पृथ्वी आदि से निर्मित देवप्रतिमाओं के पूजन की विधि, उनके लिये नैवेद्य का विचार, पूजन के विभिन्न उपचारों का फल, विशेष मास, वार, तिथि एवं नक्षत्रों के योग में पूजन का विशेष फल तथा लिंग के वैज्ञानिक स्वरूप का विवेचन
ऋषियों ने कहा – साधुशिरोमणे! अब आप पार्थिव प्रतिमा की पुजाका विधान बताइये, जिससे समस्त अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है।
सूतजी बोले – महर्षियो! तुम लोगों ने बहुत उत्तम बात पूछी है। पार्थिव प्रतिमा का पूजन सदा सम्पूर्ण मनोरथों को देने वाला है तथा दुःख का तत्काल निवारण करने वाला है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम लोग उसको ध्यान देकर सुनो। पृथ्वी आदि की बनी हुई देव प्रतिमाओं की पूजा इस भूतल पर अभीष्टदायक मानी गयी है, निश्चय ही इसमें पुरुषों का और स्त्रियों का भी अधिकार है। नदी, पोखरे अथवा कुएँ में प्रवेश करके पानी के भीतर से मिट्टी ले आये। फिर गंध-चूर्ण के द्वारा उसका संशोधन करे और शुद्ध मण्डप में रखकर उसे महीन पीसे और साने। इसके बाद हाथ से प्रतिमा बनाये और दूध से उसका सुन्दर संस्कार करे। उस प्रतिमा में अंग-प्रत्यंग अच्छी तरह प्रकट हुए हों तथा वह सब प्रकार के अस्र-शस्त्रों से सम्पन्न बनायी गयी हो। तदनन्तर उसे पद्मासन पर स्थापित करके आदर-पूर्वक उसका पूजन करे। गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा और शिव की प्रतिमा का, शिव का एवं शिवलिंग का द्धिज को सदा पूजन करना चाहिये। षोडशोपचार-पूजनजनित फल की सिद्धि के लिये सोलह उपचारों द्वारा पूजन करना चाहिये। पुष्प से प्रोक्षण और मन्त्र-पाठपूर्वक अभिषेक करे। अगहनी के चावल से नैवेद्य तैयार करे। सारा नैवेद्य एक कुडव (लगभग पावभर) होना चाहिये। घरमें पार्थिव पूजन के लिये एक कुडव और बाहर किसी मनुष्य द्वारा स्थापित शिवलिंग के पूजन के लिये एक प्रस्थ (सेरभर) नैवेद्य तैयार करना आवश्यक है, ऐसा जानना चाहिये। देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग के लिये तीन सेर नैवेद्य अर्पित करना उचित है और स्वयं प्रकट हुए स्वयम्भू लिंग के लिये पाँच सेर। ऐसा करने पर पूर्ण फलकी प्राप्ति समझनी चाहिये। इस प्रकार सहस्त्र बार पूजा करने से द्धिज सत्यलोक को प्राप्त कर लेता है।
बारह अंगुल चौड़ा, इससे दूना और एक अंगुल अधिक अर्थात् पचीस अंगुल लंबा तथा पन्द्रह अंगुल चौड़ा जो लोहे या लकड़ी का बना हुआ पात्र होता है, उसे विद्वान् पुरुष 'शिव' कहते हैं। उसका आठवां भाग प्रस्थ कहलाता है, जो चार कुडव के बराबर माना गया है। मनुष्य द्वारा स्थापित शिवलिंग के लिये दस प्रस्थ, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग के लिये सौ प्रस्थ और स्वयम्भू शिवलिंग के लिये एक सहस्त्र प्रस्थ नैवेद्य निवेदन किया जाय तथा जल, तेल आदि एवं गंध द्रव्यों की भी यथायोग्य मात्रा रखी जाय तो यह उन शिवलिंगों की महापूजा बतायी जाती है।
देवताका अभिषेक करने से आत्मशुद्धि होती है, गंध से पुण्य की प्राप्ति होती है। नैवेद्य लगाने से आयु बढ़ती और तृप्ति होती है। धुप निवेदन करने से धनकी प्राप्ति होती है। दीप दिखाने से ज्ञान का उदय होता है और ताम्बुल समर्पण करने से भोग की उपलब्धि होती है। इसलिए स्नान आदि छः उपचारों को यत्नपूर्वक आर्पित करे। नमस्कार और जप – ये दोनों सम्पूर्ण अभीष्ट फल को देने वाले हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोगों को पूजा के अन्त में सदा ही जप और नमस्कार करने चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि वह सदा पहले मन से पूजा करके फिर उन-उन उपचारों से करे। देवताओं की पूजा से उन-उन देवताओं के लोकों की प्राप्ति होती है तथा उनके अवांतर लोक में भी यथेष्ट भोगकी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं।
