पार्थिवलिंग के निर्माण की रीति तथा वेद-मन्त्रों द्वारा उसके पूजन की विस्तृत एवं संक्षिप्त विधि का वर्णन
तदनन्तर पार्थिवलिंग की श्रेष्ठता तथा महिमा का वर्णन करके सूतजी कहते हैं- महर्षियो! अब मैं वैदिक कर्मके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने वाले लोगों के लिये वेदोक्त मार्ग से ही पार्थिव-पूजा की पद्धति का वर्णन करता हूँ। यह पूजा भोग और मोक्ष दोनों को देने वाली है। आह्निकसूत्रों में बतायी हुई विधि के अनुसार विधिपूर्वक स्नान और संध्योपासना करके पहले ब्रह्मयज्ञ करे। तत्पश्चात् देवताओं, ऋषियों, सनकादि मनुष्यों और पितरों का तर्पण करे। अपनी रुचि के अनुसार सम्पूर्ण नित्यकर्म को पूर्ण करके शिवस्मरणपूर्वक भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण मनोवांछित फल की सिद्धि के लिये ऊँची भक्ति-भावना के साथ उत्तम पार्थिवलिंग की वेदोक्त विधि से भली-भांति पूजा करे। नदी या तालाब के किनारे, पर्वत पर, वन में, शिवालय में अथवा और किसी पवित्र स्थान में पार्थिव-पूजा करने का विधान है। ब्राह्मणो! शुद्ध स्थान से निकाली हुई मिट्टी को यत्नपूर्वक लाकर बड़ी सावधानी के साथ शिवलिंग का निर्माण करे। ब्राह्मण के लिये श्वेत, क्षत्रिय के लिये लाल, वैश्य के लिये पीली और शूद्र के लिये काली मिट्टी से शिवलिंग बनाने का विधान है अथवा जहाँ जो मिट्टी मिल जाय, उसी से शिवलिंग बनाये।
शिवलिंग बनाने के लिये प्रयत्नपूर्वक मिट्टी का संग्रह करके उस शुभ मृत्तिका को अत्यन्त शुद्ध स्थान में रखे। फिर उसकी शुद्धि करके जल से सानकर पिण्डी बना ले और वेदोक्त मार्ग से धीरे-धीरे सुन्दर पार्थिवलिंग की रचना करे। तत्पश्चात् भोग और मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये भक्तिपूर्वक उसका पूजन करे। उस पार्थिवलिंग के पूजन की जो विधि है, उसे मैं विधानपूर्वक बता रहा हूँ; तुम सब लोग सुनो। 'ॐ नमः शिवाय' मन्त्र का उच्चारण करते हुए समस्त पूजन-सामग्री का प्रोक्षण करे - उस पर जल छिड़के। इसके बाद 'भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृँ ह पृथिवीं मा हि सीः' इत्यादि मन्त्र से क्षेत्रसिद्धि करे, फिर 'आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु। विश्व्ँरिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि। दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवाँ शग्मां परि दधे भद्रं वर्णं पुष्यन्' मन्त्र से जल का संस्कार करे। इसके बाद 'नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः बाहुभ्यामुत ते नमः' मन्त्र से स्फाटिकाबन्ध (स्फटिक शिला का घेरा) बनाने की बात कही गयी है। 'नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च' मन्त्र से क्षेत्रशुद्धि और पंचामृत का प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् शिवभक्त पुरुष 'नमः' पूर्वक 'नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः' मन्त्र से शिवलिंग की उत्तम प्रतिष्ठा करे। इसके बाद वैदिक रीति से पूजन-कर्म करनेवाला उपासक भक्तिपूर्वक 'एतत्ते रुद्रावसं तेन परो मूजवतोऽतीहि। अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासा अहिंसन्नः शिवोऽतीहि' मन्त्र से रमणीय आसन दे। 'मा नो महान्मुतं मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः' मन्त्र से आवाहन करे, 'या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी। या नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि' मन्त्र से भगवान् शिव को आसन पर समासीन करे। 'यामिषुं गिरिशन्त हस्ते विभर्ष्यस्तवे। शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिँसी पुरुषं जगत्' मन्त्र से शिव के अंगों में न्यास करे। 'अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो देव्यो भिषक्। अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराचीः परा सुव' मन्त्र से प्रेमपूर्वक अधिवासन करे। 'असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः। ये चैनँरुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषाँहेड ईमहे' मन्त्र से शिवलिंग में इष्टदेवता शिव का न्यास करे। 'असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। उतैनं गोपा अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः' मन्त्र से उपसर्पण (देवता के समीप गमन) करे। इसके बाद 'नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः' मन्त्र से इष्टदेव को पाद्य समर्पित करे। 'तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।' से अर्ध्य दे। 'त्र्यम्यबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं प्रतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः' मन्त्र से आचमन कराये। 'पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्' मन्त्र से दुग्धस्नान कराये। 'दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्रणआयूँषि तारिषत्' मन्त्र से दधिस्नान कराये। 'घृतं घृतपावानः पिबतं वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा। दिशः प्रदिश आदिशो विदिश उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा' मन्त्र से घृतस्नान कराये। 'मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः।', 'मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवँरजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता', 'मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्य्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः', इन तीन ऋचाओं से मधु- स्नान और शर्करा स्नान' कराये। [बहुत-से विद्वान् 'मधु वाता०' आदि तीन ऋचाओं का उपयोग केवल मधुस्नान में ही करते हैं और शर्करास्नान कराते समय निम्नांकित मन्त्र बोलते हैं- अपाँसमुद्वयसँसूर्ये सन्तँसमाहितम्। अपायँरसस्य यो रसस्तं वो गृह्णाभ्युत्तममुपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वां जुष्टं गहणाभ्येष ते योनिरिन्द्राय त्वां जुष्टतमम्।] इन दुग्ध आदि पाँच वस्तुओं को पंचामृत कहते हैं।
अथवा पाद्य-समर्पण के लिये कहे गये 'नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः' इत्यादि मन्त्र द्वारा पंचामृत से स्नान कराये। तदनन्तर 'मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे' मन्त्र से प्रेमपूर्वक भगवान् शिव को कटिबन्ध (करधनी) अर्पित करे। 'नमो धृष्णवे च प्रमृशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्तीक्ष्णेषवे चायुधिने च नमः स्वायुधाय च सुधन्वने च' मन्त्र का उच्चारण करके आराध्य देवता को उत्तरीय धारण कराये। 'या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः। तयास्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परि भुज (११)। परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः। अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्नि धेहि तम् (१२)। अवतत्य धनुष्ट्वँ सहस्राक्ष शतेषुधे। निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो न सुमना भव (१३)। नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे। उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने' इत्यादि चार ऋचाओं को पढ़कर वेदज्ञ भक्त प्रेम से विधिपूर्वक भगवान् शिव के लिये वस्त्र (एवं यज्ञोपवीत) समर्पित करे। इसके बाद 'नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो नमो भवाय च रुद्राय च नमः शर्वाय च पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च' इत्यादि मन्त्र को पढ़कर शुद्ध बुद्धिवाला भक्त पुरुष भगवान् को प्रेमपूर्वक गन्ध (सुगन्धित चन्दन एवं रोली) चढ़ाये। 'नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यःपुञ्जिष्ठेभ्यश्च वो नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमः' मन्त्र से अक्षत अर्पित करे। 