पंचाक्षर-मन्त्र की महिमा, उसमें समस्त वाङ्मय की स्थिति, उसकी उपदेश परपम्परा, देवीरूपा पंचाक्षरी विद्या का ध्यान, उसके समस्त और व्यस्त अक्षरों के ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा अंगन्यास आदि का विचार

देवी बोलीं – महेश्वर! दुर्जय, दुर्लङ्घय एवं कलुषित कलिकाल में जब सारा संसार धर्म से विमुख हो पापमय अन्धकार से आच्छादित हो जायगा, वर्ण और आश्रम सम्बन्धी आचार नष्ट हो जायँगे, धर्मसंकट उपस्थित हो जायगा, सबका अधिकार संदिग्ध, अनिश्चित और विपरीत हो जायगा, उस समय उपदेश की प्रणाली नष्ट हो जायगी और गुरु-शिष्य की परम्परा भी जाती रहेगी, ऐसी परिस्थिति में आपके भक्त किस उपाय से मुक्त हो सकते हैं?

महादेवजी ने कहा – देवि! कलिकाल के मनुष्य मेरी परम मनोरम पंचाक्षरी विद्या का आश्रय ले भक्ति से भावितचित्त होकर संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। जो अकथनीय और अचिन्तनीय हैं – उन मानसिक, वाचिक और शारीरिक दोषों से जो दूषित, कृतघ्न, निर्दय, छली, लोभी और कुटिलचित्त हैं, वे मनुष्य भी यदि मुझमें मन लगाकर मेरी पंचाक्षरी विद्या का जप करेंगे, उनके लिये वह विद्या ही संसारभय से तारनेवाली होगी। देवि! मैंने बारंबार प्रतिज्ञापू्वक यह बात कही है कि भूतल पर मेरा पतित हुआ भक्त भी इस पंचाक्षरी विद्या के द्वारा बन्धन से मुक्त हो जाता है।

देवी बोलीं – यदि मनुष्य पतित होकर सर्वथा कर्म करने के योग्य न रह जाय तो उसके द्वारा किया गया कर्म नरक की ही प्राप्ति करानेवाला होता है। ऐसी दशा में पतित मानव इस विद्या द्वारा कैसे मुक्त हो सकता है?

महादेवजी ने कहा – सुन्दरि! तुमने यह बहुत ठीक बात पूछी है। अब इसका उत्तर सुनो, पहले मैंने इस विषय को गोपनीय समझकर अब तक प्रकट नहीं किया था। यदि पतित मनुष्य मोहवश (अन्य) मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक मेरा पूजन करे तो वह निःसंदेह नरकगामी हो सकता है। किंतु पंचाक्षर-मन्त्र के लिये ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है। जो केवल जल पीकर और हवा खाकर तप करते हैं तथा दूसरे लोग जो नाना प्रकार के व्रतों द्वारा अपने शरीर को सुखाते हैं, उन्हें इन व्रतों द्वारा मेरे लोक की प्राप्ति नहीं होती। परंतु जो भक्तिपूर्वक पंचाक्षर-मन्त्र से ही एक बार मेरा पूजन कर लेता है, वह भी इस मन्त्र के ही प्रताप से मेरे धाम में पहुँच जाता है। इसलिये तप, यज्ञ, व्रत और नियम पंचारक्षर द्वारा मेरे पूजन की करोड़वीं कला के समान भी नहीं है। कोई बद्ध हो या मुक्त, जो पंचाक्षर-मन्त्र के द्वारा मेरा पूजन करता है, वह अवश्य ही संसारपाश से छुटकारा पा जाता है। देवि! ईशान आदि पाँच ब्रह्म जिसके अंग हैं, उस षडक्षर या पंचाक्षर-मन्त्र के द्वारा जो भक्तिभाव से मेरा पूजन करता है, वह मुक्त हो जाता है। कोई पतित हो या अपतित, वह इस पंचाक्षर-मन्त्र के द्वारा मेरा पूजन करे। मेरा भक्त पंचाक्षर-मन्त्र का उपदेश गुरु से ले चुका हो या नहीं, वह क्रोध को जीतकर इस मन्त्र के द्वारा मेरी पूजा किया करे। जिसने मन्त्र की दीक्षा नहीं ली है, उसकी अपेक्षा दीक्षा लेनेवाला पुरुष कोटि-कोटि गुणा अधिक माना गया है। अतः देवि! दीक्षा लेकर ही इस मन्त्र से मेरा पूजन करना चाहिये। जो इस मन्त्र की दीक्षा लेकर मैत्री, मुदिता (करुणा, उपेक्षा) आदि गुणों से युक्त तथा ब्रह्मचर्यपरायण हो भक्तिभाव से मेरा पूजन करता है, वह मेरी समता प्राप्त कर लेता है। इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ? मेरे पंचाक्षर-मन्त्र में सभी भक्तों का अधिकार है। इसलिये वह श्रेष्ठतर मन्त्र है। पंचाक्षर के प्रभाव से ही लोक, वेद, महर्षि, सनातन धर्म, देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् टिके हुए हैं।