अब मैं देवपूजा से प्राप्त होने वाले विशेष फलों का वर्णन करता हूँ। द्विजो! तुम लोग श्रद्धापूर्वक सुनो। विघ्नराज गणेश की पूजासे भूलोक में उत्तम अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। शुक्रवार को, श्रावण और भाद्रपद मासों के शुक्ल-पक्ष की चतुर्थी को और पौषमास में शतभिषा नक्षत्र के आने पर विधि-पूर्वक गणेशजी की पूजा करनी चाहिये। सौ या सहस्त्र दिनों में सौ या सहस्त्र बार पूजा करे। देवता और अग्नि में श्रद्धा रखते हुए किया जानेवाला उनका नित्य पूजन मनुष्यों को पुत्र एवं अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है। वह समस्त पापों का शमन तथा भिन्न-भिन्न दुष्कर्मों का विनाश करने वाला है। विभिन्न वारों में की हुई शिव आदि की पूजा को आत्मशुद्धि प्रदान करने वाली समझना चाहिये। वार वा दिन, तिथि, नक्षत्र और योगों का आधार है। समस्त कामनाओं को देने वाला है। उसमें वृद्धि और क्षय नहीं होता। इसलिये उसे पूर्ण ब्रह्मस्वरूप मानना चाहिये। सूर्योदयकाल से लेकर सूर्योदयकाल आनेतक एक वार की स्थिति मानी गयी है जो ब्राह्मण आदि सभी वर्णों के कर्मों का आधार है। विहित तिथि के पूर्वभाग में की हुई देवपूजा मनुष्यों को पूर्ण भोग प्रदान करने वाली होती है।
यदि मध्यान्ह के बाद तिथि का आरम्भ होता है तो रात्रियुक्त तिथि का पूर्वभाग पितरों के श्राद्धादि कर्म के लिये उत्तम बताया जाता है। ऐसी तिथिका परभाग ही दिनसे युक्त होता है, अतः वही देवकर्म के लिये प्रशस्त माना गया है। यदि मध्यान्हकालतक तिथि रहे तो उदयव्यापिनी तिथिको ही देवकार्य में ग्रहण करना चाहिये। इसी तरह शुभ तिथि एवं नक्षत्र आदि ही देवकार्य में ग्राह्य होते हैं। वार आदि का भलीभाँति विचार करके पूजा और जप आदि करने चाहिये। वेदों में पूजा-शब्द के अर्थ की इस प्रकार योजना की गयी है – पुर्जायते अनेन इति पूजा। यह पूजा-शब्द की व्युत्पत्ति है। 'पूः' का अर्थ है भोग और फलकी सिद्धि – वह जिस कर्मसे सम्पन्न होती है, उसका नाम पूजा है। मनोवांछित वस्तु तथा ज्ञान – ये ही अभीष्ट वस्तुएँ हैं; सकाम भाव वाले को अभीष्ट भोग अपेक्षित होता है और निष्काम भाव वाले को अर्थ- पारमार्थिक ज्ञान। ये दोनों ही पूजा-शब्द के अर्थ हैं; इनकी योजना करने से ही पूजा-शब्द की सार्थकता है। इस प्रकार लोक और वेद में पूजा-शब्द का अर्थ विख्यात है। नित्य और नौमित्तिक कर्म कालान्तर में फल देते हैं; किंतु काम्य कर्म का यदि भली-भांति अनुष्ठान हुआ हो तो वह तत्काल फलद होता है। प्रतिदिन एक पक्ष, एक मास और एक वर्षतक लगातार पूजन करने से उन-उन कर्मों के फल की प्राप्ति होती है और उनसे वैसे ही पापों का क्रमशः क्षय होता है।
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को की हुई महागणपति की पूजा एक पक्ष के पापों का नाश करने वाली और एक पक्षतक उत्तम भोगरूपी फल देने वाली होती है। चैत्रमास में चतुर्थी को की हुई पूजा एक मासतक किये गये पूजन का फल देने वाली होती है और जब सूर्य सिंह राशि पर स्थित हों, उस समय भाद्रपदमास की चतुर्थी को की हुई गणेशजी की पूजा एक वर्षतक मनोवांछित भोग प्रदान करती है – ऐसा जानना चाहिये। श्रावणमास के रविवार को, हस्त नक्षत्र से युक्त सप्तमी तिथिको तथा माघशुक्ला सप्तमी को भगवान् सूर्यका पूजन करना चाहिये। ज्येष्ठ तथा भाद्रपदमासों के बुधवारको, श्रवण