'नमः पार्याय चावार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च नमः शष्प्याय च फेन्याय च' मन्त्र से फूल चढ़ाये। 'नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद्गुरमाणाय चाभिघ्नते च नम आखिदते च प्रखिदते च नम इषुकृद्भ्यो धनुष्कृद्भ्यश्च वो नमो नमो वः किरिकेभ्यो देवानां हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो नमः आनिर्हतेभ्यः' मन्त्र से बिल्वपत्र समर्पण करे। 'नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च' इत्यादि मन्त्र से विधिपूर्वक धूप दे। 'नम आशवे चाजिराय च नमः शीघ्र्याय च शीम्याय च नम ऊर्म्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयाय च द्वीप्याय च' ऋचा से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार दीप निवेदन करे। तत्पश्चात् (हाथ धोकर) 'नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नमः पूर्वजाय चापरजाय च नमो मध्यमाय चापगल्भाय च नमो जघन्याय च बुध्न्याय च' मन्त्र से उत्तम नैवेद्य अर्पित करे। फिर पूर्वोक्त त्र्यम्बक-मन्त्र से आचमन कराये। 'इमां रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः। यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम्' ऋचा से फल समर्पण करे। फिर 'नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्प्याय च गेह्याय च नमो हृदय्याय च निवेष्याय च नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च' मन्त्र से भगवान् शिव को अपना सब कुछ समर्पित कर दे। तदनन्तर 'मा नो महान्तम' तथा 'मा नस्तोके' इन पूर्वोक्त दो मन्त्रों द्वारा केवल अक्षतों से ग्यारह रुद्रों का पूजन करे। फिर 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम' मन्त्र से जो तीन ऋचाओं के रूप में पठित है दक्षिणा चढ़ाये। 'देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्वि नोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। अश्विनोर्भैषज्येन तेज से ब्रह्मवर्चसायाभि षिञ्चामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभि षिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभि षिञ्चामि' मन्त्र से विद्वान् पुरुष आराध्यदेव का अभिषेक करे। दीप के लिये बताये हुए 'नम आशवे०' इत्यादि मन्त्र से भगवान् शिव की नीराजना (आरती) करे। तत्पश्चात् 'इमा रुद्राय०' इत्यादि तीन ऋचाओं से भक्तिपूर्वक रुद्रदेव को पुष्पांजलि अर्पित करे। 'मा नो महाजमु०' इस मन्त्र से विज्ञ उपासक पूजनीय देवता की परिक्रमा करे। फिर उत्तम बुद्धिवाला उपासक 'मा नस्तोके०' इस मन्त्र से भगवान् को साष्टांग प्रणाम करे। 'एष ते रुद्र भागः सह स्वस्राम्बिकया तं जुषस्व स्वाहा। एष ते रुद्र भाग आखुस्ते पशुः' मन्त्र से शिवमुद्रा का प्रदर्शन करे। 'यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्य' मन्त्र से अभय नामक मुद्रा का, 'व्यम्बकं०' मन्त्र से ज्ञान नामक मुद्रा का तथा 'नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमो नमो रथिभ्यो अरथेभ्यश्च वो नमो नमः। क्षतृभ्यः संग्रहीतृभ्यश्च वो नमो नमो महद्भ्यो अर्भकेभ्यश्च वो नमः' इत्यादि मन्त्र से महामुद्रा का प्रदर्शन करे। 'नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सोरभेयीभ्य एव च। नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः।। (गोमतीविद्या)' ऋचा द्वारा धेनुमुद्रा दिखाये। इस तरह पाँच मुद्राओं का प्रदर्शन करके शिवसम्बन्धी मन्त्रों का जप करे अथवा वेदज्ञ पुरुष 'शतरुद्रिय०' [यजुर्वेद का वह अंश, जिसमें रुद्र के सौ या उससे अधिक नाम आये हैं और उनके द्वारा रुद्रदेव की स्तुति की गयी है। (देखिये यजु० अध्याय १६)] मन्त्र की आवृत्ति करे। तत्पश्चात् वेदज्ञ पुरुष पंचांग पाठ करे। तदनन्तर 'देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। मनसस्पत इमं देव यज्ञँस्वाहा वाते धाः' इत्यादि मन्त्र से भगवान् शंकर का विसर्जन करे। इस प्रकार शिवपूजा की वैदिक विधि का विस्तार से प्रतिपादन किया गया।