देवि! प्रलयकाल आने पर जब चराचर जगत् नष्ट हो जाता है और सारा प्रपंच प्रकृति में मिलकर वहीं लीन हो जाता है, तब मैं अकेला ही स्थित रहता हूँ, दूसरा कोई कहीं नहीं रहता। उस समय समस्त देवता और शास्त्र पंचाक्षर-मन्त्र में स्थित होते हैं। अतः मेरी शक्ति से पालित होने के कारण वे नष्ट नहीं होते हैं। तदनन्तर मुझसे प्रकृति और पुरुष के भेद से युक्त सृष्टि होती है। तत्पश्चात् त्रिगुणात्मक मूर्तियों का संहार करनेवाला अवान्तर प्रलय होता है। उस प्रलयकाल में भगवान् नारायणदेव मायामय शरीर का आश्रय ले जल के भीतर शेष-शय्या पर शयन करते हैं। उनके नाभि-कमल से पंचमुख ब्रह्माजी का जन्म होता है। ब्रह्माजी तीनों लोकों की सृष्टि करना चाहते थे; किन्तु कोई सहायक न होने से उसे कर नहीं पाते थे। तब उन्होंने पहले अमिततेजस्वी दस महर्षियों की सृष्टि की, जो उनके मानसपुत्र कहे गये हैं। उन पुत्रों की सिद्धि बढ़ाने के लिये पितामह ब्रह्मा ने मुझसे कहा – महादेव! महेश्वर! मेरे पुत्रों को शक्ति प्रदान कीजिये। उनके इस प्रकार प्रार्थना करने पर पाँच मुख धारण करनेवाले मैंने ब्रह्माजी के प्रति प्रत्येक मुख से एक-एक अक्षर के क्रम से पाँच अक्षरों का उपदेश किया। लोकपितामह ब्रह्माजी ने भी अपने पाँच मुखों द्वारा क्रमशः उन पाँचों अक्षरों को ग्रहण किया और वाच्यवाचक-भाव से मुझ महेश्वर को जाना। मन्त्र के प्रयोग को जानकर प्रजापति ने विधिवत् उसे सिद्ध किया। तत्यश्चात् उन्होंने अपने पुत्रों को यथावत् रूप से उस मन्त्र का और उसके अर्थ का भी उपदेश दिया। साक्षात् लोकपितामह ब्रह्मा से उस मन्त्ररत्न को पाकर मेरी आराधना की इच्छा रखने वाले उन मुनियों ने उनकी बतायी हुई पद्धति से उस मन्त्र का जप करते हुए मेरु के रमणीय शिखर पर मुंजवान् पर्वत के निकट एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक तीव्र तपस्या की। वे लोकसृष्टि के लिये अत्यन्त उत्सुक थे। इसलिये वायु पीकर कठोर तपस्या में लग गये। जहाँ उनकी तपस्या चल रही थी, वह श्रीमान् मुंजवान् पर्वत सदा ही मुझे प्रिय है और मेरे भक्तों ने निरन्तर उसकी रक्षा की है।

उन ऋषियों की भक्ति देखकर मैंने तत्काल उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और उन आर्य ऋषियों को पंचाक्षर-मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति, कीलक, षडंगन्यास, टिग्बन्ध और विनियोग – इन सब बातों का पूर्ण रूप से ज्ञान कराया। संसार की सृष्टि बढ़े इसके लिये मैंने उन्हें मन्त्र की सारी विधियाँ बतायीं तब वे उस मन्त्र के माहात्म्य से तपस्या में बहुत बढ़ गये और देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों की सृष्टि का भलीभाँति विस्तार करने लगे।

