सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, संध्यावन्दन, प्रणव-जप, गायत्री-जप, दान, न्यायतः धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदि की विधि एवं महिमा का वर्णन

ऋषियों ने कहा – सूतजी! अब आप शीघ्र ही हमें वह सदाचार सुनाइये, जिससे विद्वान् पुरुष पुण्यलोकों पर विजय पाता है। स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्ममय आचार तथा नरक का कष्ट देने वाले अधर्ममय आचारों का भी वर्णन कीजिये।

सूतजी बोले – सदाचार का पालन करने वाला विद्वान् ब्राह्मण ही वास्तव में 'ब्राह्मण' नाम धारण करने का अधिकारी है। जो केवल वेदोक्त आचार का पालन करने वाला एवं वेद का अभ्यासी है, उस बाह्मण की 'विप्र' संज्ञा होती है। सदाचार, वेदाचार तथा विद्या – इनमें से एक-एक गुण से ही युक्त होने पर उसे 'द्धिज' कहते हैं। जिसमें स्वरूपमात्रा से ही आचार का पालन देखा जाता है, जिसने वेदाध्ययन भी बहुत कम किया है तथा जो राजा का सेवक (पुरोहित, मंत्री आदि) है, उसे 'क्षत्रिय-ब्राह्मण' कहते हैं। जो ब्राह्मण कृषि तथा वाणिज्य कर्म करने वाला है और कुछ-कुछ ब्राह्मणोंचित आचार का भी पालन करता है, वह 'वैश्य-ब्राह्मण' है तथा जो स्वयं ही 'खेत जोतता (हल चलाता)' है, उसे 'शुद्र-ब्राह्मण' कहा गया है। जो दूसरों के दोष देखने वाला और परद्रोही है, उसे 'चाण्डाल-द्धिज' कहते हैं। इसी तरह क्षत्रियों में भी जो पृथ्वी का पालन करता है, वह 'राजा' है। दूसरे लोग राजत्वहीन क्षत्रिय माने गये हैं। वैश्योंमें भी जो धान्य आदि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है, वह 'वैश्य' कहलाता है। दूसरों को 'वणिक' कहते हैं। जो ब्राह्मणो, क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा में लगा रहता है, वही वास्तव में 'शुद्र' कहलाता है। जो शुद्र हल जोतने का काम करता है, उसे 'वृषल' समझना चाहिये। सेवा, शिल्प और कर्षण से भिन्न वृत्ति का आश्रय लेने वाले शुद्र 'दस्यु' कहलाते हैं। इन सभी वर्णों के मनुष्यों को चाहिये कि वे ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर पूर्वाभिमुख हो सबसे पहले देवताओं का, फिर धर्म का, अर्थ का, उसकी प्राप्ति के लिये उठाये जाने वाले क्लेशों का तथा आय और व्ययका भी चिन्तन करें।

रात के पिछले पहर को उषःकाल जानना चाहिये। उस अंतिम पहर का जो आधा या मध्य-भाग है, उसे संधि कहते हैं। उस संधिकाल में उठ कर द्धिज को मल-मूत्र आदि का त्याग करना चाहिये। घर से दूर जाकर बाहर से अपने शरिर को ढके रखकर दिन में उत्तराभिमुख बैठ कर मल-मूत्र का त्याग करे। यदि उत्तराभिमुख बैठने में कोई रुकावट हो तो दूसरी दिशाकी ओर मुख करके बैठे। जल, अग्नि, ब्राह्मण आदि तथा देवताओं का सामना बचाकर बैठे। मलत्याग करके उठने पर फिर उस मल को न देखे। तदनन्तर जलाशय से बाहर निकाले हुए जल से ही गुदाकी शुद्धि करे अथवा देवताओं, पितरों तथा ऋषियों के तीर्थों में उतरे बिना ही प्राप्त हुए जल से शुद्धि करनी चाहिये। गुदामें सात, पाँच या तीन बार मिट्टी लगाकर उसे धोकर शुद्ध करे। लिंग में क्कोड़े के फल के बराबर मिट्टी लेकर लगाये और उसे धो दे। परंतु गुदा में लगाने के लिये एक पसर मिट्टी की आवश्यकता होती है। लिंग और गुदा की शुद्धि के पश्चात् उठ कर अन्यत्र जाय और हाथ—पैरों की शुद्धि करके आठ बार कुल्ला करे। जिस किसी वृक्ष के पत्ते से अथवा उसके पतले काष्ठ से जल के बाहर दतुअन करना चाहिये। उस समय तर्जनी अंगुलिका उपयोग न करे। यह दंतशुद्धि का विधान बताया गया है। तदनन्तर जल सम्बन्धी देवताओं को नमस्कार करके मंत्र पाठ करते हुए जलाशय में स्नान करे। यदि कण्ठ तक या कमर तक पानी में खड़े होने की शक्ति ना हो तो घुटने तक जल में खड़ा हो अपने ऊपर जल छिड़क कर मन्त्रोचारणपूर्वक स्नान-कार्य सम्पन्न करे। विद्वान् पुरुष को चाहिए की वहाँ तीर्थ जल से देवता आदि का भ्रनान्ग-तर्पण भी करे।

