वर्णाश्रम-धर्म तथा नारी-धर्म का वर्णन; शिव के भजन, चिन्तन एवं ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन

महादेवजी कहते हैं – देवेश्वारि! अब मैं अधिकारी, विद्वान् एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण-भक्तों के लिये संक्षेप से वर्ण-धर्म का वर्णन करता हूँ। तीनों काल स्नान, अग्निहोत्र, विधिवत् शिवलिंग-पूजन, दान, ईश्वर-प्रेम, सदा और सर्वत्र दया, सत्य-भाषण, संतोष, आस्तिकता, किसी भी जीव की हिंसा न करना, लज्जा, श्रद्धा, अध्ययन, योग, निरन्तर अध्यापन, व्याख्यान, ब्रह्मचर्य, उपदेश-श्रवण, तपस्या, क्षमा, शौच, शिखा-धारण, यज्ञोपवीत-धारण, पगड़ी धारण करना, दुपट्टा लगाना, निषिद्ध वस्तु का सेवन न करना, रुद्राक्ष की माला पहनना, प्रत्येक पर्व में विशेषतः चतुर्दशी को शिव की पूजा करना, ब्रह्मकूर्च* का पान, प्रत्येक मास में ब्रह्मकूर्च से विधिपूर्वक मुझे नहलाकर मेरा विशेष रूप से पूजन करना, सम्पूर्ण क्रियान्न का त्याग, श्राद्धान्न का परित्याग, बासी अन्न तथा विशेषतः यावक (कुल्थी या बोरो धान) का त्याग, मद्य और मद्य की गन्ध का त्याग, शिव को निवेदित (चण्डेश्वर के भाग) नैवेद्य का त्याग – ये सभी वर्णों के सामान्य धर्म हैं। ब्राह्मणों के लिये विशेष धर्म ये हैं – क्षमा, शान्ति, संतोष, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, शिवज्ञान, वैराग्य, भस्म-सेवन और सब प्रकार की आसक्तियों से निवृत्ति – इन दस धर्मों को ब्राह्मणों का विशेष धर्म कहा गया है।

[ * पाराशरस्मृति के ग्यारहवें अध्याय में ब्रह्मकूर्च का वर्णन इस प्रकार है – 'गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुशा का जल – ये पवित्र और पापनाशक 'पंचगव्य' कहे जाते हैं। (कुशोदकमिश्रित पंचगव्य ही ब्रह्मकूर्च कहलाता है।) ब्रह्मकूर्च का विधान करनेवाले को उचित है कि काली गौ का गोमूत्र, सफेद गौ का गोबर, ताँबे के रंग की गौ का दूध, लाल गौ का दही और कपिला गौ का घी अथवा कपिला गौ का ही गोमूत्र आदि पाँचों वस्तु लाये; १ पल गोमूत्र, आधे अँगूठे भर गोबर, ७ पल दूध, ३ पल दही, १ पल घी और १ पल कुशा का जल ग्रहण करे। 'गायत्री' मन्त्र से गोमूत्र, 'गन्ध द्वारा' मन्त्र से गोबर, 'आप्यायस्व' मन्त्र से दूध, 'दधिक्राव्ण' मन्त्र से दही, 'तेजोऽसि शुक्र' मन्त्र से घी और 'देवस्य त्वा' मन्त्र से कुशा का जल ग्रहण करे; इस प्रकार ऋचाओं से पवित्र किये हुए पंचगव्य को अग्नि के पास रखे। 'आपो हि ष्ठा' मन्त्र से गोमूत्र आदि को चलाये, 'मा नस्तोके' मन्त्र से अभिमन्त्रित करे (मथे) 'इरावती', 'इदं विष्णुः', 'मा नस्तोके' और 'शंवती' इन ऋचाओं द्वारा अग्रभाग से युक्त ७ हरित कुशाओं से पंचगव्य का होम करे; होम से बचे हुए पंचगव्य को ओंकार पढ़कर मिलाये, ओंकार उच्चारण करके मथे, ओंकार पढ़कर उठाये और ओंकार उच्चारण करके द्विज पीवे। जैसे अग्नि काठ को जलाता है, वैसे ही ब्रह्मकूर्च मनुष्यों के त्वचों और हाड़ों में टिके हुए पापों को जला देता है। देवताओं से अधिष्ठित होने के कारण ब्रह्मकूर्च तीनों लोकों में पवित्र हुआ है। ॥२९ – ३९॥]

