मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रों का वर्णन, कालविशेष में विभिन्न नदियों के जल में स्नान के उत्तम फल का निर्देश तथा तीर्थों में पाप से बचे रहने की चेतावनी

सूतजी बोले – विद्वान् एवं बुद्धिमान् महर्षियो! मोक्षदायक शिवक्षेत्रों का वर्णन सुनो। तत्पश्चात् मैं लोकरक्षा के लिये शिव सम्बन्धी आगमों का वर्णन करूँगा। पर्वत, वन और काननों सहित इस पृथ्वी का विस्तार पचास करोड़ योजन है। भगवान् शिव की आज्ञा से पृथ्वी सम्पूर्ण जगत् को धारण करके स्थित है। भगवान् शिव ने भूतल पर विभिन्न स्थानों में वहाँ-वहाँ के निवासियों को कृपापूर्वक मोक्ष देने के लिये शिवक्षेत्र का निर्माण किया है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें देवताओं तथा ऋषियों ने अपना वासस्थान बनाकर अनुगृहित किया है। इसीलिये उनमें तीर्थत्व प्रकट हो गया है तथा अन्य बहुत-से तीर्थ क्षेत्र ऐसे हैं, जो लोकों की रक्षा के लिये स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं। तीर्थ और क्षेत्र में जाने पर मनुष्य को सदा स्नान, दान, और जप आदि करना चाहिये; अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषों का भागी होता है। जो मनुष्य इस भारतवर्ष के भीतर मृत्यु को प्राप्त होता है, वह अपने पुण्य के फल से ब्रह्मलोक में वास करके पुण्यक्षय के पश्चात् पुनः मनुष्य-योनि में ही जन्म लेता है। (पापी मनुष्य पाप करके दुर्गति में ही पड़ता है।) ब्राह्मणो! पुण्यक्षेत्र में पाप कर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है। अतः पुण्यक्षेत्र में निवास करते समय सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अथवा थोड़ा सा भी पाप न करे।

सिन्धु और शतद्रु (सतलज) नदी के तट पर बहुत-से पुण्यक्षेत्र हैं। सरस्वती नदी परम पवित्र और साथ मुखवाली कही गयी है अर्थात् उसकी साठ धाराएँ हैं। विद्वान् पुरुष सरस्वती के उन-उन धाराओं के तट पर निवास करे तो वह क्रमशः ब्रह्मपद को पा लेता है। हिमालय पर्वत से निकली हुई पुण्यसलिला गंगा सौ मुखवाली नदी है, उसके तट पर काशी-प्रयाग आदि अनेक पुण्यक्षेत्र हैं। वहाँ मकरराशि के सूर्य होने पर गंगा की तटभूमि पहले से भी अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है। शोणभद्र नदी की दस धाराएँ हैं, वह बृहस्पति के मकरराशि में आने पर अत्यन्त पवित्र तथा अभीष्ट फल देने वाला हो जाता है। उस समय वहाँ स्नान और उपवास करने से विनायकपद की प्राप्ति होती है। पुण्यसलिला महानदी नर्मदा के चौबीस मुख (स्त्रोत) हैं। उसमें स्नान तथा उसके तट पर निवास करने से मनुष्य को वैष्णवपद की प्राप्ति होती है। तमसा के बारह तथा रेवा के दस मुख हैं। परम पुण्यमयी गोदावरी के इक्कीस मुख बताये गये हैं। वह ब्रह्महत्या तथा गोवध के पाप का भी नाश करने वाली एवं रुद्रलोक देने वाली है। कृष्णावेणी नदी का जल बड़ा पवित्र है। वह नदी समस्त पापों का नाश करने वाली है। उसके अठाराह मुख बताये गये हैं तथा वह विष्णुलोक प्रदान करने वाली है। तुंगभद्रा के दस मुख हैं। वह ब्रह्मलोक देने वाली हैं। पुण्यसलिला सुवर्ण-मुखरी के नौ मुख कहे गये हैं। ब्रह्मलोक से लौटे हुए जीव उसी के तट पर जन्म लेते हैं। सरस्वती नदी, पम्पासरोवर, कन्याकुमारी अंतरीम तथा शुभकारक श्वेत नदी – ये सभी पुण्यक्षेत्र हैं। इनके तट पर निवास करने से इन्द्रलोक की प्राप्ति होती है। सह्य पर्वत से निकली हुई महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है। उसके सत्ताईस मुख बताये गये हैं। वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली है। उसके तट स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाले तथा ब्रह्मा और विष्णु का पद देने वाले हैं। कावेरी के जो तट शैवक्षेत्र के अन्तर्गत हैं, वे अभीष्ट फल देने के साथ ही शिवलोक प्रदान करने वाले भी हैं।

