अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदि का वर्णन, भगवान् शिव के द्वारा सातों वारों का निर्माण तथा उन में देवाराधन से विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति का कथन
ऋषियों ने कहा – प्रभो! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्ति का हमारे समक्ष क्रमशः वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले – महर्षियो! गृहस्थ पुरुष अग्नि में सायं काल और प्रातःकाल जो चावल आदि द्रव्य की आहुति देता है, उसी को अग्नियज्ञ कहते हैं। जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियों के लिये समिधा का आधान ही अग्नियज्ञ है। वे समिधा का ही अग्नि में हवन करें। ब्राह्मणो! ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करने वाले द्विजों का जब तक विवाह न हो जाय और वे ओपासनाग्नि की प्रतिष्ठा न कर लें, तब तक उनके लिये अग्नि में समिधा की आहुति, व्रत आदि का पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य है (यही उनके लिये अग्नियज्ञ है)। द्विजो! जिन्होंने बाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपने आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिये यही हवन या अग्नियज्ञ है कि ये विहित समय पर हितकर, परिमित और पवित्र अन्न का भोजन कर लें। ब्राह्मणो! सायं काल अग्नि के लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करने वाली होती है, ऐसा जानना चाहिये और प्रातःकाल सूर्यदेव को दी हुई, आहुति आयु की वृद्धि करने वाली होती है, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये। दिन में अग्नि देव सुर्य में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। अतः प्रातःकाल सूर्य को दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञ के ही अन्तर्गत है। इस प्रकार यह अग्नियज्ञ का वर्णन किया गया।
इन्द्र आदि समस्त देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में जो आहुति दी जाती है, उसे देवयज्ञ समझना चाहिये। स्थालीपाक आदि यज्ञों को देवयज्ञ ही मानना चाहिये। लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो चूड़ाकरण आदि संस्कार-निमित्तक हवन-कर्म है, उन्हें भी देवयज्ञ के ही अन्तर्गत जानना चाहिये। अब ब्रह्मयज्ञ का वर्णन सुनो। द्धिज को चाहिये कि वह देवताओं की तृप्ति के लिये निरन्तर ब्रह्मयज्ञ करे। वेदों का जो नित्य अध्ययन या स्वाध्याय होता है, उसी को ब्रह्मयज्ञ कहा गया है, प्रातः नित्यकर्म के अनन्तर सायंकालतक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता है। उसके बाद रात में इस का विधान नहीं है।
अग्नि के बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता है, इसे तुम लोग श्रद्धा से और आदरपूर्वक सुनो। सृष्टि के आरम्भमें सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेवजी ने समस्त लोकों के उपकार के लिये वारों की कल्पना की। ये भगवान् शिव संसार रूपी रोग को दूर करने के लिये वैद्य हैं। सब के ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं। उन भगवान् ने पहले अपने वार की कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करने वाला है। तत्पश्चात् अपनी माया शक्ति का वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करने वाला है। जन्म काल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिये उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की। तत्पश्चात् सर्वसमर्थ महादेव जी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान् विष्णु का वार बनाया। इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिये आयुःकर्ता त्रिलोकस्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत् के आयुष्यकी सिद्धि हो सके। इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिये पहले पुण्य-पाप की रचना हो जाने पर उनके करने वाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिये भगवान् शिव ने इन्द्र और यम के वारों का निर्माण किया। ये दोनों वार क्रमशः भोग देने वाले तथा लोगों के मृत्यूभयक को दूर करने वाले हैं। इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिये सुख-दुःख के सूचक हैं, भगवान् शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया। वे सब-के-सब ग्रह-नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मण्डल में प्रतिष्ठित हैं। शिव के वार या दिन के स्वामी सूर्य हैं। शक्तिसम्बन्धी वार के स्वामी सोम हैं। कुमारसम्बन्धी दिन के अधिपति मंगल हैं। विष्णुवार के स्वामी बुध हैं। ब्रह्माजी वार के अधिपति बृहस्पति हैं। इन्द्र्वार के स्वामी शुक्र और यमवार के स्वामी शनैश्वर हैं। अपने-अपने वार में की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फल को देने वाली होती है।