नक्षत्र से युक्त द्वादशी तिथि को तथा केवल द्वादशी को भी किया गया भगवान् विष्णु का पूजन अभीष्ट सम्पत्ति को देने वाला माना गया है। श्रावणमास में की जाने वाली श्रीहरि की पूजा अभीष्ट मनोरथ और आरोग्य प्रदान करने वाली होती है। अंगों एवं उपकरणोंसहित पूर्वोक्त गौ आदि बारह वस्तुओं का दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, उसीको द्वादशी तिथि में आराधना द्वारा श्रीविष्णु की तृप्ति करके मनुष्य प्राप्त कर लेता है। जो द्वादशी तिथि को भगवान् विष्णु के बारह नामों द्वारा बारह ब्राह्मणो का षोडशोपचार पूजन करता है, वह उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओं के विभिन्न बारह नामों द्वारा किया हुआ, बारह ब्राह्मणोंका पूजन उन-उन देवताओं को प्रसन्न करने वाला होता है।
कर्क की संक्रान्ति से युक्त श्रावणमास में नवमी तिथि को मृगशिरा नक्षत्र के योग में अम्बिका का पूजन करे। वे सम्पूर्ण मनोवांछित भोगों और फलों को देने वाली हैं। ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरुष को उस दिन अवश्य उनकी पूजा करनी चाहिये। आश्विनमास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली है। उसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दर्शीको यदि रविवार पड़ा हो तो उस दिन का महत्व विशेष बढ़ जाता है। उसके साथ ही यदि आर्द्रा और महार्द्रा (सूर्यसंक्रान्ति से युक्त आर्द्रा) का योग हो तो उक्त अवसरों पर की हुई शिव पूजा का विशेष महत्व माना गया है। माघ कृष्णा चतुर्दशी को की हुई शिवजी की पूजा सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली है। वह मनुष्यों की आयु बढ़ाती, मृत्यु-कष्ट को दूर हटाती और समस्त सिद्धियों की प्राप्ति कराती है। ज्येष्ठ मास में चतुर्दशी को यदि महार्द्रा का योग हो अथवा मार्गशीर्ष मास में किसी भी तिथि को यदि आर्द्रा नक्षत्र हो तो उस अवसर पर विभिन्न वस्तुओं की बनी हुई मुर्तिके रूप में शिव की जो सोलह उपचारों से पूजा करता है, उस पुण्यात्मा के चरणों का दर्शन करना चाहिये। भगवान् शिव की पूजा मनुष्यों को भोग और मोक्ष देने वाली है, ऐसा जानना चाहिये। कार्तिक मास में प्रत्येक वार और तिथि आदि में महादेवजी की पूजा का विशेष महत्व है। कार्तिक मास आने पर विद्वान् पुरुष दान, तप, होम, जप और नियम आदि के द्वारा समस्त देवताओं का षोडशोपचारों से पूजन करे। उस पूजन में देव-प्रतिमा, ब्राह्मण तथा मंत्रो का उपयोग आवश्यक है। ब्राह्मणो को भोजन कराने से भी वह पूजन-कर्म सम्पन्न होता है। पूजक को चाहिये कि वह कामनाओं को त्याग कर पीड़ारहित (शान्त) हो देवाराधन में तत्पर रहे।
कार्तिकमास में देवताओं का यजनपूजन समस्त भोगों को देने वाला, व्याधियों को हर लेनेवाला तथा भूतों और ग्रहों का विनाश करने वाला है। कार्तिकमास के रविवारों को भगवान् सूर्य की पूजा करने और तेल तथा सूती वस्त्र देने से मनुष्यों के कोढ़ आदि रोगों का नाश होता है। हर्रे, काली मिर्च, वस्त्र और खीरा आदि का दान और ब्राह्मणो की प्रतिष्ठा करने से क्षय के रोग का नाश होता है। दीप और सरसों के दान से मिरगी का रोग मिट जाता है। कृत्तिका नक्षत्र से युक्त सोमवारों को किया हुआ शिवजी का पूजन मनुष्यों के महान् दारिद्र्य को मिटानेवाला और सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाला है। घर की आवश्यक सामग्रियों के साथ गृह और क्षेत्र आदि का दान करने से भी उक्त फल की प्राप्ति होती है। कृत्तिकायुक्त मंगलवारों को श्रीस्क्न्द का पूजन करने से तथा दीपक एवं घंटा आदि का दान देने से मनुष्यों को