप्त कर ली।
श्रीकृष्ण! जो अपने हृदय में शक्ति सहित भगवान् शिव का दर्शन करते हैं, उन्हीं को सनातन शान्ति प्राप्त होती है, दूसरों को नहीं, यह श्रुति का कथन है। शक्तिमान् का शक्ति से कभी वियोग नहीं होता। अतः शक्ति और शक्तिमान् दोनों के तादात्म्य से परमानन्द की प्राप्ति होती है। मुक्ति की प्राप्ति में निश्चय ही ज्ञान और कर्म का कोई क्रम विवक्षित नहीं है, जब शिव और शक्ति की कृपा हो जाती है, तब वह मुक्ति हाथ में आ जाती है। देवता, दानव, पशु, पक्षी तथा कीड़े-मकोड़े भी उनकी कृपा से मुक्त हो जाते हैं। गर्भ का बच्चा, जन्मता हुआ बालक, शिशु, तरुण, वृद्ध, मुमूर्षु, स्वर्गवासी, नारकी, पतित, तरुण, धर्मात्मा, पण्डित अथवा मूर्ख साम्बशिव की कृपा होने पर तत्काल मुक्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। परमेश्वर अपनी स्वाभाविक करुणा से अयोग्य भक्तों के भी विविध मलों को दूर करके उन पर कृपा करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। भगवान् की कृपा से ही भक्ति होती है और भक्ति से ही उनकी कृपा होती है। अवस्थाभेद का विचार करके विद्वान पुरुष इस विषय में मोहित नहीं होता है। कृपाप्रसादपूर्वक जो यह भक्ति होती है, वह भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति करानेवाली है। उसे मनष्य एक जन्म में नहीं प्राप्त कर सकता। अनेक जन्मों तक श्रौत-स्मार्त कर्मों का अनुष्ठान करके सिद्ध हुए विरक्त एवं ज्ञानसम्पन्न पुरुषों पर महेश्वर प्रसन्न होते और कृपा करते हैं। देवेश्वर शिव के प्रसन्न होने पर उस पशु (जीव) में बुद्धिपूर्वक थोड़ी-सी भक्ति का उदय होता है। तब वह यह अनुभव करने लगता है कि भगवान् शिव मेरे स्वामी हैं। फिर तपस्यापूर्वक वह नाना प्रकार के शैवधर्मों के पालन में संलग्न होता है। उन धर्मों के पालन में बारंबार लगे रहने से उसके हृदय में पराभक्ति का प्रादुर्भाव होता है। उस पराभक्ति से परमेश्वर का परम प्रसाद उपलब्ध होता है। प्रसाद से सम्पूर्ण पापों से छुटकारा मिलता है और छुटकारा मिल जाने पर परमानन्द की प्राप्ति होती है, जिस मनुष्य का भगवान् शिव में थोड़ा-सा भी भक्तिभाव है, वह तीन जन्मों के बाद अवश्य मक्त हो जाता है। उसे इस संसार में योनियन्त्र की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती। सांगा (अंग सहित) और अनंगा (अंगरहित) जो सेवा है, उसी को भक्ति कहते हैं। उसके फिर तीन भेद होते हैं – मानसिक, वाचिक और शारीरिक। शिव के रूप आदि का जो चिन्तन है, उसे मानसिक सेवा कहते हैं। जप आदि वाचिक सेवा है और पूजन आदि कर्म शारीरिक सेवा है। इन त्रिविध साधनों से सम्पन्न होने वाली जो यह सेवा है, इसे 'शिवधर्म' भी कहते हैं। परमात्मा शिव ने पाँच प्रकार का शिव-धर्म बताया है – तप, कर्म, जप, ध्यान और ज्ञान। लिंगपूजन आदि को 'कर्म' कहते हैं। चान्द्रायण आदि व्रत का नाम 'तप' है। वाचिक, उपांशु और मानस – तीन प्रकार का जो शिव-मन्त्र का अभ्यास (आवृत्ति) है, उसी को 'जप' कहते हैं। शिव का चिन्तन ही 'ध्यान' कहलाता है तथा शिवसम्बन्धी आगमों में जिस ज्ञान का वर्णन है, उसी को यहाँ 'ज्ञान' शब्द से कहा गया है। श्रीकण्ठ शिव ने शिवा के प्रति जिस ज्ञान का उपदेश किया है, वही शिवागम है। शिव के आश्रित जो भक्तजन हैं, उन पर कृपा करके कल्याण के एकमात्र साधक इस ज्ञान का उपदेश किया गया है। अतः कल्याण-कामी बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह परम कारण शिव में भक्ति को बढ़ाये तथा विषयासक्ति का त्याग करे।
(अध्याय ७)