महर्षियो! अब संक्षेप से भी पार्थिव- पूजन की वैदिक विधि का वर्णन सुनो। 'सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः। भवे भवेनातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः' ऋचा से पार्थिवलिंग बनाने के लिये मिट्टी ले आये। 'ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मथाय नमः' इत्यादि मन्त्र पढ़कर उसमें जल डाले। (जब मिट्टी सनकर तैयार हो जाय तब) 'ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः' मन्त्र से लिंग निर्माण करे। फिर' ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्' मन्त्र से विधिवत् उसमें भगवान् शिव का आवाहन करे। तदनन्तर 'ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदा शिवोम्' मन्त्र से भगवान् शिव को वेदी पर स्थापित करे। इनके सिवाय अन्य सब विधानों को भी शुद्ध बुद्धिवाला उपासक संक्षेप से ही सम्पन्न करे। इसके बाद विद्वान् पुरूष पंचाक्षर मन्त्र से अथवा गुरु के दिये हुए अन्य किसी शिवसम्बन्धी मन्त्र से सोलह उपचारों द्वारा विधिवत् पूजन करे अथवा-
भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमहि।
उग्राय उग्रनाशाय शर्वाय शशिमौलिने।। (२०। ४३)
- इस मन्त्र द्वारा विद्वान् उपासक भगवान् शंकर की पूजा करे। वह भ्रम छोड़कर उत्तम भाव-भक्ति से शिव की आराधना करे; क्योंकि भगवान् शिव भक्ति से ही मनोवांछित फल देते हैं।
ब्राह्मणो! यहाँ जो वैदिक विधि से पूजन- का क्रम बताया गया है, इसका पूर्णरूप से आदर करता हुआ मैं पूजा की एक दूसरी विधि भी बता रहा हूँ, जो उत्तम होने के साथ ही सर्वसाधारण के लिये उपयोगी है। मुनिवरो! पार्थिवलिंग की पूजा भगवान् शिव के नामों से बतायी गयी है। वह पूजा सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाली है। मैं उसे बताता हूँ, सुनो! हर, महेश्वर, शम्भु, शूलपाणि, पिनाकधृक, शिव, पशुपति और महादेव -- ये क्रमशः शिव के आठ नाम कहे गये हैं। इनमें से प्रथम नाम के द्वारा अर्थात् 'ॐ हराय नमः' का उच्चारण करके पार्थिवलिंग बनाने के लिये मिट्टी लाये। दूसरे नाम अर्थात् 'ॐ महेश्वराय नमः' का उच्चारण करके लिंग-निर्माण करे। फिर 'ॐ शम्भवे नमः' बोलकर उस पार्थिव-लिंग की प्रतिष्ठा करे। तत्पश्चात् 'ॐ शूलपाणये नमः' कहकर उस पार्थिवलिंग में भगवान् शिव का आवाहन करे। 'ॐ पिनाकधृषे नमः' कहकर उस शिवलिंग को नहलाये। 'ॐ शिवाय नमः' बोलकर उसकी पूजा करे। फिर 'ॐ पशुपतये नमः' कहकर क्षमा-प्रार्थना करे और अन्त में 'ॐ महादेवाय नमः' कहकर आराध्यदेव का विसर्जन कर दे। प्रत्येक नाम के आदि में ॐकार और अन्त में चतुर्थी विभक्ति के साथ 'नमः' पद लगाकर बड़े आनन्द और भक्तिभाव से पूजन सम्बन्धी सारे कार्य करने चाहिये।
[हरो महेश्वरः शम्भुः शूलपाणिः पिनाकधृक्। शिवः पशुपतिश्चैव महादेव इति क्रमात्र।।
मृदाहरणसंघट्टप्रतिष्ठाह्वानमेव च। स्नपनं पूजनं चैव क्षमस्वेति विसर्जनम्।।
ॐकारादिचतुर्थ्यन्तैर्नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात्। कर्तव्याश्च क्रियाः सर्वा भक्त्या परमया मुदा।।
(शि० पु० वि० २०। ४७-४९)]
षडक्षर-मन्त्र से अंगन्यास और करन्यास की विधि भली-भांति सम्पन्न करके फिर नीचे लिखे अनुसार ध्यान करे। जो कैलास पर्वत पर एक सुन्दर सिंहासन के मध्य-भाग में विराजमान हैं, जिनके वामभाग में भगवती उमा उनसे सटकर बैठी हुई हैं, सनक-सनन्दन आदि भक्तजन जिनकी पूजा कर रहे हैं तथा जो भक्तों के दुःखरूपी दावानल को नष्ट कर देने वाले अप्रमेय-शक्तिशाली ईश्वर हैं, उन विश्वविभूषण भगवान् शिव का चिन्तन करना चाहिये। भगवान् महेश्वर का प्रतिदिन इस प्रकार ध्यान करे- उनकी अंग-कान्ति चाँदी के पर्वत की भाँति गौर है। वे अपने मस्तक पर मनोहर चन्द्रमा का मुकुट धारण करते हैं। रत्नों के आभूषण धारण करने से उनका श्रीअंग और भी उद्भासित हो उठा है। उनके चार हाथों में क्रमशः परशु, मृगमुद्रा, वर एवं अभयमुद्रा सुशोभित हैं। वे सदा प्रसन्न रहते हैं। कमल के आसन पर बैठे हैं और देवतालोग चारों ओर खड़े होकर उनकी स्तुति कर रहे हैं। उन्होंने वस्त्र की जगह व्याघ्रचर्म धारण कर रखा है। वे इस विश्व के आदि हैं, बीज (कारण) रूप हैं। तथा सबका समस्त भय हर लेने वाले हैं। उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुखमण्डल में तीन-तीन नेत्र हैं।