इस के बाद धौतवस्त्र लेकर पाँच कच्छ करके उसे धारण करे। साथ ही कोई उत्तरीय भी धारण कर लेः क्योंकि संध्यावन्दन आदि सभी कर्मों में उसकी आवश्यकता होती है। नदी आदि तीर्थों में स्नान करने पर स्नान-सम्बन्धी उतारे हुए वस्त्र को वहाँ न धोये। स्नान के पश्चात् विद्वान् पुरुष भीगे हुए उस वस्त्र को बावङी में, कुएँ के पास अथवा घर आदि में ले जाय और वहाँ पत्थर पर, लकड़ी आदि पर, जल में या स्थल में अच्छी तरह धोकर उस वस्त्र को निचोड़े। द्विजो! वस्त्र को निचोड़ने से जो जल गिरता है, वह एक श्रेणी के पितरों की तृप्ति के लिये होता है। इसके बाद जाबालि उपनिषद् में बताये गये 'अग्रिरिति' मन्त्र से भस्म लेकर उसके द्वारा त्रिपुण्ड्र लगाये।

इस विधि का पालन न किया जाय, इसके पूर्व ही यदि जल में भस्म गिर जाय तो गिराने वाला नरक में जाता है। 'आपो हि ष्ठा' इत्यादि मन्त्र से पाप-शान्ति के लिये सिर पर जल छिड़के तथा 'यस्य क्षयाय' इस मन्त्र को पढ़कर पैर पर जल छिड़के। इसे संधिप्रोक्षण कहते हैं। 'आपो हि ष्ठा' इत्यादि मन्त्र में तीन ऋचाएँ हैं और प्रत्येक ऋचा में गायत्री छंद के तीन-तीन चरण हैं। इन में से प्रथम ऋचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए क्रमशः पैर, मस्तक और हृदय में जल छिड़के। दूसरी ऋचा के तीन चरणों को पढ़कर क्रमशः मस्तक, हृदय और पैर में जल छिड़के तथा तीसरी ऋचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए क्रमशः हृदय, पैर और मस्तक का जल से प्रोक्षण करे। इसे विद्वान् पुरुष 'मन्त्र-स्नान' मानते हैं। किसी अपवित्र वस्तु से किंचित् स्पर्श हो जाने पर, अपना स्वास्थ्य ठीक न रहने पर, राजा और राष्ट्र पर भय उपस्थित होने पर तथा यात्रा काल में जल की उपलब्धि न होने की विवशता आ जाने पर 'मन्त्र-स्नान' करना चाहिए। प्रातःकाल 'सुर्यश्व मा मनुश्व' इत्यादि सुर्यानुवाक से तथा सायं काल 'अग्निश्व मा मन्युश्व' इत्यादि अग्नि-सम्बन्धी अनुयाक से जल का आचमन करके पुनः जल से अपने अंगों का प्रोक्षण करे। मध्याह्न काल में भी 'आपः पुनन्तु' इस मन्त्र से आचमन करके पूर्ववत् प्रोक्षण या मार्जन करना चाहिये।