सूर्य आरोग्य के और चन्द्रमा सम्पत्ति के दाता हैं। मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं। बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं। शुक्र भोग देते हैं और शनैश्वर मृत्यु का निवारण करते हैं। ये सात वारों के क्रमशः फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओं की प्रीति से प्राप्त होते हैं। अन्य देवताओं की भी पूजा का फल देने वाले भगवान् शिव ही हैं। देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पाँच प्रकार की ही पद्धति बनायी गयी। उन-उन देवताओं के मन्त्रों का जप यह पहला प्रकार है। उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है। किसी वेदी पर प्रतिमा में, अग्नि में अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवाँ प्रकार है।
इन में पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं। पूर्व-पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलम्बन करना चाहिये। दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग में और कुष्ठ रोग की शान्ति के लिये भगवान् सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणो को भोजन कराये। तदनन्तर एक दिन, एक मास, एक वर्ष अथवा तीन वर्ष तक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये। इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि रोगों का नाश हो जाता है। इष्टदेव के नाम मंत्रों का जप आदि साधन वार आदि के अनुसार फल देते हैं। रविवार को सूर्यदेव के लिये, अन्य देवताओं के लिये तथा ब्राह्मणो के लिये विशिष्ट वस्तु अर्पित करे। यह साधन विशिष्ट फल देने वाला होता है तथा इसके द्वारा विशेष रूप से पापों की शान्ति होती है। सोमवार को विद्वान् पुरुष सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये लक्ष्मी आदि की पूजा करे तथा सपत्निक ब्राह्मणो को घृतपक्व अन्न का भोजन कराये। मंगलवार को रोगों की शान्ति के लिये काली आदि की पूजा करे तथा उड़द, मूँग एवं अदरक की दाल आदि से युक्त अन्न ब्राह्मणो को भोजन कराये। बुधवार को विद्वान् पुरुष दधियुक्त अन्न से भगवान् विष्णु का पूजन करे। ऐसा करने से सदा पुत्र, मित्र और कलत्र आदि की पुष्ठि होती है। जो दीर्घायु होने की इच्छा रखता हो, वह गुरूवार को देवताओं की पुष्ठी के लिये वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घृतमिश्रित खीर से यजन-पूजन करे। भोगों की प्राप्ति के लिये शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे और ब्राह्मणो की तृप्ति के लिये षडरस युक्त अन्न दे। इसी प्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिये सुन्दर वस्त्र आदि का विधान करे। शनैश्वर अपमृत्यु का निवारण करने वाला है। उस दिन बुद्धिमान् पुरुष रुद्र आदि की पूजा करे। तिल के होम से, दान से देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणो को तिल मिश्रित अन्न भोजन कराये। जो इस तरह देवताओं की पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फल का भागी होगा।
देवताओं के नित्य-पूजन, विशेष-पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण तर्पण आदि में एवं रवि आदि बारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होने पर विभिन्न देवताओं के पूजन में सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान् शिव ही उन-उन देवताओं के रूप में पूजित हो सब लोगों को आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं। देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनके तारतम्य क्रम का ध्यान रखते हुए महादेवजी आराधना करने वाले लोगों को आरोग्य आदि फल देते हैं। शुभ (मांगलिक कर्म) के आरम्भ में और अशुभ (अंत्येष्टि आदि कर्म) के अन्त में तथा जन्म-नक्षत्रों के आने पर गृहस्थ पुरुष अपने घर में आरोग्य आदि की समृद्धि के लिये सूर्य आदि ग्रहों का पूजन करे। इससे सिद्ध है कि देवताओं का यजन सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला है। ब्राह्मणो का देवयजन कर्म वैदिक मन्त्र के साथ होना चाहिए। (यहाँ ब्राह्मण शब्द क्षत्रिय और वैश्य का भी उपलक्षण है।) शुद्र आदि दूसरों का देवयज्ञ तांत्रिक विधि से होना चाहिये। शुभ फल की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सातों ही दिन अपनी शक्ति के अनुसार सदा देवपूजन करना चाहिये। निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदि के कष्ट-सहन) द्वारा और धनी धन के द्वारा देवताओं की आराधना करे। वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता है और बारंबार पुण्य लोकों में नाना प्रकार के फल भोगकर पुनः इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है। धनवान पुरुष सदा भोग सिद्धि के लिये मार्ग में वृक्षादि लगा कर लोगों के लिये छाया की व्यवस्था करे। जलाशय (कुआँ, बावली और पोखरे) बनवाये। वेद-शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिये पाठशाला का निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकार से भी धर्म का संग्रह करता रहे। धनी को यह सब कार्य सदा ही करते रहना चाहिये। समयानुसार पुण्यकर्मो के परिपाक से अन्तःकरण शुद्ध होने पर ज्ञान की सिद्धि हो जाती है। द्विजो! जो इस अध्याय को सुनता, पढ़ता अथवा सुनने की व्यवस्था करता है, उसे देवयज्ञ का फल प्राप्त होता है।
(अध्याय १४)