नैमिषारण्य तथा बद्रिकाश्रम में सूर्य और बृहस्पति के मेषराशि में आने पर यदि स्नान करे तो उस समय वहाँ किये हुए स्नान पूजन आदि को ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने वाला जानना चाहिये। सिंह और कर्कराशि में सूर्य की संक्राति होने पर सिन्धु नदी में किया हुआ स्नान तथा केदार तीर्थ के जल का पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना गया है। जब बृहस्पति सिंहराशि में स्थित हों, उस समय सिंह की संक्राति से युक्त भाद्रपदमास में यदि गोदावरी के जल में स्नान किया जाय तो वह शिवलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है, ऐसा पूर्वकाल में स्वयं भगवान् शिव ने कहा था। जब सूर्य और बृहस्पति कन्याराशि में स्थित हों, तब यमुना और शौंणभद्र में स्नान करे। वह स्नान धर्मराज तथा गणेशजी के लोक में महान् भोग प्रदान कराने वाला होता है, यह महर्षियो की मान्यता है। जब सूर्य और बृहस्पति तुलाराशि में स्थित हों, उस समय कावेरी नदी में स्नान करे। वह स्नान भगवान् विष्णु के वचन की महिमा से सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला माना गया है। जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिक राशि पर आ जायँ, तब मार्गशीर्ष (अगहन) के महीने में नर्मदा में स्नान करने से श्रीविष्णु लोक की प्राप्ति हो सकती है। सूर्य और बृहस्पति के धनराशी में स्थित होने पर सुवर्ण मुखरी नदी में किया हुआ स्नान शिवलोक प्रदान करने वाला होता है, जैसा कि ब्रह्माजी का वचन है। जब सूर्य और बृहस्पति मकरराशि में स्थित हों, उस समय माघमास में गंगाजी के जल में स्नान करना चाहिये। ब्रह्माजी का कथन है कि वह स्नान शिवलोक की प्राप्ति करने वाला होता है। शिवलोक के पश्चात् ब्रह्मा और विष्णु के स्थानों में सुख भोग्ने पर अन्त में मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। माघमास में तथा सूर्य के कुम्भराशि में स्थित होने पर फाल्गुन मास में गंगाजी के तट पर किया हुआ श्राद्ध, पिंड दान अथवा तिलोदक-दान पिता और नाना दोनों कुलों के पितरों की अनेकों पीढ़ियों का उद्धार करने वाला माना गया है। सूर्य और बृहस्पति जब मीनराशि में स्थित हों, तब कृष्णवेणी नदी में किये गये स्नान की ऋषियों ने प्रशंसा की है। उन-उन महीनों में पूर्वोक्त तीर्थों में किया हुआ स्नान इंद्रपद की प्राप्ति कराने वाला होता है। विद्वान् पुरुष गंगा अथवा कावेरी नदी का आश्रय लेकर तीर्थवास करे। ऐसा करने से तत्काल किये हुए पाप का निश्चय ही नाश हो जाता है।

रुद्रलोक प्रदान करने वाले बहुत-से क्षेत्र हैं। ताम्रपर्णी और वेगवती – ये दोनों नदियाँ ब्रह्मलोक की प्राप्तिरूप फल देने वाली हैं। इन दोनों के तट पर कितने ही स्वर्गदायक क्षेत्र हैं। इन दोनों के मध्य में बहुत-से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं। वहाँ निवास करने वाला विद्वान् पुरुष वैसे फल का भागी होता है। सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावना के साथ मन में दया भाव रखते हुए विद्वान् पुरुष को तीर्थ में निवास करना चाहिये। अन्यथा उसका फल नहीं मिलता। पुण्यक्षेत्र में किया हुआ थोड़ा-सा पुण्य भी अनेक प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है। तथा वहाँ किया हुआ छोटा-सा पाप भी महान् हो जाता है। यदि पुण्यक्षेत्र में रहकर ही जीवन बिताने का निश्चय हो तो उस पुण्यसंकल्प से उसका पहले का सारा पाप तत्काल नष्ट हो जायगा; क्योंकि पुण्य को ऐश्चर्यदायक कहा गया है। ब्राह्मणो! तीर्थवासजनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापों का नाश कर देता है। तीर्थ में किया हुआ मानसिक पाप वज्रलेप हो जाता है। वह कई कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ता है।*

[पुण्यक्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति। पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं महद्न्यपि जायते।।

तत्कालं जीवनार्थचेत पुण्येन श्रयमेष्यति। पुण्यगैश्वर्यः प्राहुः कायिकं याचिकं तथा।।

मानसं च तथा पापं तादृशं नाश्येद द्विजाः। मानसं वज्रलेपं तुल्यकल्पकल्पानुगं तथा।। (शिवपुराण, विद्येश्वर संहिता १३ / ३६-३८)]

वैसा पाप केवल ध्यान से ही नष्ट होता है, अन्यथा नहीं। वाचिक पाप जप से तथा कायिक पाप शरीर को सुखाने-जैसे कठोर तप से नष्ट होता है; अतः सुख चाहने वाले पुरुष को देवताओं की पूजा करते और ब्राह्मणो को दान देते हुए पाप से बचकर ही तीर्थ में निवास करना चाहिये।

(अध्याय १२)