शिवपुराण का परिचय

सूतजी कहते हैं – साधू महात्माओ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। आपका यह प्रश्न तीनों लोकों का हित करने वाला है। मैं गरुदेव व्यास का स्मरण करके आप लोगों के स्नेहवश इस विषय का वर्णन करूँगा। आप आदरपूर्वक सुनें। सबसे उत्तम जो शिवपुराण है, वह वेदान्त का सारसर्वस्व है तथा वक्ता और श्रोता का समस्त पापराशियों से उद्धार करने वाला है। इतना ही नहीं, वह परलोक में परमार्थ वस्तु को देने वाला है, कलिकी कल्पषराशि का विनाश करने वाला है। उसमें भगवान् शिव के उत्तम यश का वर्णन है। ब्राह्मणो! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों को देने वाला वह पुराण सदा ही अपने प्रभाव की दृष्टि से वृद्धि या विस्तार को प्राप्त हो रहा है। विप्रवरो! उस सर्वोत्तम शिवपुराण के अध्ययन मात्र से वे कलियुग के पापासक्त जीव श्रेष्ठत्तम गति को प्राप्त हो जायँगे। कलियुग के महान् उत्पात तभी तक जगत् में निर्भय होकर विचरेंगे, जब तक यहाँ शिवपुराण का उदय नहीं होगा। इसे वेद के तुल्य माना गया है। इस वेदकल्प पुराण का सबसे पहले भगवान् शिव ने ही प्रणयन किया था। विद्येश्वरसंहिता, रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता, मातृसंहिता, एकादशरुद्रसंहिता, कैलाससंहिता, शतरुद्रसंहिता, कोटिरुद्रसंहिता, सहस्त्रकोटिरुद्रसंहिता, वायवीयसंहिता तथा धर्मसंहिता – इस प्रकार इस पुराण के बारह भेद या खण्ड हैं। ये बारह संहिताएँ अत्यन्त पुण्यमयी मानी गयी हैं। ब्राह्मणो! अब मैं उनके श्लोकों की संख्या बता रहा हूँ। आप लोग वह सब आदरपूर्वक सुनें। विद्येश्वरसंहिता में दस हजार श्लोक हैं। रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता और मातृसंहिता – इनमें से प्रत्येक में आठ-आठ हजार श्लोक हैं। ब्राह्मणो! एकादशरुद्रसंहिता में छः हजार, शतरुद्रसंहिता में तीन हजार, कोटिरुद्रसंहिता में नौ हजार, सहस्त्रकोटिरुद्रसंहिता में ग्यारह हजार, वायवीयसंहिता में चार हजार तथा धर्मसंहिता में बारह हजार श्लोक हैं। इस प्रकार मूल शिवपुराण की श्लोकसंख्या एक लाख है। परंतु व्यासजी ने उसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है। पुराणों की क्रमसंख्या के विचार से इस शिवपुराण का स्थान चौथा है। इसमें सात संहिताएँ हैं।

पूर्वकाल में भगवान् शिव ने श्लोक-संख्या की दृष्टि से सौ करोड़ श्लोकों का एक ही पुराणग्रन्थ प्रथित किया था। सृष्टि के आदि में निर्मित हुआ वह पुराण-साहित्य अत्यन्त विस्तृत था। फिर द्वापर आदि युगों में द्वैपायन (व्यास) आदि महर्षियो ने जब पुराण का अठारह भागों में विभाजन कर दिया, उस समय सम्पूर्ण पुराणों का संक्षिप्त स्वरूप केवल चार लाख श्लोकों का रह गया। उस समय उन्होंने शिवपुराण का चौबीस हजार श्लोकों की संख्या है। यह वेदतुल्य पुराण सात संहिताओं में बंटा हुआ है। इसकी पहली संहिता का नाम विद्येश्वरसंहिता है, दूसरी रुद्रसंहिता समझनी चाहिये, तीसरी का नाम शतरुद्रसंहिता, चौथी का कोटिरुद्रसंहिता, पाँचवी का उमासंहिता, छठी का कैलाससंहिता और सातवीं का नाम वायवीयसंहिता है। इस प्रकार ये सात संहिताएँ मानी गयी हैं। इन सात संहिताओं से युक्त दिव्य शिवपुराण वेद के और भक्ति से देवताका कृपाप्रसाद प्राप्त होता है – ठीक उसी तरह, जैसे यहाँ अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है। इसलिए तुम सब ब्रह्मर्षि भगवान् शंकर का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये भूतल पर जाकर वहाँ सहस्त्रों वर्षों तक चालु रहने वाले एक विशाल यज्ञ का आयोजन करो। इन यज्ञपति भगवान् शिव की ही कृपा से वेदोक्त विद्या के सारभूत साध्य-साधन का ज्ञान होता है।

