गुरु से मन्त्र लेने तथा उसके जप करने की विधि, पाँच प्रकार के जप तथा उनकी महिमा, मन्त्रगणना के लिये विभिन्न प्रकार की मालाओं का महत्त्व तथा अंगुलियों के उपयोग का वर्णन, जप के लिये उपयोगी स्थान तथा दिशा, जप में वर्जनीय बातें, सदाचार का महत्त्व, आस्तिकता की प्रशंसा तथा पंचाक्षर-मन्त्र की विशेषता का वर्णन
महादेवजी कहते हैं – वरानने! आज्ञाहीन, क्रियाहीन, श्रद्धाहीन तथा विधि के पालनार्थ आवश्यक दक्षिणा से हीन जो जप किया जाता है, वह सदा निष्फल होता है। मेरा स्वरूपभूत मन्त्र यदि आज्ञासिद्ध, क्रियासिद्ध और श्रद्धासिद्ध होने के साथ ही दक्षिणा से भी युक्त हो तो उसकी सिद्धि होती है और उससे महान् फल प्राप्त होता है। शिष्य को चाहिये कि वह पहले तत्त्ववेत्ता आचार्य, जपशील, सद्गुणसम्पन्न, ध्यानयोग परायण एवं ब्राह्मण गुरु की सेवा में उपस्थित हो, मन में शुद्ध भाव रखते हुए प्रयत्नपूर्वक उन्हें संतुष्ट करे। ब्राह्मण साधक अपने मन, वाणी, शरीर और धन से आचार्य का पूजन करे। वह वैभव हो तो गुरु को भक्तिभाव से हाथी, घोड़े, रथ, रत्न, क्षेत्र और गृह आदि अर्पित करे। जो अपने लिये सिद्धि चाहता हो, वह धन के दान में कृपणता न करे। तदनन्तर सब सामग्रियों सहित अपने-आपको गुरु की सेवा में अर्पित कर दे।
इस प्रकार यथाशक्ति निश्छल भाव से गुरु की विधिवत् पूजा करके गुरु से मन्त्र एवं ज्ञान का उपदेश क्रमशः ग्रहण करे। इस तरह संतुष्ट हुए गुरु अपने पूजक शिष्य को, जो एक वर्ष तक उनकी सेवा में रह चुका हो, गुरु की सेवा में उत्साह रखनेवाला हो, अहंकाररहित हो और उपवासपूर्वक स्नान करके शुद्ध हो गया हो, पुनः विशेष शुद्धि के लिये पूर्ण कलश में रखे हुए पवित्र द्रव्ययुक्त मन्त्रशुद्ध जल से नहलाकर चन्दन, पुष्पमाला, वस्त्र और आभूषणों द्वारा अलंकृत करके उसे सुन्दर वेश-भूषा से विभूषित करे। तत्पश्चात् शिष्य से ब्राह्मणों द्वारा पुण्याहवाचन और ब्राह्मणों की पूजा करवाकर समुद्रतट पर, नदी के किनारे, गोशाला में, देवालय में, किसी भी पवित्र स्थान में अथवा घर में सिद्धिदायक काल आने पर शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र एवं सर्वदोषरहित शुभ योग में गुरु अपने उस शिष्य को अनुग्रहपूर्वक विधि के अनुसार मेरा ज्ञान दे। एकान्त स्थान में अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो उच्चस्वर से हम दोनों के उस उत्तम मन्त्र का शिष्य से भलीभाँति उच्चारण कराये। बारंबार उच्चारण कराकर शिष्य को इस प्रकार आशीर्वाद दे – 'तुम्हारा कल्याण हो, मंगल हो, शोभन हो, प्रिय हो' इस तरह गुरु शिष्य को मन्त्र और आज्ञा प्रदान करे। इस प्रकार गुरु से मन्त्र और आज्ञा पाकर शिष्य एकाग्रचित्त हो संकल्प करके पुरश्चरणपूर्वक प्रतिदिन उस मन्त्र का जप करता रहे। वह जब तक जीये, तब तक अनन्यभाव से तत्परतापूर्वक नित्य एक हजार आठ मन्त्रों का जप किया करे। जो ऐसा करता है वह परम गति को प्राप्त होता है। जो प्रतिदिन संयम से रहकर केवल रात में भोजन करता है और मन्त्र के जितने अक्षर हैं, उतने लाख का चौगुना जप आदरपूर्वक पूरा कर देता है वह 'पौरश्चरणिक' कहलाता है। जो पुरश्चरण करके प्रतिदिन जप करता रहता है, उसके समान इस लोक में दूसरा कोई नहीं है। वह सिद्धिदायक सिद्ध हो जाता है।