प्रातःकाल की संध्योपासना में गायत्री-मन्त्र का जप करके तीन बार ऊपर की ओर सूर्यदेव को अर्घ्य देने चाहिये। ब्राह्मणो! मध्याह्न काल में गायत्री-मन्त्र के उच्चारण पूर्वक सूर्य को एक ही अर्घ्य देना चाहिये। फिर सायं काल आने पर पश्चिम की ओर मुख करके बैठ जाय और पृथ्वी पर ही सूर्य के लिये अर्घ्य दे (ऊपर की ओर नहीं)। प्रातःकाल और मध्यान्ह के समय अंजलि में अर्घ्य जल लेकर अँगुलियों की ओर से सूर्य देव के लिए अर्घ्य दे। फिर अँगुलियों के छिद्र से ढलते हुए सूर्य को देखे तथा उनके लिये स्वतः प्रदक्षिणा करके शुद्ध आचमन करे। सायं काल में सूर्यास्त से दो घड़ी पहले की हुई संध्या निष्फल होती है; क्योंकि वह सायं संध्या का समय नहीं है। ठीक समय पर संध्या करनी चाहिये, ऐसी शास्त्र की आज्ञा है। यदि संध्यापासना किये बिना दिन बीत जाय तो प्रत्येक समय के लिये क्रमशः प्रायश्चित करना चाहिये। यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए संध्या काल के लिये नित्य-नियम के अतिरिक्त सौ गायत्री-मन्त्र का अधिक जप करे। यदि नित्य कर्म के लुप्त हुए दस दिन से अधिक बीत जाय तो उसके प्रायश्चित रूप में एक लाख गायत्री का जप करना चाहिये। यदि एक मास तक नित्य कर्म छुट जाय तो पुनः अपना उपनयन संस्कार कराये।

अर्थसिद्धि के लिये ईश, गौरी, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, चन्द्रमा और यमका तथा ऐसे ही अन्य देवताओं का भी शुद्ध जल से तर्पण करे। फिर तर्पण कर्म को ब्रह्मार्पण करके शुद्ध आचमन करे। तीर्थ के दक्षिण प्रशस्त मठ में, मंत्रालय में, देवालय में, घर में अथवा अन्य किसी नियत स्थान में आसन पर स्थिरतापूर्वक बैठ कर विद्वान् पुरुष अपनी बुद्धि को स्थिर करे और सम्पूर्ण देवताओं को नमस्कार करके पहले प्रणव का जप करने के पश्चात् गायत्री-मन्त्र की आवृत्ति करे। प्रणव के 'अ, उ, और म्' इन तीनों अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है – इस बात को जानकर प्रणव (ॐ) का जप करना चाहिये। जप काल में यह भावना करनी चाहिये कि 'हम तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु तथा संहार करने वाले रुद्र की – जो स्वयं प्रकाश चिन्मय हैं – उपासना करते हैं। यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की वृत्त्तियों को, मन की वृत्तियों को तथा बुद्धिवृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करे।' प्रणव के इस अर्थ का बुद्धि के द्वारा चिन्तन करता हुआ जो इसका जप करता है, वह निश्चय ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। अथवा अर्थानुसंधान के बिना भी प्रणव का नित्य जप करना चाहिये। इससे 'ब्राह्मणत्त्व की पूर्ति' होती है। ब्राह्मणत्त्व की पूर्ति के लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रातःकाल एक सहस्त्र गायत्री-मन्त्र का जप करना चाहिये। मध्याह्न काल में सौ बार और सायं काल में अठ्ठाईस बार जप की विधि है। अन्य वर्ण के लोगों को अर्थात् क्षत्रिय और वैश्य को तीनों संध्याओं के समय यथासाध्य गायत्री-जप करना चाहिये।