शिवपद की प्राप्ति ही साध्य है। उनकी सेवा ही साधन है तथा उनके प्रसाद से जो नित्य-नैमित्तिक आदि फलों की ओर से निःस्पृह होता है, वही साधक है। वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान करके उसके महान् फल को भगवान् शिव के चरणों में समर्पित कर देना ही परमेश्वरपद की प्राप्ति है। वही सालोक्य आदि के क्रम से प्राप्त होने वाली मुक्ति है। उन-उन पुरुषों की भक्ति के अनुसार उन सबको उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है। उस भक्ति के साधन अनेक प्रकार के हैं, जिनका साक्षात् महेश्वर ने ही प्रतिपादन किया है। उनमें से सारभूत साधन को संक्षिप्त करके मैं बता रहा हूँ। कान से भगवान् के नाम-गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन के द्वारा उनका मनन – इन तीनों को महान् साधन कहा गया है। तात्पर्य यह कि महेश्वर का श्रवण, कीर्तन और मनन करना चाहिये – यह श्रुतिका वाक्य हम सबके लिये प्रमाणभुत है। इसी साधन से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि में लगे हुए आप लोग परम साध्य को प्राप्त हों। लोग प्रत्यक्ष वस्तु को आँख से देखकर उसमें प्रवृत्त होते हैं। परंतु जिस वस्तु का कहीं भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता, उसे श्रवणेन्द्रिय द्वारा जान-सुनकर मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिये चेष्टा करता है। अतः पहला साधन श्रवण ही है। उसके द्वारा गुरु के मुख से तत्त्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धिवाला विद्वान् पुरुष अन्य साधन-कीर्तन एवं मनन की सिद्धि करे। क्रमशः मननपर्यन्त इस साधन की अच्छी तरह साधना कर लेने पर उसके द्वारा सालोक्य आदि के क्रम से धीरे-धीरे भगवान् शिव का संयोग प्राप्त होता है। पहले सारे अंगों के रोग नष्ट हो जाते हैं। फिर सब प्रकार का लौकिक आनन्द भी विलीन हो जाता है।

भगवान् शंकर की पूजा, उनके नामों के जप तथा उनके गुण, रूप, विलास और नामों का युक्तिपरायण चित्त के द्वारा जो निरन्तर परिशोधन या चितन होता है, उसी को मनन कहा गया है; वह महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध होता है। उसे समस्त श्रेष्ठ साधनों में प्रधान या प्रभुख कहा गया है।

सूतजी कहते है – मुनीश्वरो! इस साधन का विश्वेश्वर संहिता बताने के प्रसंग में मैं आप लोगों के लिये एक प्राचीन वृतान्त का वर्णन करूँगा, उसे ध्यान देकर आप सुनें। पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेवजी सरस्वती नदी के सुन्दर तट पर तपस्या कर रहे थे। एक दिन सुर्यतुल्य तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान् सनत्कुमार अकस्मात वहाँ जा पहुँचे। उन्होंने तुल्य प्रामाणिक तथा सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करने वाला है। यह निर्मल शिवपुराण भगवान् शिव के द्वारा ही प्रतिपादित है। इसे शैवशिरोमणि भगवान् व्यास ने संक्षेप से संकलित किया है। यह समस्त जिव-समुदाय के लिये उपकारक, त्रिविध तापों का नाश करने वाला, तुलनारहित एवं सत्पुरुषों को कल्याण प्रदान करने वाला है। इसमें वेदान्त-विज्ञानमय, प्रधान तथा निष्कपट (निष्काम) धर्मका प्रतिपादन किया गया है। यह पुराण ईर्ष्यारहित अन्तःकरणवाले विद्वानों के लिये जानने की वस्तु है। इसमें श्रेष्ठ मन्त्र-समूहों का संकलन है तथा धर्म, अर्थ और काम – इस त्रिवर्ग की प्राप्ति के साधन का भी वर्णन है। यह उत्तम शिवपुराण समस्त पुराणों से श्रेष्ठ है। वेद-वेदान्त में वेद्यरूप से विलसित परम वस्तु-परमात्मा का इसमें गान किया गया है। जो बड़े आदर से इसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान् शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है।

(अध्याय २)