साधक को चाहिये कि वह शुद्ध देश में स्नान करके सुन्दर आसन बाँधकर अपने हृदय में तुम्हारे साथ मुझ शिव का और अपने गुरु का चिन्तन करते हुए उत्तर या पूर्व की ओर मुँह किये मौनभाव से बैठे, चित्त को एकाग्र करे तथा दहन-प्लावन आदि के द्वारा पाँचों तत्त्वों का शोधन करके मन्त्र का न्यास आदि करे। इसके बाद सकली-करण की क्रिया सम्पन्न करके प्राण और अपान नियमन करते हुए हम दोनों के स्वरूप का ध्यान करे और विद्यास्थान अपने रूप, ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा मन्त्र के वाच्यार्थरूप मुझ परमेश्वर का स्मरण करके पंचाक्षरी का जप करे। मानस जप उत्तम है, उपांशु जप मध्यम है तथा वाचिक जप उससे निम्न कोटि का माना गया है – ऐसा आगमार्थविशारद विद्वानों का कथन है। जो ऊँचे-नीचे स्वर से युक्त तथा स्पष्ट और अस्पष्ट पदों एवं अक्षरों के साथ मन्त्र का वाणी द्वारा उच्चारण करता है, उसका यह जप 'वाचिक' कहलाता है। जिस जप में केवल जिह्वा मात्र हिलती है अथवा बहुत धीमे स्वर से अक्षरों का उच्चारण होता है तथा जो दूसरों के कान में पड़ने पर भी उन्हें कुछ सुनायी नहीं देता, ऐसे जप को 'उपांशु' कहते हैं। जिस जप में अक्षर-पङ्क्ति का एक वर्ण से दूसरे वर्ण का, एक पद से दूसरे पद का तथा शब्द और अर्थ का मन के द्वारा बारंबार चिन्तन मात्र होता है, वह 'मानस' जप कहलाता है। वाचिक जप एकगुना ही फल देता है, उपांशु जप सौगुना फल देनेवाला बताया जाता है, मानस जप का फल सहस्त्रगुना कहा गया है तथा सगर्भ जप उससे सौगुना अधिक फल देनेवाला है। प्राणायामपूर्वक जो जप होता है, उसे 'सगर्भ' जप कहते हैं। अगर्भ जप में भी आदि और अन्त में प्राणायाम कर लेना श्रेष्ठ बताया गया है। मन्त्रार्थवेत्ता बुद्धिमान् साधक प्राणायाम करते समय चालीस बार मन्त्र का स्मरण कर ले। जो ऐसा करने में असमर्थ हो, वह अपनी शक्ति के अनुसार जितना हो सके, उतने ही मन्त्रों का मानसिक जप कर ले। पाँच, तीन अथवा एक बार अगर्भ या सगर्भ प्राणायाम करे। इन दोनों में सगर्भ प्राणायाम श्रेष्ठ माना गया है। सगर्भ की अपेक्षा भी ध्यान सहित जप सहस्त्रगुना फल देनेवाला कहा जाता है। इन पाँच प्रकार के जपों में से कोई एक जप अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिये।
अंगुली से जप की गणना करना एकगुना बताया गया है। रेखा से गणना करना आठगुना उत्तम समझना चाहिये। पुत्रजीव (जियापोता) के बीजों की माला से गणना करने पर जप का दसगुना अधिक फल होता है। शंख के मनकों से सौगुना, मूँगों से हजारगुना, स्फटिकमणि की माला से दस हजारगुना, मोतियों की माला से लाखगुना, पद्माक्ष से दस लाखगुना और सुवर्ण के बने हुए मनकों से गणना करने पर कोटिगुना अधिक फल बताया गया है। कुश की गाँठ से तथा रुद्राक्ष से गणना करने पर अनन्तगुने फल की प्राप्ति होती है। तीस रुद्राक्ष के दानों से बनायी गयी माला जप-कर्म में धन देने वाली होती है। सत्ताईस