भगवान् शिव के प्रति श्रद्धा-भक्ति की आवश्यकता का प्रतिपादन, शिवधर्म के चार पादों का वर्णन एवं ज्ञानयोग के साधनों तथा शिवधर्म के अधिकारियों का निरूपण, शिवपूजन के अनेक प्रकार एवं अनन्यचित्त से भजन की महिमा

तदनन्तर श्रीकृष्ण के प्रश्न करने पर उपमन्यु मन्दराचल पर घटित हुए शिव-पार्वती-संवाद को प्रस्तुत करते हुए बोले – श्रीकृष्ण! एक समय देवी पार्वती ने भगवान् शिव से पूछा – 'महादेव! जो आत्मतत्त्व आदि के साधन में नहीं लगे हैं तथा जिनका अन्तःकरण पवित्र एवं वशीभूत नहीं है, ऐसे मन्दमति, मर्त्यलोकवासी जीवात्माओं के वश में आप किस उपाय से हो सकते हैं?'

महादेवजी बोले – देवि! यदि साधक के मन में श्रद्धा-भक्ति न हो तो पूजनकर्म, तपस्या, जप, आसन आदि, ज्ञान तथा अन्य साधन से भी मैं उसके वशीभूत नहीं होता हूँ। यदि मनुष्यों की मुझमें श्रद्धा हो तो जिस किसी भी हेतु से मैं उसके वश में हो जाता हूँ। फिर तो वह मेरा दर्शन, स्पर्श, पूजन एवं मेरे साथ सम्भाषण भी कर सकता है। अतः जो मुझे वश में करना चाहे, उसे पहले मेरे प्रति श्रद्धा करनी चाहिये। श्रद्धा ही स्वधर्म का हेतु है और वही इस लोक में वर्णाश्रमी पुरुषों को रक्षा करने वाली है। जो मानव अपने वर्णाश्रम-धर्म के पालन में लगा रहता है, उसी को मुझमें श्रद्धा होती है, दूसरे की नहीं। वर्णाश्रमी पुरुषों के सम्पूर्ण धर्म वेदों से सिद्ध हैं। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मेरी ही आज्ञा लेकर उनका वर्णन किया था। ब्रह्माजी का बताया हुआ वह धर्म अधिक धन के द्वारा साध्य है तथा अनेक प्रकार के क्रियाकलाप से युक्त होता है। उससे मिलनेवाला अधिकांश फल अक्षय नहीं है तथा उस धन के अनुष्ठान में अनेक प्रकार के क्लेश और आयास उठाने पड़ते हैं। उस महान् धर्म से परम दुर्लभ श्रद्धा को पाकर जो वर्णाश्रमी मनुष्य अनन्यभाव से मेरी शरण में आ जाते हैं, उन्हें सुखद मार्ग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं। वर्णाश्रम-सम्बन्धी आचार की सृष्टि मैंने ही बारंबार की है। उसमें भक्तिभाव रखकर जो मेरे हो गये हैं, उन्हीं वर्णाश्रमियों का मेरी उपासना में अधिकार है, दूसरों का नहीं, यह मेरी निश्चित आज्ञा है। मेरी आज्ञा के अनुसार धर्ममार्ग से चलनेवाले वर्णाश्रमी पुरुष मेरी शरण में आ मेरे कृपाप्रसाद से मल और माया आदि पाशों से मुक्त हो जाते हैं तथा मेरे पुनरावृत्तिरहित धाम में पहुँचकर मेरा उत्तम साधर्म्य प्राप्त करके परमानन्द में निमग्न हो जाते हैं। इसलिये मेरे बताये हुए वर्णधर्म को पाकर अथवा न पाकर भी जो मेरी शरण ले मेरा भक्त बन जाता है, वह स्वयं ही अपनी आत्मा का उद्धार कर लेता है। यह कोटि-कोटि गुना अधिक अलब्ध-लाभ है। अतः मेरे मुख से प्रतिपादित वर्णधर्म का पालन अवश्य करना चाहिये।

जो मोक्षमार्ग से विलग होकर दूसरी किसी वस्तु के लिये श्रम करता है, उसके लिये वही सबसे बड़ी हानि है, वही बड़ी भारी त्रुटि है, वही मोह है और वही अन्धता एवं मूकता है। देवेश्वरि! मेरा जो सनातन धर्म है, वह चार चरणों से युक्त बताया गया है। उन चरणों के नाम हैं – ज्ञान, क्रिया, चर्या और योग। पशु, पाश और पति का ज्ञान ही ज्ञान कहलाता है। गुरु के अधीन जो विधिपूर्वक षडध्वशोधन का कार्य होता है, उसे क्रिया कहते हैं। मेरे द्वारा विहित वर्णाश्रमप्रयुक्त जो मेरे पूजन आदि धर्म हैं, उनके आचरण का नाम चर्या है। मेरे बताये हुए मार्ग से ही मुझमें सुस्थिर भाव से चित्त लगानेवाले साधक के द्वारा जो अन्तःकरण की अन्य वृत्तियों का निरोध किया जाता है उसी को योग कहते हैं। देवि! चित्त को निर्मल एवं प्रसन्न बनाना अश्वमेध यज्ञों के समूह से भी श्रेष्ठ है क्योंकि वह मुक्ति देनेवाला है। विषयभोग की इच्छा रखने वाले लोगों के लिये यह 'मनः प्रसाद' दुर्लभ है। जिसने यम और नियम के द्वारा इन्द्रिय समुदाय पर विजय प्राप्त कर लिया है, उस विरक्त पुरुष के लिये ही योग को सुलभ बताया गया है। योग पूर्व पापों को हर लेनेवाला है। वैराग्य से ज्ञान होता है और ज्ञान से योग। योगज्ञ पुरुष पतित हो तो भी मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

