बन्धन और मोक्ष का विवेचन, शिवपूजा का उपदेश, लिंग आदि में शिव पूजन का विधान, भस्म के स्वरूप का निरूपण और महत्व, शिव एवं गुरु शब्द की व्युत्पत्ति तथा शिव के भस्मधारण का रहस्य
ऋषि बोले – सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सूतजी! बन्धन और मोक्ष का स्वरूप क्या है? यह हमें बताइये।
सूतजी ने कहा – महर्षियो! मैं बन्धन और मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष के उपाय का वर्णन करूँगा। तुम लोग आदरपूर्वक सुनो। जो प्रकृति आदि आठ बन्धनों से बँधा हुआ हैं, वह जीव बद्ध कहलाता है और जो उन आठों बन्धनों से छुटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं। प्रकृति आदि को वश में कर लेना मोक्ष कहलाता है। बन्धन आगन्तुक है और मोक्ष स्वतःसिद्ध है। बद्ध जीव जब बन्धन से मुक्त हो जाता है तब उसे मुक्तजीव कहते हैं। प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ – इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याद्यष्टक मानते हैं। प्रकृति आदि आठ तत्त्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है। देह से कर्म उत्पन्न होता है और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार बारंबार जन्म और कर्म होते रहते हैं। शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिये। स्थूल शरीर (जाग्रत अवस्था में) व्यापार कराने वाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में) इन्द्रिय-भोग प्रदान करने वाला तथा कारण शरीर (सुषुप्तावस्था में) आत्मानंद की अनुभूति कराने वाला कहा गया है। जीवको उसके प्रारब्ध-कर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। वह अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप सुख और पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख का उपभोग करता है। अतः कर्मपाश से बन्धा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीर से होने वाले शुभाशुभ कर्मों द्वारा सदा चक्र की भाँति बारंबार घुमाया जाता है। इस चक्रवत भ्रमण की निवृत्ति के लिये चक्रकर्ता का स्तवन एवं आराधन करना चाहिये। प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र है और जो प्रकृति से परे हैं, वह परमात्मा शिव हैं। भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं। जैसे बकायन नामक वृक्ष का थाला जल को पीता और उगलता है, उसी प्रकार शिव प्रकृति आदि को अपने वश में करके उस पर शासन करते हैं। उन्होंने सबको वश में कर लिया है, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं। शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा निःस्पृह हैं। सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादि बोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति से संयुक्त होना और अपने भीतर अनन्त शक्तियों को धारण करना – महेश्वर के इन छः प्रकार के मानसिक ऐश्वर्यों को केवल वेद जानता है। अतः भगवान् शिव के अनुग्रह से ही प्रकृति आदि आठों तत्व वश में होते हैं। भगवान् शिव का कृपा-प्रसाद प्राप्त करने के लिये उन्हीं का पूजन करना चाहिये।
यदि कहें – शिव तो परिपूर्ण हैं, निःस्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती है? तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् शिव के उद्देश्य से – उनकी प्रसन्नता के लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपाप्रसाद को प्राप्त कराने वाला होता है। शिवलिंग में, शिव की प्रतिमा में तथा शिवभक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये। वह पूजन शरीर से, मन से, वाणी से और धन से भी किया जा सकता है। उस पूजा से महेश्वर शिव, जो प्रकृति से परे हैं, पूजक पर विशेष कृपा करते हैं और उनका वह कृपा-प्रसाद सत्य होता है। शिव की कृपा से कर्म आदि सभी बन्धन अपने वशमें हो जाते हैं। कर्म से लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वश में हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूप से विराजमान होता है। परमेश्वर शिव की कृपा से जब कर्मजनित शरीर अपने वशमें हो जाता है, तब भगवान् शिव के लोक में निवास का सौभाग्य प्राप्त होता है। इसी को सालोक्य-मुक्ति कहते हैं। जब तन्मात्राएँ वशमें हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिव का सामीप्य प्राप्त कर लेता है। यह सामीप्य मुक्ति है, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिव के समान हो जाते हैं। भगवान् का महाप्रसाद प्राप्त होने पर बुद्धि भी वशमें हो जाती है। बुद्धि प्रकृतिका कार्य है। उसका वश में होना सार्ष्टिमुक्ति कहा गया है। पुनः भगवानका महान् अनुग्रह प्राप्त