शीघ्र ही वाकसिद्धि प्राप्त हो जाती है, उनके मुँह से निकली हुई हर एक बात सत्य होती है। कृत्तिका युक्त बुधवारों को किया हुआ श्रीविष्णु का यजन तथा दही भात का दान मनुष्यों को उत्तम संतान की प्राप्ति करानेवाला होता है। कृत्तिकायुक्त गुरुवारों को धनसे ब्रह्माजी का पूजन तथा मधु, सोना और घी का दान करने से मनुष्यों के भोग-वैभव की वृद्धि होती है। कृत्तिकायुक्त शुक्रवारों को गजानन गणेशजी की पूजा करने से तथा गंध, पुष्प एवं अन्न का दान देने से मानवों के भोग्य पदार्थों की वृद्धि होती है। उस दिन सोना, चाँदी आदि का दान करने से वन्ध्या को भी उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है। कृत्तिकायुक्त शनिवारों को दिक्पालों की वन्दना, दिग्गजों, नागों और सेतुपालों का पूजन, त्रिनेत्रधारी रुद्र, पापहारी विष्णु तथा ज्ञानदाता ब्रह्मा का आराधन और धन्वन्तरि एवं दोनों अश्विनीकुमारों का पूजन करने से रोग, दुर्मृत्यु एवं अकालमृत्यु का निवारण होता है तथा तात्कालिक व्याधियों की शान्ति हो जाती है। नमक, लोहा, तेल और उड़द आदि का त्रिकुट (सौंठ, पीपल और गोल मिर्च), फल, गंध और जल आदि का तथा घृत आदि द्रव-पदार्थों का और सुवर्ण, मोती आदि कठोर वस्तुओं का भी दान देने से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। इनमें से नमक आदि का मान कम-से-कम एक प्रस्थ (सेर) होना चाहिये और सुवर्ण आदि का मान कम-से-कम एक पल।
धन की संक्रांति से युक्त पौषमास में उषःकाल में शिव आदि समस्त देवताओं का पूजन क्रमशः समस्त सिद्धियों की प्राप्ति कराने वाला होता है। इस पूजन में अगहनी के चावल से तैयार किये गये हविष्य का नैवेद्य उत्तम बताया जाता है। पौषमास में नाना प्रकार के अन्नका नैवेद्य विशेष महत्व रखता है। मार्गशीर्षमास में केवल अन्नका दान करने वाले मनुष्यों को ही सम्पूर्ण अभीष्ट फलों की प्राप्ति हो जाती है। मार्गशीर्षमास में अन्नका दान करने वाले मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते है। वह अभीष्ट-सिद्धि, आरोग्य, धर्म, वेदका सम्यक् ज्ञान, उत्तम अनुष्ठान का फल, इहलोक और परलोक में महान् भोग, अन्तमें सनातन योग (मोक्ष) तथा वेदान्तज्ञान की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो भोग की इच्छा रखनेवाला है, वह मनुष्य मार्गशीर्षमास आने पर कम-से-कम तीन दिन भी उषःकालमें अवश्य देवताओं का पूजन करे और पौषमास को पूजन से खाली न जाने दे। उषःकालसे लेकर संगवकालतक ही पौषमास पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। पौषमास में पूरे महीनेभर जितेन्द्रिय और निराहार रहकर द्धिज प्रातःकाल से मध्यांहकाल तक वेद माता गायत्री का जप करे। तत्पश्चात् रात को सोने के समय तक पंचाक्षर आदि मन्त्रों का जप करे। ऐसा करने वाला ब्राह्मण ज्ञान पाकर शरीर छूटने के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है। द्धिजेतर नर-नारियों को त्रिकाल स्नान और पंचाक्षर मन्त्र के ही निरन्तर जप से विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इष्टमन्त्रों का सदा जप करने से बड़े-से-बड़े पापोंका भी नाश हो जाता है।
