शिव-ज्ञान, शिव की उपासना से देवताओं को उनका दर्शन, सूर्यदेव में शिव की पूजा करके अर्घ्यदान की विधि तथा व्यासावतारों का वर्णन
श्रीकृष्ण बोले – भगवन्! अब मैं उस शिव-ज्ञान को सुनना चाहता हूँ, जो वेदों का सारतत्त्व है तथा जिसे भगवान् शिव ने अपने शरणागत भक्तों की मुक्ति के लिये कहा है। प्रभु शिव की पूजा कैसे की जाती है? पूजा आदि में किसका अधिकार है तथा ज्ञानयोग आदि कैसे सिद्ध होते हैं? उत्तम व्रत का पालन करनेवाले मुनीश्वर! ये सब बातें विस्तारपूर्वक बताइये।
उपमन्यु ने कहा – भगवान् शिव ने जिस वेदोक्त ज्ञान को संक्षिप्त करके कहा है, वही शैव-ज्ञान है। वह निन्दा-स्तुति आदि से रहित तथा श्रवण मात्र से ही अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करनेवाला है। यह दिव्य ज्ञान गुरु की कृपा से प्राप्त होता है और अनायास ही मोक्ष देनेवाला है। मैं उसे संक्षेप में ही बताऊँगा; क्योंकि उसका विस्तारपूर्वक वर्णन कोई कर ही नहीं सकता है। पूर्वकाल में महेश्वर शिव सृष्टि की इच्छा करके सत्कार्य-कारणों से नियुक्त हो स्वयं ही अव्यक्त से व्यक्त रूप में प्रकट हुए। उस समय ज्ञानस्वरूप भगवान् विश्वनाथ ने देवताओं में सबसे प्रथम देवता वेदपति ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। ब्रह्मा ने उत्पन्न होकर अपने पिता महादेव को देखा तथा ब्रह्माजी के जनक महादेवजी ने भी उत्पन्न हुए ब्रह्मा की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखा और उन्हें सृष्टि रचने की आज्ञा दी। रुद्रदेव की कृपादृष्टि से देखे जाने पर सृष्टि के सामर्थ्य से युक्त हो उन ब्रह्मदेव ने समस्त संसार की रचना की और पृथक्-पृथक् वर्णों तथा आश्रमों की व्यवस्था की। उन्होंने यज्ञ के लिये सोम की सृष्टि की। सोम से द्युलोक का प्रादुर्भाव हुआ। फिर पृथ्वी, अग्नि, सूर्य, यज्ञमय विष्णु और शचीपति इन्द्र प्रकट हुए। वे सब तथा अन्य देवता रुद्राध्याय पढ़कर रुद्रदेव की स्तुति करने लगे। तब भगवान् महेश्वर अपनी लीला प्रकट करने के लिये उन सबका ज्ञान हरकर प्रसन्न मुख से उन देवताओं के आगे खड़े हो गये।
तब देवताओं ने मोहित होकर उनसे पूछा – 'आप कौन हैं?' भगवान् रुद्र बोले – 'श्रेष्ठ देवताओं! सबसे पहले मैं ही था। इस समय भी सर्वत्र मैं ही हूँ और भविष्य में भी मैं ही रहूँगा। मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है। मैं भी अपने तेज से सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करता हूँ। मुझसे अधिक और मेरे समान कोई नहीं है। जो मुझे जानता है, वह मुक्त हो जाता है।' ऐसा कहकर भगवान् रुद्र वहीं अन्तर्धान हो गये। जब देवताओं ने उन महेश्वर को नहीं देखा, तब वे सामवेद के मन्त्रों द्वारा उनकी स्तुति करने लगे। अथर्वशीर्ष में वर्णित पाशुपत-व्रत को ग्रहण करके उन अमरगणों ने अपने सम्पूर्ण अंगों में भस्म लगा लिया। यह देख उन पर कृपा करने के लिये पशुपति महादेव अपने गणों और उमा के साथ उनके निकट आये। प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतकर निद्रा-रहित एवं निष्पाप हुए योगीजन अपने हृदय में जिनका दर्शन करते हैं, उन्हीं महादेव को उन देवेश्वरों ने वहाँ देखा। जिन्हें ईश्वर की इच्छा का अनुसरण करने वाली पराशक्ति कहते हैं, उन वामलोचना भवानी को भी उन्होंने वामदेव महेश्वर के वामभाग में विराजमान देखा। जो संसार को त्यागकर शिव के परमपद को प्राप्त हो चुके हैं तथा जो नित्य सिद्ध हैं, उन गणेश्वरों का भी देवताओं ने दर्शन किया। तत्पश्चात् देवता महेश्वरसम्बन्धी वैदिक और पौराणिक दिव्य स्तोत्रों द्वारा देवी सहित महेश्वर की स्तुति करने लगे। तब वृषभध्वज महादेवजी भी उन देवताओं की ओर कृपापूर्वक देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो स्वभावतः मधुर वाणी में बोले – 'मैं तुम लोगों पर बहुत संतुष्ट हूँ।' उन प्रार्थनीय एवं पूज्यतम भगवान् वृषभध्वज को अत्यन्त प्रसन्नचित्त जान देवताओं ने प्रणाम करके आदरपूर्वक उनसे पूछा।
