पंचाक्षर-मन्त्र के माहात्म्य का वर्णन

श्रीकृष्ण बोले – सर्वज्ञ महर्षिप्रवर! आप सम्पूर्ण ज्ञान के महासागर हैं। अब में आपके मुख से पंचाक्षर-मन्त्र के माहात्म्य का तत्त्वतः वर्णन सुनना चाहता हूँ।

उपमन्यु ने कहा – देवकीनन्दन! पंचाक्षर मन्त्र के माहात्म्य का विस्तारपूर्वक वर्णन तो सौ करोड़ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता; अतः संक्षेप से इसकी महिमा सुनो – वेद में तथा शैवागम में दोनों जगह यह षडक्षर (प्रणव सहित पंचाक्षर) मन्त्र समस्त शिवभक्तों के सम्पूर्ण अर्थ का साधक कहा गया है। इस मन्त्र में अक्षर तो थोड़े ही हैं, परंतु यह महान् अर्थ से सम्पन्न है। यह वेद का सारतत्त्व है। मोक्ष देनेवाला है, शिव की आज्ञा से सिद्ध है, संदेहशून्य है तथा शिवस्वरूप वाक्य है। यह नाना प्रकार की सिद्धियों से युक्त, दिव्य, लोगों के मन को प्रसन्न एवं निर्मल करनेवाला, सुनिश्चित अर्थवाला (अथवा निश्चय ही मनोरथ को पूर्ण करनेवाला) तथा परमेश्वर का गम्भीर वचन है। इस मन्त्र का मुख से सुखपूर्वक उच्चारण होता है। सर्वज्ञ शिव ने सम्पूर्ण देहधारियों के सारे मनोरथों की सिद्धि के लिये इस (ॐ नमः शिवाय' मन्त्र का प्रतिपादन किया है। यह आदि षडक्षर-मन्त्र सम्पूर्ण विद्याओं (मन्त्रों) का बीज (मूल) है। जैसे वट के बीज में महान् वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी इस मन्त्र को महान् अर्थ से परिपूर्ण समझना चाहिये।

'ॐ' इस एकाक्षर-मन्त्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, द्युतिमान्, सर्वव्यापी प्रभु शिव प्रतिष्ठित हैं। ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्षररूप ब्रह्म हैं, वे सब 'नमः शिवाय' इस मन्त्र में क्रमशः स्थित हैं। सूक्ष्म षडक्षर-मन्त्र में पंचब्रह्मरूपधारी साक्षात् भगवान् शिव स्वभावतः वाच्यवाचक भाव से विराजमान हैं। अप्रमेय होने के कारण शिव वाच्य हैं और मन्त्र उनका वाचक माना गया है। शिव और मन्त्र का यह वाच्यवाचक भाव अनादिकाल से चला आ रहा है। जैसे यह घोर संसारसागर अनादिकाल से प्रवृत्त है, उसी प्रकार संसार से छुड़ानेवाले भगवान् शिव भी अनादिकाल से ही नित्य विराजमान हैं। जैसे औषध रोगों का स्वभावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान् शिव संसार-दोषों के स्वाभाविक शत्रु माने गये हैं। यदि ये भगवान् विश्वनाथ न होते तो यह जगत् अन्धकारमय हो जाता; क्योंकि प्रकृति जड है और जीवात्मा अज्ञानी। अतः इन्हें प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं। प्रकृति से लेकर परमाणु पर्यन्त जो कुछ भी जडरूप तत्त्व है, वह किसी बुद्धिमान् (चेतन) कारण के बिना स्वयं 'कर्ता' नहीं देखा गया है। जीवों के लिये धर्म करने और अधर्म से बचने का उपदेश दिया जाता है। उनके बन्धन और मोक्ष भी देखे जाते हैं। अतः विचार करने से सर्वज्ञ परमात्मा शिव के बिना प्राणियों के आदिसर्ग की सिद्धि नहीं होती। जैसे रोगी वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं।