होने पर प्रकृति वश में हो जायगी। उस समय भगवान् शिव का मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्न के ही प्राप्त हो जायगा। सर्वज्ञता और तृप्ति आदि जो शिव के ऐश्वर्य हैं, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपने आत्मा में ही विराजमान होता है। वेद और शास्त्रों में विश्वास रखने वाले विद्वान् पुरुष इसी को सायुज्यमुक्ति कहते हैं। इस प्रकार लिंग आदि में शिव की पूजा करने से क्रमशः मुक्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है। इस लिये शिव का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदि के द्वारा उन्हीं का पूजन करना चाहिये। शिवक्रिया, शिवतप, शिवमन्त्र-जप, शिवज्ञान और शिवध्यान के लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये। प्रतिदिन प्रातःकाल से रात को सोते समय तक और जन्मकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिव के चिन्तन में ही बिताना चाहिये। सद्योजातादि मन्त्रों तथा नाना प्रकार के पुष्पों से जो शिव की पूजा करता है, वह शिव को ही प्राप्त होगा।
ऋषि बोले – उत्तम व्रत का पालन करने वाले सूतजी! लिंग आदि में शिवजी की पूजा का क्या विधान है, यह हमें बताइये।
सूतजीने कहा – द्विजो! मैं लिंगों के क्रम का यथावत् वर्णन कर रहा हूँ तुम सब लोग सुनो। वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला प्रथम लिंग है। उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझो। सूक्ष्म लिंग निष्कल होता है और स्थूल लिंग सकल। पंचाक्षर-मन्त्र को ही स्थूल लिंग कहते हैं। उन दोनों प्रकार के लिंगों का पूजन तप कहलाता है। वे दोनों ही लिंग साक्षात् मोक्ष देने वाले हैं। पौरुष-लिंग और प्रकृति-लिंग के रूप में बहुत-से लिंग हैं। उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं। दूसरा कोई नहीं जानता। पृथ्वी के विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उनको मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उनमें स्वयम्भूलिंग प्रथम है। दूसरा बिन्दुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित-लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचवाँ गुरुलिंग हैं। देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिये पृथ्वी के अन्तर्गत बीजरूप से व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षों के अंकुर की भाँति भूमि को भेदकर नादलिंग के रूप में व्यक्त हो जाते हैं। वे स्वतः व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होने के कारण स्वयंभू नाम धारण करते हैं। ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंग के रूप में जानते हैं। उस स्वयम्भूलिंग की पूजासे उपासक का ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता है। सोने-चाँदी आदि के पत्र पर, भूमि पर अथवा वेदि पर अपने हाथ से लिखित जो शुद्ध प्रणव मन्त्ररूप लिंग है, उसमें तथा मन्त्रलिंग का आलेखन करके उसमें भगवान् शिव की प्रतिष्ठा और आवाहन करे। ऐसा बिन्दुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार का होता है। इसमें शिव का दर्शन भावनामय ही है, ऐसा निस्संदेह कहा जा सकता है। जिसको जहाँ भगवान् शंकर के प्रकट होने का विश्वास हो, उसके लिये वहीं प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। अपने हाथ से लिखे हुए यंत्र में अथवा अकृतिम स्थावर आदि में भगवान् शिव का आवाहन करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करे। ऐसा करने से साधक स्वयं ही ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है और इस साधन के अभ्यास से उसको ज्ञान भी होता है। देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिये अपने हाथ से वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक शुद्ध मण्डल में शुद्ध भावना द्वारा जिस उत्तम शिवलिंग की स्थापना की है, उसे पौरुष लिंग कहते हैं। तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है। उस लिंग की पूजा करने से सदा पौरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। महान् ब्राह्मण और महाधनी राजा किसी कारीगर से शिवलिंग का निर्माण कराकर जो मन्त्रपूर्वक उसकी स्थापना करते हैं, उनके द्वारा स्थापित हुआ वह लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है। किंतु वह प्राकृतलिंग है। इसलिये प्राकृत ऐश्वर्य-भोग को ही देने वाला होता है। जो शक्तिशाली और नित्य होता है, उसे पौरुष कहते हैं तथा जो दुर्बल और अनित्य होता है, वह प्राकृत कहलाता है।