देवता बोले – भगवन्! इस भूतल पर किस मार्ग से आपकी पूजा होनी चाहिये और उस पूजा में किसका अधिकार है? यह ठीक-ठीक बताने की कृपा करें।
तब देवेश्वर शिव ने देवी की ओर मुसकराते हुए देखा और अपने परम घोर सूर्यमय स्वरूप को दिखाया। उनका वह स्वरूप सम्पूर्ण ऐश्वर्य-गुणों से सम्पन्न, सर्वतेजोमय, सर्वोत्कृष्ट तथा शक्तियों, मूर्तियों, अंगों, ग्रहों और देवताओं से घिरा हुआ था। उसके आठ भुजाएँ और चार मुख थे। उसका आधा भाग नारी के रूप में था। उस अद्भुत आकृतिवाले आश्चर्यजनक स्वरूप को देखते ही सब देवता यह जान गये कि सूर्यदेव, पार्वतीदेवी, चन्द्रमा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी तथा शेष पदार्थ भी शिव के ही स्वरूप हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत् शिवमय ही है। परस्पर ऐसा कहकर उन्होंने भगवान् सूर्य को अर्ध्य दिया और नमस्कार किया। अर्ध्य देते समय वे इस प्रकार बोले – 'जिनका वर्ण सिन्दूर के समान है और मण्डल सुन्दर है, जो सुवर्ण के समान कान्तिमान् आभूषणों से विभूषित हैं, जिनके नेत्र कमल के समान हैं, जिनके हाथ में भी कमल हैं, जो ब्रह्मा, इन्द्र और नारायण के भी कारण हैं, उन भगवान् को नमस्कार है।' यों कह उत्तम रत्नों से पूर्ण सुवर्ण, कुंकुम, कुश और पुष्प से युक्त जल सोने के पात्र में लेकर उन देवेश्वर को अर्ध्य दे और कहे – 'भगवन्! आप प्रसन्न हों। आप सबके आदिकारण हैं। आप ही रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा और सूर्यरूप हैं। गणों सहित आप शान्त शिव को नमस्कार है।''
जो एकाग्रचित्त हो सूर्यमण्डल में शिव का पूजन करके प्रातःकाल, मध्याहनकाल और सायंकाल में उनके लिये उत्तम अर्घ्य देता है, प्रणाम करता है और इन श्रवणसुखद श्लोकों को पढ़ता है, उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। यदि वह भक्त है तो अवश्य ही मुक्त हो जाता है। इसलिये प्रतिदिन शिवरूपी सूर्य का पूजन करना चाहिये। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिये मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा उनकी आराधना करनी चाहिये।
तत्पश्चात् मण्डल में विराजमान महेश्वर देवताओं की ओर देखकर और उन्हें सम्पूर्ण शास्त्रों में श्रेष्ठ शिवशास्त्र देकर वहीं अन्तर्धान हो गये। उस शास्त्र में शिवपूजा का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को दिया गया है। यह जानकर देवेश्वर शिव को प्रणाम करके देवता जैसे आये थे, वैसे चले गये। तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् जब वह शास्त्र लुप्त हो गया, तब भगवान् शंकर के अंक में बैठी हुई महेश्वरी शिवा ने पतिदेव से उसके विषय में पूछा। तब देवी से प्रेरित हो चन्द्रभूषण महादेव ने वेदों का सार निकालकर सम्पूर्ण आगमों में श्रेष्ठ शास्त्र का उपदेश किया, फिर उन परमेश्वर की आज्ञा से मैंने, गुरुदेव अगस्त्य ने और महर्षि दधीचि ने भी लोक में उस शास्त्र का प्रचार किया। शूलपाणि महादेव स्वयं भी युग-युग में भूतल पर अवतार ले अपने आश्रित जनों की मुक्ति के लिये ज्ञान का प्रसार करते हैं। ऋभु, सत्य, भार्गव, अंगिरा, सविता, मृत्यु, इन्द्र, मुनिवर वसिष्ठ, सारस्वत, त्रिधामा, मुनिश्रेष्ठ त्रिवृत्, शततेजा, साक्षातू धर्मस्वरूप नारायण, स्वरक्ष, बुद्धिमान् आरुणि, कृतंजय, भरद्वाज, श्रेष्ठ विद्वान् गौतम, वाचःश्रवा मुनि, पवित्र सूक्ष्मायणि, तृणविन्दु मुनि, कृष्ण, शक्ति, शाक्तेय (पाराशर), उत्तर, जातूकर्ण्य और साक्षात् नारायणस्वरूप कृष्णद्वैपायनः मुनि – ये सब व्यासावतार हैं। अब क्रमशः कल्पयोगेश्वरों का वर्णन सुनो। लिंगपुराण में द्वापर के अन्त में होनेवाले उत्तम व्रतधारी व्यासावतार तथा योगाचार्यावतारों का वर्णन है। भगवान् शिव के शिष्यों में भी जो प्रसिद्ध हैं, उनका वर्णन है। उन अवतारों में भगवान् के मुख्य रूप से चार महातेजस्वी शिष्य होते हैं। फिर उनके सैकड़ों, हजारों शिष्य प्रशिष्य हो जाते हैं। लोक में उनके उपदेश के अनुसार भगवान् शिव की आज्ञा पालन करने आदि के द्वारा भक्ति से अत्यन्त भावित हो भाग्यवान् पुरुष मुक्त हो जाते हैं।
(अध्याय ८)