सारा चराचर जगत् बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। इस तरह यह जगत् शिव-शक्ति स्वरूप ही है। नाद बिन्दुका और बिंदु इस जगत् का आधार है, ये बिंदु और नाद (शक्ति और शिव) सम्पूर्ण जगत् के आधाररूप से स्थित हैं। बिंदु और नाद से युक्त सब कुछ शिवस्वरूप हैं; क्योंकि वही सबका आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश अथवा लय होता है। यही सकलीकरण है। इस सकलीकरण की स्थिति से ही सृष्टिकाल में जगत् का प्रादुर्भाव होता है, इसमें संशय नहीं है। शिवलिंग बिंदु नादस्वरुप है। अतः उसे जगत् का कारण बताया जाता है। बिंदु देव है और नाद शिव, इन दोनों का संयुक्तरूप ही शिवलिंग कहलाता है। अतः जन्म के संकट से छुटकारा पाने के लिये शिवलिंग की पूजा करनी चाहिये। बिन्दुरुपा देवी उमा माता हैं और नादस्वरूप भगवान् शिव पिता। इन माता-पिता के पूजित होने से परमानन्द की ही प्राप्ति होती है। अतः परमानन्द का लाभ लेने के लिये शिवलिंग का विशेष रूप से पूजन करे। देवी उमा जगत्की माता हैं और भगवान् शिव जगतके पिता। जो इनकी सेवा करता है, उस पुत्र पर इन दोनों माता-पिता की कृपा नित्य अधिकाधिक बढ़ती रहती है।
(मातः देवी बिन्दुरुपा नादरूपः शिव पिता।।
पूजिताभ्यां पितृभ्यां तु परमानन्द एव हि। परमानंदलाभार्थ शिवलिंग प्रपूजयेत।।
सा देवी जगतां माता स शिवो जगत्ः पिता। पित्रोंः शुश्रूष के नित्यं कृपधिक्यं हि वर्धते।। (शिवपुराण विद्येश्वर १६/९१-९३)
वे पूजकपर कृपा करके उसे अपना आंतरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। अतः मुनीश्वरो! आंतरिक आनंदकी प्राप्ति के लिये, शिवलिंग को माता-पिता का स्वरूप मानकर उसकी पूजा करनी चाहिये। भर्ग (शिव) पुरुषरूप हैं और भर्गा (शिवा अथवा शक्ति) प्रकृति कहलाती है। अव्यक्त आंतरिक अधिष्ठानरूप गर्भ को पुरुष कहते हैं और सुव्यक्त आंतरिक अधिष्ठानभुत गर्भ को प्रकृति। पुरुष आदिगर्भ है, वह प्रकृतिरूप गर्भ से युक्त होने के कारण गर्भवान है; क्योंकि वही प्रकृतिका जनक है। प्रकृति में जो पुरुष का संयोग होता है, यही पुरुष से उसका प्रथम जन्म कहलाता है। अव्यक्त प्रकृतिसे मह्त्तत्त्वादि के क्रम से जो जगत् का व्यक्त होना है, यही उस प्रकृतिका द्धितीय जन्म कहलाता है। जीव पुरुष से ही बारंबार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता है। माया द्वारा अन्यरूपसे प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है, जीवका शरीर जन्मकाल से ही जीर्ण (छः भावविकारों से युक्त) होने लगता है, इसीलिये उसे 'जीव' संज्ञा दी गयी है। जो जन्म लेता और विविध पाशों द्वारा तनाव (बन्धन) में पड़ता है, उसका नाम जीव है; जन्म और बन्धन जीव शब्दका अर्थ ही है। अतः जन्ममृत्युरूपी बन्धन की निवृत्ति के लिये जन्म के अधिष्ठानभुत मातृ-पितृस्वरुप शिवलिंग का पूजन करना चाहिये।
गाय का दूध, गाय का दही और गाय का घी – इन तीनों को पूजन के लिये शहद और शक्कर के साथ पृथक्-पृथक् भी रखे और इन सबको मिलाकर सम्मिलितरूप से पंचामृत भी तैयार कर ले। (इनके द्वारा शिवलिंग का अभिषेक एवं स्नान कराये), फिर गाय के दूध और अन्नके मेल से नैवेद्य तैयार करके प्रणव मन्त्र के उच्चारणपूर्वक उसे भगवान् शिवको अर्पित करे। सम्पूर्ण प्रणव को ध्वनिलिंग कहते हैं। स्वयम्भूलिंग नादस्वरुप होने के कारण नादलिंग कहा गया है। यंत्र या अर्घा बिन्दुस्वरूप होने के कारण बिंदुलिंग के रूप में विख्यात है। उसमें अचलरूप से प्रतिष्ठित जो शिवलिंग है, वह मकार-स्वरूप है, इसलिये मकारलिंग कहलाता है। सवारी निकालने आदि के लिये जो चरलिंग होता है, वह उकार-स्वरूप होने से उकारलिंग कहा गया है तथा पूजा की दीक्षा देने वाले जो गुरु या आचार्य हैं, उनका विग्रह अकार का प्रतिक होने से अकारलिंग माना गया है। इस प्रकार अकार, उकार, मकार, बिंदु, नाद और ध्वनि के रूप में लिंग के छः भेद हैं। इन छहों लिंगों की नित्य पूजा करने से साधक जीवनमुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।
(अध्याय १६)