लिंग, नाभि, जिव्हा, नासाप्रभाग और शिखा के क्रम से कटी, हृदय और मस्तक तीनों स्थानों में जो लिंग की भावना की गयी है, उस आध्यात्मिक लिंग को ही चरलिंग कहते हैं। पर्वत को पौरुषलिंग बताया गया है और भूतल को विद्वान् पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं। वृक्ष आदि को पौरुषलिंग जानना चाहिये और गुल्म आदि को प्राकृतलिंग। साठी नामक धान्य को प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँ को पौरुषलिंग। अणिमा आदि आठों सिद्धियों को देने वाला जो ऐश्वर्य है, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये। सुन्दर स्त्री तथा धन आदि विषयों को आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं। चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता है। रसलिंग ब्राह्मणो को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला है। शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान् राज्य की प्राप्ति कराने वाला है। सुवर्णलिंग वैश्यों को महाधनपति का पद प्रदान करने वाला है तथा सुन्दर शिवलिंग शूद्रों को महाशुद्धि देने वाला है। स्फटिकमय लिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं। अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं है। स्त्रियों, विशेषतः सधवाओं के लिये पार्थिव लिंग की पूजा का विधान है। प्रवृत्तिमार्ग में स्थित विधवाओं के लिये स्फटिकलिंग की पूजा बतायी गयी है। परंतु विरक्त विधवाओं के लिये रसलिंग की पूजा को ही श्रेष्ठ कहा गया है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षियो! बचपन में, जवानी में और बुढ़ापे में भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करने वाला है। गृहासक्त स्त्रियों के लिये पीठपूजा भूतल पर सम्पूर्ण अभीष्ट को देने वाली है।
प्रवृत्तिमार्ग में चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे। इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात् अगहनी के चावल से बने हुए खीर आदि पक्वान्नों द्वारा नैवेद्य अर्पण करे। पूजा के अन्त में शिवलिंग को सम्पु्ट में पधराकर घर के भीतर पृथक् रख दे। जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथ पर ही शिवलिंग-पूजा का विधान है। उन्हें भिक्षादि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित करना चाहिये। निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूति के द्वारा पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें। पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तक पर धारण करें।
विभूति तीन प्रकार की बतायी गयी है – लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित। लोकाग्निजनित या लौकिक भस्म को द्रव्यों की शुद्धि के लिये लाकर रखे। मिट्टी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की, धान्यों की, तिल आदि द्रव्यों की, वस्त्र आदि की तथा पर्युषित वस्तुओं की भस्म से शुद्धि होती है। कुत्ते आदि से दूषित हुए पात्रों की भी भस्म से ही शुद्धि मानी गयी है। वस्तु-विशेष की शुद्धि के लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्म का उपयोग करना चाहिये। वेदाग्निजनित जो भस्म है, उसको उन-उन वैदिक कर्मों के अन्त में धारण करना चाहिये। मन्त्र और क्रिया से जनित जो होमकर्म है, वह अग्नि में भस्म का रूप धारण करता है। उस भस्म को धारण करने से वह कर्म आत्मा में आरोपित हो जाता है। अघोर मुर्तिधारी शिव का जो अपना मन्त्र है, उसे पढ़कर बेल की लकड़ी को जलाये। उस मन्त्र से अभिमन्त्रित अग्नि को शिवाग्नि कहा गया है। उसके द्वारा जले हुए काष्ठका जो भस्म है, वह शिवाग्निजनित है। कपिला गाय के गोबर अथवा गायमात्र के गोबर को तथा शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर – इनकी लकड़ियों को शिवाग्नि से जलाये। वह शुद्ध भस्म शिवाग्निजनित माना गया है अथवा कुश की अग्नि में शिवमन्त्र के उच्चारणपूर्वक काष्ठ को जलाये। फिर उस भस्म को कपड़े से अच्छी तरह छानकर नये घड़े में भरकर रख दे। उसे समय-समयपर अपनी कान्ति या शोभा की वृद्धि के लिये धारण करे। ऐसा करने वाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता है। पूर्वकाल में भगवान् शिव ने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था। जैसे राजा अपने राज्य में सारभूत करको ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य सत्य आदि को जलाकर (राँधकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थों को भारी मात्रा में ग्रहण करके जलाता, जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर व्स्तुसे स्वदेह का पोषण करता है, उसी प्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिव ने भी अपने में आधेयरूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है। प्रपंच को दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया है। राख, भभूत पोतने के बहाने जगत् के सार को ही ग्रहण किया है। अपने शरीर में अपने लिए रत्नस्वरुप भस्म को इस प्रकार स्थापित किया है – आकाश के सारतत्त्व से केश, वायु के सारतत्त्व से मुख, अग्नि के सारतत्त्व से हृदय, जल के सारततत्व से कटिभाग और पृथ्वी के सारतत्त्व से घुटने को धारण किया है। इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के साररूप हैं। महेश्वर ने अपने ललाट में तिलकरूप से जो त्रिपुण्ड्र धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का सारतत्त्व है। वे इन सब वस्तुओं को जगत् के अभ्युदय का हेतु मानते हैं। इन भगवान् शिव ने ही प्रपंच के सार-सर्वस्व को अपने वशमें किया है। अतः इन्हें अपने वश में करने वाला दूसरा कोई नहीं है। जैसे समस्त मृगों का हिंसक मृग सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करने वाला दूसरा कोई मृग नहीं हैं, अतएव उसे सिंह कहा गया है।
शकार का अर्थ है नित्यसुख एवं आनन्द, इकार का अर्थ है पुरुष और वकार का अर्थ है अमृतस्वरूपा शक्ति। इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता हैं। अतः इस रूप में भगवान् शिव को अपनी आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये; अतः पहले अपने अंगों में भस्म मले। फिर ललाट में उत्तम त्रिपुण्ड्र धारण करे। पूजाकाल में सजल भस्म का उपयोग होता है और द्रव्यशुद्धि के लिये निर्जल भस्म का। गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणों का अवरोध करते हैं – दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूप का आश्रय लेकर स्थित हैं। गुरु विश्वासी शिष्यों के तीनो गुणों को पहले दूर करके फिर उन्हें शिवतत्त्व का बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं। गुरु की पूजा परमात्मा शिव की ही पूजा है। गुरु के उपयोग से बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करने वाला होता है। गुरु की आज्ञा के बिना उपयोग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तुका उपयोग करता है। गुरु से भी विशेष ज्ञानवान पुरुष मिल जाय तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिए। अज्ञानरूपी बन्धन से छूटना ही जीवमात्र के लिये साध्य पुरुषार्थ है। अतः जो विशेष ज्ञानवान है, वही जीव को उस बन्धन से छुड़ा सकता है।
जन्म और मरणरूप द्वंद्व को भगवान् शिव की माया ने ही अर्पित किया है। जो इन दोनों को शिव की माया को ही अर्पित कर देता है, वह फिर शरीर के बन्धन में नहीं पड़ता। जब तक शरीर रहता है, तब तक जो क्रिया के ही अधीन है, वह जीव बद्ध कहलाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण – तीनों शरीरों को वश में कर लेने पर जीव का मोक्ष हो जाता है, ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन है। मायाचक्र के निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं। वे अपनी माया के दिये हुए द्वंद्व का स्वयं ही परिमार्जन करते हैं। अतः शिव के द्वारा कल्पित हुआ द्वंद्व उन्हीं को समर्पित कर देना चाहिये। जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणों से संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यान में से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे। ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान् शिव के सामीप्य का लाभ – ये क्रमशः क्रिया आदि के फल हैं। निष्काम कर्म करने से अज्ञान का निवारण हो जाने के कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फल को पाता है। शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धन के अनुसार यथायोग्य क्रिया आदि का अनुष्ठान करे। न्यायोपार्जित उत्तम धन से निर्वाह करते हुए विद्वान् पुरुष शिव के स्थान में निवास करे। जीवहिंसा आदि से रहित और अत्यन्त क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्र के जप से अभिमन्त्रित अन्न और जल को सुखस्वरूप माना गया है अथवा कहते हैं कि दरिद्र पुरुष के लिये भिक्षा से प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देने वाला होता है। शिवभक्त को भिक्षान्न प्राप्त हो तो वह शिवभक्ति को बढ़ाता है। शिवयोगी पुरुष भिक्षान्न को शम्भुसत्र कहते हैं। जिस किसी भी उपाय से जहाँ-कहीं भी भूतल पर शुद्ध अन्न का भोजन करते हुए सदा मौन-भाव से रहे और अपने साधन का रहस्य किसी पर प्रकट न करे। भक्तों के समक्ष ही शिव के विश्वेश्वर संहिता प्रकाशित करे। शिवमन्त्र के रहस्य को भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा नहीं।
(अध्याय १८)