अतः यह सिद्ध हुआ कि जीवों का संसारसागर से उद्धार करनेवाले स्वामी अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव विद्यमान हैं। वे प्रभु आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं। स्वभाव से ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण हैं। उन्हें शिव नाम से जानना चाहिये। शिवागम में उनके स्वरूप का विशदरूप से वर्णन है। यह पंचाक्षर-मन्त्र उनका अभिधान (वाचक) है और वे शिव अभिधेय (वाच्य) हैं। अभिधान और अभिधेय (वाचक और वाच्य) रूप होने के कारण परमशिवस्वरूप यह मन्त्र 'सिद्ध' माना गया है। 'ॐ नमः शिवाय' यह जो षडक्षर शिववाक्य है, इतना ही शिवज्ञान है और इतना ही परमपद है। यह शिव का विधि-वाक्य है, अर्थवाद नहीं है। यह उन्हीं शिव का स्वरूप है जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल है।

जो समस्त लोकों पर अनुग्रह करनेवाले हैं, वे भगवान् शिव झूठी बात कैसे कह सकते हैं? जो सर्वज्ञ हैं, वे तो मन्त्र से जितना फल मिल सकता है, उतना पूरा-का-पूरा बतायेंगे। परंतु जो राग और अज्ञान आदि दोषों से ग्रस्त हैं, वे ही झूठी बात कह सकते हैं। वे राग और अज्ञान आदि दोष ईश्वर में नहीं हैं; अतः ईश्वर कैसे झूठ बोल सकते हैं? जिनका सम्पूर्ण दोषों से कभी परिचय ही नहीं हुआ, उन सर्वज्ञ शिव ने जिस निर्मल वाक्य – पंचाक्षर-मन्त्र का प्रणयन किया है, वह प्रमाणभूत ही है, इसमें संशय नहीं है। इसलिये विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह ईश्वर के वचनों पर श्रद्धा करे। यथार्थ पुण्य-पाप के विषयय में ईश्वर के वचनों पर श्रद्धा न करनेवाला पुरुष नरक में जाता है। शान्त स्वभाववाले श्रेष्ठ मुनियों ने स्वर्ग और मोक्ष की सिद्धि के लिये जो सुन्दर बात कही है, उसे सुभाषित समझना चाहिये। जो वाक्य राग, द्वेष, असत्य, काम, क्रोध और तृष्णा का अनुसरण करनेवाला हो, वह नरक का हेतु होने के कारण दुर्भाषित कहलाता है। अविद्या एवं राग से युक्त वाक्य जन्म-मरणरूप संसार-क्लेश की प्राप्ति में कारण होता है। अतः वह कोमल, ललित अथवा संस्कृत (संस्कारयुक्त) हो तो भी उससे क्या लाभ? जिसे सुनकर कल्याण की प्राप्ति हो तथा राग आदि दोषों का नाश हो जाय, वह वाक्य सुन्दर शब्दावली से युक्त न हो तो भी शोभन तथा समझने योग्य है। मन्त्रों की संख्या बहुत होने पर भी जिस विमल षडक्षर-मन्त्र का निर्माण सर्वज्ञ शिव ने किया है, उसके समान कहीं कोई दूसरा मन्त्र नहीं है।

षडक्षर-मन्त्र में छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं; अतः उसके समान दूसरा कोई मन्त्र कहीं नहीं है। सात करोड़ महामन्त्रों और अनेकानेक उपमन्त्रों से यह षड़क्षर-मन्त्र उसी प्रकार भिन्न है, जैसे वृत्ति से सूत्र। जितने शिवज्ञान हैं और जो-जो विद्यास्थान हैं, वे सब पड़क्षर-मन्त्ररूपी सुत्र के संक्षिप्त भाष्य हैं। जिसके हृदय में 'ॐ नमः शिवाय' यह षड़क्षर-मन्त्र प्रतिष्ठित है, उसे दूसरे बहुसंख्यक मन्त्रों और अनेक विस्तृत शास्त्रों से क्या प्रयोजन है? जिसने 'ॐ नमः शिवाय' इस मन्त्र का जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिया और समस्त शूभ कृत्यों का अनुष्ठान पूरा कर लिया। आदि में 'नमः' पद से यक्त 'शिवाय' – ये तीन अक्षर जिसकी जिह्वा के अग्रभाग में विद्यमान हैं, उसका जीवन सफल हो गया। पंचाक्षर-मन्त्र के जप में लगा हुआ पुरुष यदि पण्डित, मूर्ख, अन्त्यज अथवा अधम भी हों तो वह पापपंजर से मृक्त हो जाता है।

(अध्याय १२)