सब प्राणियों पर दया करनी चाहिये। सदा अहिंसा धर्म का पालन सबके लिये उचित है। ज्ञान का संग्रह भी आवश्यक है। सत्य बोलना, चोरी से दूर रहना, ईश्वर और परलोक पर विश्वास रखना, मुझमें श्रद्धा करना, इन्द्रियों को संयम में रखना, वेद-शास्त्रों का पढ़ना-पढाना, यज्ञ करना-कराना, मेरा चिन्तन करना, ईश्वर के प्रति अनुराग रखना और सदा ज्ञानशील होना ब्राह्मण के लिये नितान्त आवश्यक है। जो ब्राह्मण ज्ञानयोग की सिद्धि के लिये सदा इस प्रकार उपर्युक्त धर्मों का पालन करता है, वह शीघ्र ही विज्ञान पाकर योग को भी सिद्ध कर लेता है। प्रिये! ज्ञानी पुरुष ज्ञानाग्नि के द्वारा इस कर्ममय शरीर को क्षणभर में दग्ध करके मेरे प्रसाद से योग का ज्ञाता होकर कर्म-बन्धन से छुटकारा पा जाता है। पुण्य-पापमय जो कर्म है, उसे मोक्ष का प्रतिबन्धक बताया गया है; इसलिये योगी पुरुष योग के द्वारा पुण्यापुण्य का परित्याग कर दे। फल की कामना से प्रेरित होकर कर्म करने से ही मनुष्य बन्धन में पड़ता है, केवल कर्म करने मात्र से नहीं; अतः कर्म के फल को त्याग देना चाहिये। प्रिये! पहले कर्ममय यज्ञ द्वारा बाहर मेरी पूजा करके फिर ज्ञानयोग में तत्पर हो साधक योग का अभ्यास करे। कर्मयज्ञ से मेरे यथार्थ स्वरूप का बोध प्राप्त हो जाने पर जीव योगयुक्त हो मेरे यजन से विरत हो जाते हैं। उस समय वे मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण में भी समभाव रखते हैं। जो मेरा भक्त नित्ययुक्त एवं एकाग्रचित्त हो ज्ञानयोग में तत्पर रहता है, वह मुनियों में श्रेष्ठ एवं योगी होकर मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेता है। जो वर्णाश्रमी पुरुष मन से विरक्त नहीं हैं, वे मेरा आश्रय ले ज्ञान, चर्या और क्रिया – इन तीन में ही प्रवृत्त होने के अधिकारी हैं, उन्हीं के अनुष्ठान की योग्यता रखते हैं। मेरा पूजन दो प्रकार का है – बाह्य और आभ्यन्तर। इसी तरह मन, वाणी और शरीर – इन त्रिविध साधनों के भेद से मेरा भजन तीन प्रकार का माना गया है। तप, कर्म, जप, ध्यान और ज्ञान – ये मेरे भजन के पाँच स्वरूप हैं; अतः साधु पुरुष उसे पाँच प्रकार का भी कहते हैं। मूर्ति आदि में जो मेरा पूजन आदि होता है, जिसे दूसरे लोग जान लेते हैं, वह बाह्य पूजन या भजन कहा गया है तथा वही भजन-पूजन जब मन के द्वारा होने से केवल अपने ही अनुभव का विषय होता है, तब 'आभ्यन्तर' कहलाता है। मुझमें लगा हुआ चित्त ही 'मन' कहलाता है। सामान्यतः मन मात्र को यहाँ मन नहीं कहा गया है। इसी तरह जो वाणी मेरे नाम के जप और कीर्तन में लगी हुई है, वही 'वाणी' कहलाने योग्य है, दूसरी नहीं तथा जो मेरे शास्त्र में बताये हुए त्रिपुण्ड्र आदि चिह्नों से अंकित है और निरन्तर मेरी सेवा-पूजा में लगा हुआ है, वही शरीर 'शरीर' है, दूसरा नहीं। मेरी पूजा को ही 'कर्म' जानना चाहिये। बाहर जो यज्ञ आदि किये जाते हैं, उन्हें 'कर्म' नहीं कहा गया है। मेरे लिये शरीर को सुखाना ही 'तप' है, कृच्छ्र चान्द्रायण आदि का अनुष्ठान नहीं। पंचाक्षरमन्त्र की आवृत्ति, प्रणव का अभ्यास तथा रुद्राध्याय आदि का बारंबार पाठ ही यहाँ 'जप' कहा गया है, वेदाध्ययन आदि नहीं। मेरे स्वरूप का चिन्तन-स्मरण ही 'ध्यान' है। आत्मा आदि के लिये की हुई समाधि नहीं। मेरे आगमों के अर्थ को भलीभाँति जानना ही 'ज्ञान' है, दूसरी किसी वस्तु के अर्थ को समझना नहीं।