दानों की माला पुष्टिदायिनी और पचीस दानों की माला मुक्तिदायिनी होती है, पंद्रह रुद्राक्षों की बनी हुई माला अभिचार कर्म में फलदायक होती है। जपकर्म में अँगूठे को मोक्षदायक समझना चाहिये और तर्जनी को शत्रुनाशक! मध्यमा धन देती है और अनामिका शान्ति प्रदान करती है। एक सौ आठ दानों की माला उत्तमोत्तम मानी गयी है। सौ दानों की माला उत्तम और पचास दानों की माला मध्यम होती है। चौवन दानों की माला मनोहारिणी एवं श्रेष्ठ कही गयी है। इस तरह की माला से जप करे। वह जप किसी को दिखाये नहीं। कनिष्ठि का अंगुलि अक्षरणी (जप के फल को क्षरित – नष्ट न करने वाली) मानी गयी है; इसलिये जपकर्म में शुभ है। दूसरी अंगुलियों के साथ अंगुष्ठ द्वारा जप करना चाहिये; क्योंकि अंगुष्ठ के बिना किया हुआ जप निष्फल होता है।
घर में किये हुए जप को समान या एकगना समझना चाहिये। गोशाला में उसका फल सौगुना हो जाता है, पवित्र वन या उद्यान में किये हुए जप का फल सहस्त्रगुना बताया जाता है। पवित्र पर्वत पर दस हजारगुना, नदी के तट पर लाखगुना, देवालय में कोटिगुना और मेरे निकट किये हुए जप को अनन्तगुना कहा गया है। सूर्य, अग्नि, गुरु, चन्द्रमा, दीपक, जल, ब्राह्मण और गौओं के समीप किया हुआ जप श्रेष्ठ होता है। पूर्वाभिमुख किया हुआ जप वशीकरण में और दक्षिणाभिमुख जप अभिचारकर्म में सफलता प्रदान करनेवाला है। पश्चिमाभिमुख जप को धनदायक जानना चाहिये और उत्तराभिमुख जप शान्तिदायक होता है। सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, देवता तथा अन्य श्रेष्ठ पुरुषों के समीप उनकी ओर पीठ करके जप नहीं करना चाहिये, सिर पर पगड़ी रखकर, कुर्ता पहनकर, नंगा होकर, बाल खोलकर, गले में कपड़ा लपेटकर, अशुद्ध हाथ लेकर, सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर तथा विलापपूर्वक कभी जप नहीं करना चाहिये। जप करते समय क्रोध, मद, छींकना, थूकना, जँभाई लेना तथा कुत्तों और नीच पुरुषों की ओर देखना वर्जित है। यदि कभी वैसा सम्भव हो जाय तो आचमन करे अथवा तुम्हारे साथ मेरा (पार्वती सहित शिव का) स्मरण करे या ग्रह-नक्षत्रों का दर्शन करे अथवा प्राणायाम कर ले।
बिना आसन के बैठकर, सोकर, चलते-चलते अथवा खड़ा होकर जप न करे। गली में या सड़क पर, अपवित्र स्थान में तथा अँधेरे में भी जप न करे। दोनों पाँव फैलाकर, कुक्कुट आसन से बैठकर, सवारी या खाट पर चढ़कर अथवा चिन्ता से व्याकुल होकर जप न करे। यदि शक्ति हो तो इन सब नियमों का पालन करते हुए जप करे और अशक्त पुरुष यथाशक्ति जप करे। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ? संक्षेप ते मेरी यह बात सुनो। सदाचारी मनुष्य शुद्धभाव से जप और ध्यान करके कल्याण का भागी होता है। आचार परम धर्म है, आचार उत्तम धन है, आचार श्रेष्ठ विद्या है और आचार ही परम गति है। आचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है और परलोक में भी सुख नहीं पाता। इसलिये सबको आचारवान् होना चाहिये। वेदज्ञ विद्वानों ने वेद-शास्त्र के कथनानुसार जिस वर्ण के लिये जो कर्म विहित बताया है, उस वर्ण के पुरुष को उसी कर्म