अब इस उत्तम विद्या पंचाक्षरी के स्वरूप का वर्णन किया जाता है। आदि में 'नमः' पद का प्रयोग करना चाहिये। उसके बाद 'शिवाय' पद का। यही वह पंचाक्षरी विद्या है, जो समस्त श्रुतियों की सिरमौर है तथा सम्पूर्ण शब्द समुदाय की सनातन बीजरूपिणी है। यह विद्या पहले-पहल मेरे मुख से निकली; इसलिये मेरे ही स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली है। इसका एक देवी के रूप में ध्यान करना चाहिये। इस देवी की अंग-कान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है। इसके पीन पयोधर ऊपर को उठे हुए हैं। यह चार भुजाओं और तीन नेत्रों से सुशोभित है। इसके मस्तक पर बालचन्द्रमा का मुकुट है। दो हाथों में पद्म और उत्पल हैं। अन्य दो हाथों में वरद और अभय की मुद्रा है। मुखाकृति सौम्य है। यह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण आभूषणों से विभूषित है। श्वेत कमल के आसन पर विराजमान है। इसके काले-काले घुँघराले केश बड़ी शोभा पा रहे हैं। इसके अंगों में पाँच प्रकार के वर्ण हैं, जिनकी रश्मियाँ प्रकाशित हो रही हैं। वे वर्ण हैं – पीत, कृष्ण, धूम्र, स्वर्णिम तथा रक्त। इन वर्णों का यदि पृथक्-पृथक् प्रयोग हो तो इन्हें विन्दु और नाद से विभूषित करना चाहिये। विन्दु की आकृति अर्द्धचन्द्र के समान है और नाद की आकृति दीपशिखा के समान। सुमुखि! यों तो इस मन्त्र के सभी अक्षर बीजरूप हैं, तथापि उनमें दूसरे अक्षर को इस मन्त्र का बीज समझना चाहिये। दीर्घ-स्वरपूर्वक जो चौथा वर्ण है, उसे कीलक और पाँचवें वर्ण को शक्ति समझना चाहिये। इस मन्त्र के वामदेव ऋषि हैं और पंक्ति छन्द है। वरानने! मैं शिव ही इस मन्त्र का देवता हूँ। वरारोहे गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, अंगिरा और भरद्वाज – ये नकारादि वर्णों के क्रमशः ऋषि माने गये हैं। गायत्री, अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्, बृहती और विराट् – ये क्रमशः पाँचों अक्षरों के छन्द हैं। इन्द्र, रुद्र, विष्णु, ब्रह्म और स्कन्द – ये क्रमशः उन अक्षरों के देवता हैं। वरानने! मेरे पूर्व आदि चारों दिशाओं के तथा ऊपर के – पाँचों मुख इन नकारादि अक्षरों के क्रमशः स्थान हैं। पंचाक्षर-मन्त्र का पहला अक्षर उदात्त है। दूसरा और चौथा भी उदात्त ही है। पाँचवाँ स्वरित है और तीसरा अक्षर अनुदात्त माना गया है। इस पंचाक्षर-मन्त्र के – मूल विद्या शिव, शैव, सूत्र तथा पंचाक्षः नाम जाने। शैव (शिव सम्बन्धी) बीज प्रणव मेरा विशाल हृदय है। नकार सिर कहा गया है, मकार शिखा है, 'शि' कवच है, 'वा' नेत्र है और यकार अस्त्र है। इन वर्णों के अन्त में अंगों के चतुर्थ्यन्तरूप के साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट् जोड़ने से अंगन्यास होता है।

देवि! थोड़े से भेद के साथ यह तुम्हारा भी मूलमन्त्र है। उस पंचाक्षर-मन्त्र में जो पाँचवाँ वर्ण 'य' है, उसे बारहवें स्वर से विभूषित किया जाता है, अर्थात् 'नमः शिवाय' के स्थान में 'नमः शिवाये' कहने से यह देवी का मूलमन्त्र हो जाता है। अतः साधक को चाहिये कि वह इस मन्त्र से मन, वाणी और शरीर के भेद से हम दोनों का पूजन, जप और होम आदि करे। (मन आदि के भेद से यह पूजन तीन प्रकार का होता है – मानसिक, वाचिक और शारीरिक।) देवि! जिसकी जैसी समझ हो, जिसे जितना समय मिल सके, जिसकी जैसी बुद्धि, शक्ति, सम्पत्ति, उत्साह एवं योग्यता और प्रीति हो, उसके अनुसार वह शास्त्रविधि से जब कभी, जहाँ कहीं अथवा जिस किसी भी साधन द्वारा मेरी पूजा कर सकता है। उसकी की हुई वह पूजा उसे अवश्य मोक्ष की प्राप्ति करा देगी। सुन्दरि! मुझमें मन लगाकर जो कुछ क्रम या व्युत्क्रम से किया गया हो, वह कल्याणकारी तथा मुझे प्रिय होता है। तथापि जो मेरे भक्त हैं और कर्म करने में अत्यन्त विवश (असमर्थ) नहीं हो गये हैं, उनके लिये सब शास्त्रों में मैंने ही नियम बनाया है, उस नियम का उन्हें पालन करना चाहिये। अब मैं पहले मन्त्र की दीक्षा लेने का शुभ विधान बता रहा हूँ, जिसके बिना मन्त्र-जप निष्फल होता है और जिसके होने से जप-कर्म अवश्य सफल होता है।

(अध्याय १३)