शरीर के भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, आज्ञा और सहस्त्रार – ये छः चक्र हैं। इन में मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक छहों स्थानों में क्रमशः विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं। इन सब में ब्रह्मबुद्धि करके इनकी एकता का निश्चय करे और 'वह ब्रह्म मैं हूँ' ऐसी भावनापूर्वक प्रत्येक श्वास के साथ 'सोहम्' का जप करे। उन्हीं विद्येश्वर आदि की ब्रह्मरन्ध्र आदि में तथा इस शरीर से बाहर भी भावना करे। प्रकृति के विकारभुत महत्तत्त्व से लेकर पंचभूतपर्यन्त तत्त्वों से बना हुआ जो शरीर है, ऐसे सहस्त्रों शरीरों का एक-एक अजपा गायत्री के जप से एक-एक के क्रम से अतिक्रमण करके जीव को धीरे-धीरे परमात्मा से संयुक्त करे। यह जप का तत्त्व बताया गया है। सौ अथवा अठ्ठाईस मन्त्रों के जप से उतने ही शरीरों का अतिक्रमण होता है। इस प्रकार जो मन्त्रों का जप है, इसी को आदिक्रम से वास्तविक जप जानना चाहिये। सहस्त्र बार किया हुआ जप ब्रह्मलोक प्रदान करने वाला होता है, ऐसा जानना चाहिये। सौ बार किया हुआ जप इन्द्रपद की प्राप्ति कराने वाला माना गया है। ब्राहाणोतर पुरुष आत्मरक्षा के लिए जो स्वल्पमात्रा में जप करता है, वह ब्राहाण के कुल में जन्म है। प्रतिदिन सूर्योपस्थान करके उपर्युक्त रूप से जप का अनुष्ठान करना चाहिए। बारह लाख गायत्री का जप करने वाला पुरुष पूर्ण रूप से 'ब्राहाण' कहा गया है। जिस ब्राहाण ने एक लाख गायत्री का भी जप न किया हो, उसे वैदिक कार्य में न लगाये। सत्तर वर्ष की अवस्था तक नियम पालनपूर्वक कार्य करे। इसके बाद गृह त्याग कर संन्यास ले ले। परिवाजक या संन्यासी पुरुष नित्य प्रातःकाल बारह हज़ार प्रणव का जप करे। यदि एक दिन इस नियम का उलंघन हो जाय तो दूसरे दिन उसके बदले में उतना मन्त्र और अधिक जपना चाहिए और सदा इस प्रकार जप को चलाने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि क्रमशः एक मास आदि का उलंघन हो गया तो डेढ़ लाख जप करके उसका प्रायश्चित करना चाहिए। इससे अधिक समय तक नियम का उलंघन हो जाय तो पुनः नये सिरे से गुरु से नियम ग्रहण करे। ऐसा करने से दोषों की शान्ति होती है, अन्यथा वह रौरव नरक में जाता है। जो सकाम भावना से युक्त गृहस्थ ब्राह्मण है, उसी को धर्म तथा अर्थ के लिये यत्न करना चाहिए। मुमुक्षु ब्राह्मण को तो सदा ज्ञान का ही अभ्यास करना चाहिये। धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है, अर्थ से भोग सुलभ होता है। फिर उस भोग से वैराग्य की सम्भावना होती है। धर्मपूर्वक उपार्जित धन से जो भोग प्राप्त होता है, उससे एक दिन अवश्य वैराग्य का उदय होता है। धर्म के विपरीत अधर्म से व्यार्जित हुए धन के द्वारा जो भोग प्राप्त होता है, उससे भोगों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धर्म से धन पाता है, तपस्या से उसे दिव्य लग्न की प्राप्ति होती है। कामनाओं का त्याग करने वाले पुरुष के अन्तःकरण की शुद्धि होती है। उस शुद्धि से ज्ञान का उदय होता है, इसमें संशय नहीं है।

सत्ययुग आदि में तप को ही प्रशस्त कहा गया है, किंतु कलियुग में द्रव्यसाध्य धर्म (दान आदि) अच्छा माना गया है। सत्य युग में व्यान से, त्रेता में तपस्या से और द्वापर में यज्ञ करने से, ज्ञान की सिद्धि होती है; परंतु कलियुग में प्रतिमा (भगवदि्प्रह) की पूजा से ज्ञानलाभ होता है। अधर्म हिंसा (दुःख) रूप है और धर्म सुख रूप है। अधर्म से मनुष्य दुःख पाता है और धर्म से वह सुख एवं अभ्युदय का भागी होता है। दुराचार से दुःख प्राप्त होता है और सदाचार से सुख (अतः भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये धर्म का उपार्जन करना चाहिये)। जिस के घर में कम-से-कम चार मनुष्य हैं, ऐसे कुटुम्बी ब्राह्मण को जो सौ वर्ष के लिये जीविका (जीवन-निर्वाह की सामग्री) देता है, उसके लिये वह दान ब्रह्मलोक की प्राप्ति करने वाला होता है। एक सहस्त्र चान्द्रायण व्रत का अनुष्ठान ब्रह्मलोकदायक माना गया है। जो क्षत्रिय एक सहस्त्र कुटुंब को जीविका और आवास देता है, उसका वह कर्म इन्द्रलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है। दस हजार कुटुबों को दिया हुआ आश्रय दान ब्रह्मलोक प्रदान करता है। दाता पुरुष जिस देवता को सामने रखकर दान करता है अर्थात वह दान के द्वारा जिस देवता को प्रसन्न करना चाहता है, उसी का लोक उसे प्राप्त होता है - यह बात वेदवेक्ता पुरुष अच्छी तरह जानते हैं। धनहीन पुरुष सदा तपस्या का उपार्जन करे; क्योंकि तपस्या और तीर्थ सेवन से अक्षय सूख पाकर मनुष्य उसका उपभोग करता है।