का सम्यक् आचरण करना चाहिये। वही उसका सदाचार है, दूसरा नहीं। सत्पुरुषों ने उसका आचरण किया है; इसीलिये वह सदाचार कहलाता है। उस सदाचार का भी मूल कारण आस्तिकता है। यदि मनुष्य आस्तिक हो तो प्रमाद आदि के कारण सदाचार से कभी भ्रष्ट हो जाने पर भी दूषित नहीं होता। अतः सदा आस्तिकता का आश्रय लेना चाहिये। जैसे इहलोक में सत्कर्म करने से सुख और दुष्कर्म करने से दुःख होता है, उसी तरह परलोक में भी होता है – इस विश्वास को आस्तिकता कहते हैं।
सदाचार से हीन, पतित और अन्त्यज का उद्धार करने के लिये कलियुग में पंचाक्षर-मन्त्र से बढ़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है। चलते-फिरते, खड़े होते अथवा स्वेच्छानुसार कर्म करते हुए अपवित्र या पवित्र पुरुष के जप करने पर भी यह मन्त्र निष्फल नहीं होता। अन्त्यज, मूर्ख, मूढ़, पतित, मर्यादारहित और नीच के लिये भी यह मन्त्र निष्फल नहीं होता। किसी भी अवस्था में पड़ा हुआ मनुष्य भी, यदि मुझमें उत्तम भक्तिभाव रखता है, तो उसके लिये यह मन्त्र निःसंदेह सिद्ध होगा ही, किंतु दूसरे किसी के लिये वह सिद्ध नहीं हो सकता। प्रिये! इस मन्त्र के लिये लग्न, तिथि, नक्षत्र, वार और योग आदि का अधिक विचार अपेक्षित नहीं है। यह मन्त्र कभी सुप्त नहीं होता, सदा जाग्रत् ही रहता है। यह महामन्त्र कभी किसी का शत्रु नहीं होता। यह सदा सुसिद्ध, सिद्ध अथवा साध्य ही रहे, सिद्ध गुरु के उपदेश से प्राप्त हुआ मन्त्र सुसिद्ध कहलाता है। असिद्ध गुरु का भी दिया हुआ मन्त्र सिद्ध कहा गया है। जो केवल परम्परा से प्राप्त हुआ है, किसी गुरु के उपदेश से नहीं मिला है, वह मन्त्र साध्य होता है। जो मुझमें, मन्त्र में तथा गुरु में अतिशय श्रद्धा रखनेवाला है, उसको मिला हुआ मन्त्र किसी गुरु के द्वारा साधित हो या असाधित, सिद्ध होकर ही रहता है, इसमें संशय नहीं है। इसलिये अधिकार की दृष्टि से विध्नयुक्त होनेवाले दूसरे मन्त्रों को त्यागकर विद्वान् पुरुष साक्षात् परमा विद्या पंचाक्षरी का आश्रय ले। दूसरे मन्त्रों के सिद्ध हो जाने से ही यह मन्त्र सिद्ध नहीं होता। परंतु इस महामन्त्र के सिद्ध होने पर वे दूसरे मन्त्र अवश्य सिद्ध हो जाते हैं। महेश्वारि! जैसे अन्य देवताओं के प्राप्त होने पर भी मैं नहीं प्राप्त होता; परंतु मेरे प्राप्त होने पर वे सब देवता प्राप्त हो जाते हैं, यही न्याय इन सब मन्त्रों के लिये भी है। सब मन्त्रों के जो दोष हैं, वे इस मन्त्र में सम्भव नहीं हैं; क्योंकि यह मन्त्र जाति आदि की अपेक्षा न रखकर प्रवृत्त होता है। तथापि छोटे-छोटे तुच्छ फलों के लिये सहसा इस मन्त्र का विनियोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह मन्त्र महान् फल देनेवाला है।
उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! इस प्रकार त्रिशूलधारी महादेवजी ने तीनों लोकों के हित के लिये साक्षात् महादेवी पार्वती से इस पंचाक्षर-मन्त्र की विधि कही थी, जो एकाग्रचित्त हो भक्तिभाव से इस प्रसंग को सुनता या सुनाता है, वह सब पापों से मुक्त हो परमगति को प्राप्त होता है।
(अध्याय १४)