शिव के अवतार, योगाचार्यों तथा उनके शिष्यों की नामावली

श्रीकृष्ण बोले – भगवन्! समस्त युगावर्तों में योगाचार्य के व्याज से भगवान् शंकर के जो अवतार होते हैं और उन अवतारों के जो शिष्य होते हैं, उन सबका वर्णन कीजिये।

उपमन्यु ने कहा – श्वेत, सुतार, मदन, सुहोत्र, कंकलौगाक्षि, महामायावी जैगीषव्य, दधिवाह, ऋषभ मुनि, उग्र, अत्रि, सुपालक, गौतम, वेदशिरा मुनि, गोकर्ण, गुहावासी, शिखण्डी, जटामाली, अट्टहास, दारुक, लांगुली, महाकाल, शूली, दण्डी, मुण्डीश, सहिष्णु, सोमशर्मा और नकुलीश्वर – ये वाराह कल्प के इस सातवें मन्वन्तर में युगक्रम से अट्ठाईस योगाचार्य प्रकट हुए हैं। इनमें से प्रत्येक के शान्तचित्तवाले चार-चार शिष्य हुए हैं, जो श्वेत से लेकर रुष्यपर्यन्त बताये गये हैं। मैं उनका क्रमशः वर्णन करता हूँ, सुनो। श्वेत, श्वेतशिख, श्वेताश्व, श्वेतलोहित, दुन्दुभि, शतरूप, ऋचीक, केतुमान, विकोश, विकेश, विपाश, पाशनाशन, सुमुख, दुर्मुख, दुर्गम, दुरतिक्रम, सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, सुधामा, विरजा, शंख, अण्डज, सारस्वत, मेघ, मेघवाह, सुवाहक, कपिल, आसुरि, पंचशिख, वाष्कल, पराशर, गर्ग, भार्गव, अंगिरा, बलबन्धु, निरामित्र, केतुश्रृंग, तपोधन, लम्बोदर, लम्ब, लम्बात्मा, लम्बकेशक, सर्वज्ञ, समबुद्धि, साध्य, सिद्धि, सुधामा, कश्यप, वसिष्ठ, विरजा, अत्रि, उग्र, गुरुश्रेष्ठ, श्रवण, श्रविष्ठक, कुणि, कुणबाहु, कुशरीर, कुनेत्रक, काश्यप, उशना, च्यवन, बृहस्पति, उतथ्य, वामदेव, महाकाल, महानिल, वाचःश्रवा, सुवीर, श्यावक, यतीश्वर, हिरण्यनाभ, कौशल्य, लोकाक्षि, कुथुमि, सुमन्तु, जैमिनी, कुबन्ध, कुशकन्धर, प्लक्ष, दार्भायणि, केतुमान, गौतम, भल्लवी, मधुपिंग, श्वेतकेतु, उशिज, बृहदश्व, देवल, कवि, शालिहोत्र, सुवेष, युवनाश्व, शरद्वसु, छगल, कुम्भकर्ण, कुम्भ, प्रबाहुक, उलूक, विद्युत्, शम्बूक, आश्वलायन, अक्षपाद, कणाद, उलूक, वत्स, कुशिक, गर्ग, मित्रक और रुष्य – ये योगाचार्यरूपी महेश्वर के शिष्य हैं। इनकी संख्या एक सौ बारह है। ये सब-के-सब सिद्ध पाशुपत हैं। इनका शरीर भस्म से विभूषित रहता है। ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, वेद और वेदांगों के पारंगत विद्वान्, शिवाश्रम में अनुरक्त, शिवज्ञान परायण, सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त, एकमात्र भगवान् शिव में ही मन को लगाये रखने वाले, सम्पूर्ण द्वन्दों को सहनेवाले, धीर, सर्वभूतहितकारी, सरल, कोमल, स्वस्थ, क्रोधशून्य और जितेन्द्रिय होते हैं, रुद्राक्ष की माला ही इनका आभूषण है। उनके मस्तक त्रिपुण्ड्र से अंकित होते हैं। उनमें से कोई तो शिखा के रूप में ही जटा धारण करते हैं। किन्हीं के सारे केश ही जटारूप होते हैं। कोई-कोई ऐसे हैं, जो जटा नहीं रखते हैं और कितने ही सदा माथा मुड़ाये रहते हैं। वे प्रायः फल-मूल का आहार करते हैं। प्राणायाम-साधन में तत्पर होते हैं। 'मैं शिव का हूँ' इस अभिमान से युक्त होते हैं। सदा शिव के ही चिन्तन में लगे रहते हैं। उन्होंने संसाररूपी विषवृक्ष के अंकुर को मथ डाला है। वे सदा परमधाम में जाने के लिये ही कटिबद्ध होते हैं। जो योगाचार्यों सहित इन शिष्यों को जान-मानकर सदा शिव की आराधना करता है, वह शिव का सायुज्य प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

(अध्याय ९)