अब योगियों (यतियों) के लक्षण बताये जाते हैं। दिन में भिक्षान्न भोजन उनका विशेष धर्म है। यह वानप्रस्थ आश्रमवालों के लिये भी उनके समान ही अभीष्ट है। इन सबको और ब्रह्मचारियों को भी रात में भोजन नहीं करना चाहिये। पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना – इनका विधान मैंने विशेषतः क्षत्रिय और वैश्य के लिये नहीं किया है। मेरे आश्रय में रहनेवाले राजाओं या क्षत्रियों के लिये थोड़े में धर्म का संग्रह इस प्रकार है। सब वर्णों की रक्षा, युद्ध में शत्रुओं का वध, दुष्ट पक्षियों, मृगों तथा दुराचारी मनुष्यों का दमन करना, सब लोगों पर विश्वास न करना, केवल शिवयोगियों पर ही विश्वास रखना, ऋतुकाल में ही स्त्रीसंसर्ग करना, सेना का संरक्षण, गुप्तचर भेजकर लोक में घटित होनेवाले समाचारों को जानना, सदा अस्त्र धारण करना तथा भस्ममय कंचुक धारण करना। गोरक्षा, वाणिज्य और कृषि – ये वैश्य के धर्म बताये गये हैं। शूद्रेतर वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा शूद्र का धर्म कहा गया है। बाग लगाना, मेरे तीर्थों की यात्रा करना तथा अपनी धर्मपत्नी के साथ ही समागम करना गृहस्थ के लिये विहित धर्म है। वनवासियों, यतियों और ब्रह्मचारियों के लिये ब्रह्मचर्य का पालन मुख्य धर्म है। स्त्रियों के लिये पति की सेवा ही सनातन धर्म है, दूसरा नहीं। कल्याणि! यदि पति की आज्ञा हो तो नारी मेरा पूजन भी कर सकती है। जो स्त्री पति की सेवा छोड़कर व्रत में तत्पर होती है, वह नरक में जाती है। इस विषय में विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

अब मैं विधवा स्त्रियों के सनातन धर्म का वर्णन करूँगा। व्रत, दान, तप, शौच, भूमि-शयन, केवल रात में ही भोजन, सदा ब्रह्मचर्य का पालन, भस्म अथवा जल से स्नान, शान्ति, मौन, क्षमा, विधिपूर्वक सब जीवों को अन्न का वितरण, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा विशेषतः एकादशी को विधिवत् उपवास और मेरा पूजन – ये विधवा स्त्रियों के धर्म हैं। देवि! इस प्रकार मैंने संक्षेप से अपने आश्रम का सेवन करनेवाले ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, संनन्यासियों, ब्रह्मचारियों तथा वानप्रस्थों और गृहस्थों के धर्म का वर्णन किया। साथ ही शूद्रों और नारियों के लिये भी इस सनातन धर्म का उपदेश दिया। देवेश्वरि! तुम्हें सदा मेरा ध्यान और मेरे षडक्षर-मन्त्र का जप करना चाहिये। यही सम्पूर्ण वेदोक्त धर्म है और यही धर्म तथा अर्थ का संग्रह है।