देवि! पूर्ववासनावश बाह्य अथवा आभ्यन्तर जिस पूजन में मन का अनुराग हो, उसी में टूढ़ निष्ठा रखनी चाहिये। बाह्य पूजन से आभ्यन्तर पूजन सौ गुना अधिक श्रेष्ठ है; क्योंकि उसमें दोषों का मिश्रण नहीं होगा तथा प्रत्यक्ष दीखनेवाले दोषों की भी वहाँ सम्भावना नहीं रहती है। भीतर की शुद्धि को ही शुद्धि समझनी चाहिये। बाहरी शुद्धि को शुद्धि नहीं कहते हैं। जो आन्तरिक शुद्धि से रहित है, वह बाहर से शुद्ध होने पर भी अशुद्ध ही है। देवि! बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार का भजन भाव (अनुराग) पूर्वक ही होना चाहिये, बिना भाव के नहीं। भावरहित भजन तो एकमात्र विप्रलम्भ (छलना) का ही कारण होता है। मैं तो सदा ही कृतकृत्य एवं पवित्र हूँ, मनुष्य मेरा क्या करेंगे? उनके द्वारा किये गये बाह्य अथवा आभ्यन्तर पूजन में उनका जो भाव (प्रेम) है, उसी को मैं ग्रहण करता हूँ। देवि! क्रिया का एकमात्र आत्मा भाव ही है। वही मेरा सनातन धर्म है। मन, वाणी और कर्म द्वारा कहीं भी किंचिन्मात्र फल की इच्छा न रखकर ही क्रिया करनी चाहिये। देवेश्वरि! फल का उद्देश्य रखने से मेरा आश्रय लघु हो जाता है; क्योंकि फलार्थी को यदि फल न मिला तो वह मुझे छोड़ सकता है। सती साध्वी देवि! फलार्थी होने पर भी जिस साधक का चित्त मुझमें ही प्रतिष्ठित है, उसे उसके भाव के अनुसार फल मैं अवश्य देता हूँ। जिनका मन फल की इच्छा न रखकर ही मुझमें लगा हो, परंतु पीछे वे फल चाहने लगे हों, वे भक्त भी मुझे प्रिय हैं। जो पूर्वसंस्कारवश ही फलाफल की चिन्ता न करके विवश हो मेरी शरण लेते हैं, वे भक्त मुझे अधिक प्रिय हैं। परमेश्वरि! उन भक्तों के लिये मेरी प्राप्ति से बढ़कर दूसरा कोई वास्तविक लाभ नहीं है तथा मेरे लिये भी वैसे भक्तों की प्राप्ति से बढ़कर और कोई लाभ नहीं है। मुझमें समर्पित हुआ उनका भाव मेरे अनुग्रह से ही उनको मानो बलपूर्वक परम निर्वाणरूप फल प्रदान करता है।

जिन्होंने अपने चित्त को मुझे समर्पित कर दिया है, अतएव जो मेरे अनन्यभक्त हैं, वे महात्मा पुरुष ही मेरे धर्म के अधिकारी हैं। उनके आठ लक्षण बताये गये हैं। मेरे भक्तजनों के प्रति स्नेह, मेरी पूजा का अनुमोदन, स्वयं की भी मेरे पूजन में प्रवृत्ति, मेरे लिये ही शारीरिक चेष्टाओं का होना, मेरी कथा सुनने में भक्तिभाव, कथा सुनते समय स्वर, नेत्र और अंगों में विकार का होना, बारंबार मेरी स्मृति और सदा मेरे आश्रित रहकर ही जीवन-निर्वाह करना – ये आठ प्रकार के चिह्न यदि किसी म्लेच्छ में भी हों तो वह विप्रशिरोमणि श्रीमान् मुनि है। वह संन्यासी है और वही पण्डित है। जो मेरा भक्त नहीं है, वह चारों वेदों का विद्वान हो तो भी मुझे प्रिय नहीं है। परंतु जो मेरा भक्त है, वह चाण्डाल हो तो भी प्रिय है। उसे उपहार देना चाहिये, उससे प्रसाद ग्रहण करना चाहिये तथा वह मेरे समान ही पूजनीय है। जो भक्तिभाव से मुझे पत्र, पुष्प, फल अथवा जल समर्पित करता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरी भी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता है।

(अध्याय १०)