[अंगन्यास और करन्यासका प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये। ॐ ॐ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ नं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ मं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ शिं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ वां कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ यं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। इति करन्यासः। ॐ ॐ हृदयाय नमः। ॐ नं शिरसे स्वाहा।]
इस प्रकार ध्यान तथा उत्तम पार्थिवलिंग का पूजन करके गुरु के दिये हुए पंचाक्षर मन्त्र का विधिपूर्वक जप करे। विप्रवरो! विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह देवेश्वर शिव को प्रणाम करके नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा उनका स्तवन करे तथा शतरुद्रिय (यजु० १६वें अध्याय के मन्त्रों) का पाठ करे। तत्पश्चात् अंजलि में अक्षत और फूल लेकर उत्तम भक्तिभाव से निम्नांकित मन्त्रों को पढ़ते हुए प्रेम और प्रसन्नता के साथ भगवान् शंकर से इस प्रकार प्रार्थना करे-
'सबको सुख देने वाले कृपानिधान भूतनाथ शिव! मैं आपका हूँ। आपके गुणों में ही मेरे प्राण बसते हैं अथवा आपके गुण ही मेरे प्राण-मेरे जीवनसर्वस्व हैं। मेरा चित्त सदा आपके ही चिन्तन में लगा हुआ है। यह जानकर मुझ पर प्रसन्न होइये। कृपा कीजिये। शंकर! मैंने अनजान- में अथवा जान-बूझकर यदि कभी आपका जप और पूजन आदि किया हो तो आपकी कृपा से वह सफल हो जाय। गौरीनाथ! मैं आधुनिक युग का महान् पापी हूँ, पतित हूँ और आप सदा से ही परम महान् पतितपावन हैं। इस बात का विचार करके आप जैसा चाहें, वैसा करें। महादेव! सदाशिव! वेदों, पुराणों, नाना प्रकार के शास्त्रीय सिद्धान्तों और विभिन्न महर्षियो ने भी अब तक आपको पूर्णरूप से नहीं जाना है। फिर मैं कैसे जान सकता हूँ? महेश्वर! मैं जैसा हूँ, वैसा ही, उसी रूप में सम्पूर्ण भाव से आपका हूँ, आपके आश्रित हूँ, इसलिये आपसे रक्षा पाने के योग्य हूँ। परमेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइये।'*
[तावकस्त्वद्गुणप्राणस्त्वच्चितोऽहं सदा मृड।
कृपानिधे इति ज्ञात्वा भूतनाथ प्रसीद मे।।
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया।
कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शङ्कर।।
अहं पापी महानघ पावनश्च भवान्महान्।
इति विज्ञाय गौरीश यदिच्छसि तथा कुरु।।
वेदैः पुराणैः सिद्धान्तैर्ऋषिभिर्विविधैरपि।
न ज्ञातोऽसि महादेव कुतोऽहं त्वां सदाशिव।।
यथा तथा त्वदीयो5स्मि सर्वभावैर्महेश्वर।
रक्षणीयस्त्वयाहं वै प्रसीद परमेश्वर।।
(शि० पु० वि० २०। ५६-६०)]
मुने! इस प्रकार प्रार्थना करके हाथ में लिये हुए अक्षत और पुष्प को भगवान् शिव के ऊपर चढ़ाकर उन शम्भुदेव को भक्तिभाव से विधिपूर्वक साष्टांग प्रणाम करे। तदनन्तर शुद्ध बुद्धिवाला उपासक शास्त्रोक्त विधि से इष्टदेव की परिक्रमा करे। फिर श्रद्धापूर्वक स्तुतियों द्वारा देवेश्वर शिव की स्तुति करे। इसके बाद गला बजाकर (गलेसे अव्यक्त शब्दका उच्चारण करके) पवित्र एवं विनीत चित्तवाला साधक भगवान् को प्रणाम करे। फिर आदरपूर्वक विज्ञप्ति करे और उसके बाद विसर्जन। मुनिवरो! इस प्रकार विधिपूर्वक पार्थिवपूजा बतायी गयी। वह भोग और मोक्ष देने वाली तथा भगवान् शिव के प्रति भक्तिभाव को बढ़ानेवाली है।
(अध्याय १९ - २०)