अब मैं न्यायतः धन के उपार्जन की विधि बता रहा हूँ। ब्राह्मण को चाहिए कि वह सदा सावधान रहकर विशुद्ध प्रतिग्रह (दान-ग्रहण) तथा याजन (यज्ञ कराने) आदि से धन का अर्जन करे। वह इसके लिये कहीं दीनता न दिखाये और न अत्यन्त क्लेशदायक कर्म ही करे। क्षत्रिय बाहुबल से धन का उपार्जन करे और वैश्य कृषि एंव दोरक्षा से। न्यायोपार्जित धन का दान करने से दाता को ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है। ज्ञानसिद्धि द्वारा सब पुरुषों को गुरुकृपा- मोक्षसिद्धि सुलभ होती है। मोक्ष से स्वरूप की सिद्धि (ब्रह्मरूप से स्थिति) प्राप्त होती है, जिससे मुक्त पुरुष परमानन्द का अनुभव करता है। गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि वह धन-धान्यादि सब वस्तुओं का दान करे। वह तृषा-निवृत्ति के लिये जल तथा क्षुधारुपी रोग की शान्ति के लिये सदा अन्न का दान करे। खेत, धान्य, कच्चा अन्न तथा भक्ष्य, भोज्य, लेहा और चोप्य – ये चार प्रकार के सिद्ध अन्न दान करने चाहिये। जिसके अन्न को खाकर मनुष्य जब तक कथा-श्रवण आदि सद्धर्म का पालन करता है, उतने समय तक उसके किये पुण्य फल का आधा भाग दाता को मिल जाता है – उसमे संशय नहीं है। दान लेने वाला पुरुष दान में प्राप्त हुई वस्तु का दान तथा तपस्या करके अपने प्रति-प्रहजनित पाप की शुद्धि कर ले। अन्यथा उसे रौरव नरक में गिरना पड़ता है। अपने धन के तीन भाग करे – एक भाग धर्म के लिये, दूसरा भाग वृद्धि के लिये तथा तीसरा भाग अपने उपभोग के लिये। नित्य, नौमित्तिक और काम्य – ये तीनों प्रकार के कर्म धर्मार्थ रखे हुए धन से करे। साधक को चाहिये कि वह वृद्धि के लिये रखे हुए धन से ऐसा व्यापार करे, जिससे उस धन की वृद्धि हो तथा उपभोग के लिये रक्षित धन से हितकारक, परिमित एवं पवित्र भोग भोगे। खेती से पैदा किये हुए धन का दसवाँ अंश दान कर दे। इस से पाप की शुद्धि होती है। शेष धन से धर्म, बुद्धि एवं उपभोग करे; अन्यथा वह रौरव नरक में पड़ता है अथवा उसकी बुद्धि पाप पूर्ण हो जाती है, या खेती ही चौपट हो जाती है। वृद्धि के लिये किये गये व्यापार में प्राप्त हुए धन का छठा भाग दान करे देने योग्य है। बुद्धिमान् पुरुष अवश्य उसका दान कर दे।

विद्वान् को चाहिये कि वह दूसरों के दोषों का बखान न करे। ब्राह्मणो! दोषवश दूसरों के सुने या देखे हुए छिद्र को भी प्रकट न करे। विद्वान् पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियों के हृदय में रोम पैदा करने वाली हो। ऐश्वर्य की सिद्धि के लिये दोनों संध्याओं के समय अग्निहोत्र कर्म अवश्य करे। जो दोनों समय अग्निहोत्र करने में असमर्थ हो, वह एक ही समय सूर्य और अग्नि को विधिपूर्वक दी हुई आहुति से संतुष्ट करे। चावल, धान्य, घी, फल, कंद तथा हविष्य – इनके द्वारा विधिपूर्वक स्थालीपाक बनाये तथा यथोचित रीति से सूर्य और अग्नि को अर्पित करे। यदि हविष्य का अभाव हो तो प्रधान होम मात्र करे। सदा सुरक्षित रहने वाली अग्नि को विद्वान् पुरुष अजस्त्र की संज्ञा देते हैं। अथवा संध्या काल में जप मात्र या सूर्य की वन्दना मात्र कर ले। आत्मज्ञान की इच्छा वाले तथा धनार्थी पुरुषों को भी इस प्रकार विधिवत उपासना करनी चाहिये। जो सदा ब्रह्मयज्ञ में तत्पर होते हैं, देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं, नित्य अग्निपूजा एवं गुरुपूजा में अनुरक्त होते हैं, तथा ब्राह्मणो को तृप्त किया करते हैं, वे सब लोग स्वर्गलोक के भागी होते हैं।

(अध्याय १३)