लोक में जो मनुष्य अपनी इच्छा से मेरे विग्रह की सेवा का व्रत धारण किये हुए हैं, पूर्वजन्म की सेवा के संस्कार से युक्त होने के कारण भावातिरेक से सम्पन्न हैं, वे स्त्री आदि विषयों में अनुरक्त हों या विरक्त, पापों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होते, जैसे जल से कमल का पत्ता। मेरे प्रसाद से विशुद्ध हुए उन विवेकी पुरुषों को मेरे स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। फिर उनके लिये कर्तव्याकर्तव्य का विधि-निषेध नहीं रह जाता। समाधि तथा शरणागति भी आवश्यक नहीं रहती। जैसे मेरे लिये कोई विधि-निषेध नहीं है, वैसे ही उनके लिये भी नहीं है। परिपूर्ण होने के कारण जैसे मेरे लिये कुछ साध्य नहीं है, उसी प्रकार उन कृतकृत्य ज्ञानयोगियों के लिये भी कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है। वे मेरे भक्तों के हित के लिये मानवभाव का आश्रय लेकर भूतल पर स्थित हैं। उन्हें रुद्रलोक से परिभ्रष्ट रुद्र ही समझना चाहिये; इसमें संशय नहीं है। जैसे मेरी आज्ञा ब्रह्मा आदि देवताओं को कार्य में प्रवृत्त करने वाली है, उसी प्रकार उन शिवयोगियों की आज्ञा भी अन्य मनुष्यों को कर्तव्यकर्म में लगानेवाली है। वे मेरी आज्ञा के आधार हैं। उनमें अतिशय सद्धाव भी है। इसलिये उनका दर्शन करने मात्र से सब पापों का नाश हो जाता है तथा प्रशस्त फल की प्राप्ति को सृचित करनेवाले विश्वास की भी वृद्धि होती है। जिन पुरुषों का मुझमें अनुराग है, उन्हें उन बातों का भी ज्ञान हो जाता है, जो पहले कभी उनके देखने, सुनने या अनुभव में नहीं आयी होती है। उनमें अकस्मात् कम्प, स्वेद, अश्रुपात, कण्ठ में स्वरविकार तथा आनन्द आदि भावों का बारंबार उदय होने लगता है। ये सब लक्षण उनमें कभी एक-एक करके अलग-अलग प्रकट होते हैं और कभी सम्पूर्ण भावों का एक साथ उदय होने लगता है। कभी विलग न होनेवाले इन मन्द, मध्यम और उत्तम भावों द्वारा उन श्रेष्ठ सत्पुरुषों की पहचान करनी चाहिये।

जैसे जब लोहा आग में तपकर लाल हो जाता है, तब केवल लोहा नहीं रह जाता, उसी तरह मेरा सांनिध्य प्राप्त होने से वे केवल मनुष्य नहीं रह जाते – मेरा स्वरूप हो जाते हैं। हाथ, पैर आदि के साधर्म्य से मानव-शरीर धारण करने पर भी वे वास्तव में रुद्र हैं। उन्हें प्राकृत मनुष्य समझकर विद्वान् पुरुष उनकी अवहेलना न करे। जो मूढ़चित्त मानव उनके प्रति अवहेलना करते हैं, वे अपनी आयु, लक्ष्मी, कुल और शील को त्यागकर नरक में गिरते हैं, अथवा बहुत कहने से कया लाभ? जिस किसी भी उपाय से मुझमें चित्त लगाना कल्याण को प्राप्ति का एकमात्र साधन है।

उपमन्यु कहते हैं – इस प्रकार परमात्मा श्रीकण्ठनाथ शिव ने तीनों लोकों के हित के लिये ज्ञान के सारभूत अर्थ का संग्रह प्रकट किया है। सम्पूर्ण वेदशास्त्र, इतिहास, पुराण और विद्याएँ इस विज्ञान-संग्रह की ही विस्तृत व्याख्याएँ हैं। ज्ञान, ज्ञेय, अनुष्ठेय, अधिकार, साधन और साध्य – इन छः अर्थों का ही यह संक्षिप्त संग्रह बताया गया है। श्रीकृष्ण! जो शिव और शिवा सम्बन्धी ज्ञानामृत से तृप्त है और उनकी भक्ति से सम्पन्न है, उसके लिये बाहर-भीतर कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं है। इसलिये क्रमशः बाह्य और आभ्यन्तर कर्म को त्यागकर ज्ञान से ज्ञेय का साक्षात्कार करके फिर उस साधनभूत ज्ञान को भी त्याग दे। यदि चित्त शिव में एकाग्र नहीं है तो कर्म करने से भी क्या लाभ? और यदि चित्त एकाग्र ही है तो कर्म करने की भी क्या आवश्यकता है? अतः बाहर और भीतर के कर्म करके या न करके जिस-किसी भी उपाय से भगवान् शिव में चित्त लगाये। जिनका चित्त भगवान् शिव में लगा है और जिनकी बुद्धि सुस्थिर है, ऐसे सत्पुरुषों को इहलोक और परलोक में भी सर्वत्र परमानन्द की प्राप्ति होती है। यहाँ 'ॐ नमः शिवाय' इस मन्त्र से सब सिद्धियाँ सुलभ होती हैं; अतः परावर विभूति (उत्तम-मध्यम ऐश्वर्य) की प्राप्ति के लिये इस मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

(अध्याय ११)