शिवनाम-जप तथा भस्मधारण की महिमा, त्रिपुण्ड्र के देवता और स्थान आदि का प्रतिपादन
ऋषि बोले – महाभाग व्यासशिष्य सूतजी। आपको नमस्कार है। अब आप उस परम उत्तम भस्म-विश्वेश्वर संहिता का वर्णन कीजिये। भस्म-विश्वेश्वर संहिता, रुद्राक्ष-विश्वेश्वर संहिता तथा उत्तम नाम-विश्वेश्वर संहिता – इन तीनों का परम प्रसन्नतापूर्वक प्रतिपादन कीजिये और हमारे हृदय को आनन्द दीजिये।
सुतजी ने कहा – महर्षियो! आपने बहुत उत्तम बात पूछी है। वह समस्त लोकों के लिए हितकारक विषय है। जो लोग भगवान् शिव की उपासना करते हैं, वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं, उनका देह्धारण सफल है तथा उनके समस्त कुल का उद्धार हो गया। जिनके मुख में भगवान् शिव का नाम है, जो अपने मुख से सदाशिव और शिव इत्यादि नामों का उच्चारण करते रहते हैं, पाप उनका उसी तरह स्पर्श नहीं करते, जैसे खदिर-वृक्ष के अंगार को छूने का साहस कोई भी प्राणी नहीं कर सकते। 'हे श्रीशिव! आपको नमस्कार है' (श्रीशिवाय नमस्तुभ्यम) ऐसी बात जब मूँह से निकलती है, तब वह मुख समस्त पापों का विनाश करने वाला पावन तीर्थ बन जाता है। जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक उस मुख का दर्शन करता है, उसे निश्चय ही तीर्थसेवनजनित फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणो! शिव का नाम, विभूति (भस्म) तथा रुद्राक्ष –ये तीनों त्रिवेणी के समान परम पुण्यमय माने गये हैं। जहाँ ये तीनों शुभतर वस्तुएँ सर्वदा रहती हैं, उसके दर्शनमात्र से मनुष्य त्रिवेणी-स्नान का फल पा लेता है। भगवान् शिव का नाम 'गंगा' है, विभूति 'यमुना' मानी गयी है तथा रुद्राक्ष को 'सरस्वती' कहा गया है। इन तीनों की संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापों का नाश करने वाली है। श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इन तीनों की महिमा को सदसद्विलक्षण भगवान् महेश्वर के बिना दूसरा कौन भलीभाँति जानता है। इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, वह सब तो केवल महेश्वर ही जानते हैं।
विप्रगण! मैं अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार संक्षेप से भगवन्नामों की महिमा का कुछ वर्णन करता हूँ। तुम सब लोग प्रेमपूर्वक सुनो। तुम सब लोग प्रेमपूर्वक सुनो। यह नाम-विश्वेश्वर संहिता समस्त पापों को हर लेनेवाला सर्वोत्तम साधन है। 'शिव' इस नामरूपी दावानल से महान् पातकरूपी पर्वत अनायास ही भस्म हो जाता है – यह सत्य है, सत्य है। इसें संशय नहीं है। शौनक! पापमूलक जो नाना प्रकार के दुःख हैं, वे एकमात्र शिवनाम (भगवन्नाम) से ही नष्ट होने वाले हैं। दुसरे साधनों से सम्पूर्ण यत्न करने पर भी पूर्णतया नष्ट नहीं होते हैं। जो मनुष्य इस भूतल पर सदा भगवान् शिव के नामों के जप में ही लगा हुआ है, वह वेदों का ज्ञाता है, वह पुण्यात्मा है, वह धन्यवाद का पात्र है तथा वह विद्वान् माना गया है। मुने! जिनका शिवनाम-जप में विश्वास है, उनके द्वारा आचरित नाना प्रकार के धर्म तत्काल फल देने के लिये उत्सुक हो जाते हैं। महर्षे! भगवान् शिव के नाम से जितने पाप नष्ट होते हैं, उतने पाप मनुष्य इस भूतल पर कर नहीं सकते। [भवन्ति विविधा धर्मास्तेषां सद्यः फलोंमुखाः। येपां गवति विश्वासः शिवनामजपे मुने।। पातकानि विनश्यन्ति वाचन्ति शिवनामतः। भुवि तार्वांत पापानि किषन्ते न नौर्मुने।। (शिवपुराण विद्येश्वर संहिता -२३/२६-२७)] जो शिवनाम रूपी नौका पर आरूढ़ हो संसाररूपी समुद्र को पार करते हैं, उनके जन्म-मरण रूप संसार के मुलभुत वे सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। महामुने! संसार के मुलभुत पातकरूपी पादपों का शिवनामरूपी कुठार से निश्चय ही नाश हो जाता है। जो पापरूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव-नामरूपी अमृत का पान करना चाहिये। पापों के दावानल से दग्ध होने वाले लोगों को उस शिव-नामामृत के बिना शान्ति नहीं मिल सकती। जो शिवनामरूपी सुधा की वृष्टिजनित धारा में गोते लगा रहे हैं, वे संसाररूपी दावानल के बीच में खड़े होने पर भी कदापि शोक के भागी नहीं होते। जिन महात्माओं के मन में शिवनाम के प्रति बड़ी भारी भक्ति है, ऐसे लोगों की सहसा और सर्वथा मुक्ति होती है। मुनीश्वर! जिसने अनेक जन्मों तक तपस्या की है, उसी की शिवनाम के प्रति भक्ति होती है, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है।
जिसके मन में भगवान् शिव के नाम के प्रति कभी खण्डित न होने वाली असाधारण भक्ति प्रकट हुई है, उसी के लिये मोक्ष सुलभ है – यह मेरा मत है। जो अनेक पाप करके भी भगवान् शिव के नाम-जप में आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापों से मुक्त हो ही जाता है – इसमें संशय नहीं है। जैसे वनमें दावानल से दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिवनामरूपी दावानल से दग्ध होकर उस समय तक के सारे पाप भस्म हो जाते है। शौनक! जिसके अंग नित्य भस्म लगाने से पवित्र हो गये हैं तथा जो शिवनाम-जप का आदर करने लगा है, वह घोर संसार-सागर को भी पार कर ही लेता है। सम्पूर्ण वेदों का अवलोकन करके पूर्ववर्ती महर्षियों ने यही निश्चित किया है कि भगवान् शिव के नाम का जप संसार-सागर को पार करने के लिये सर्वोत्तम उपाय है। मुनिवरो! अधिक कहने से क्या लाभ, मैं शिव-नाम के सर्वपापापहारी विश्वेश्वर संहिता का एक ही श्लोक में वर्णन करता हूँ। भगवान् शंकर के एक नाम में भी पापहरण की जितनी शक्ति है, उतना पातक मनुष्य कभी कर ही नहीं सकता। मुने! पूर्वकाल में महापापी राजा इन्द्रद्युम्न ने शिवनाम के प्रभाव से ही उत्तम सदगति प्राप्त की थी। इसी तरह कोई ब्राह्मणी युवती भी जो बहुत पाप कर चुकी थी, शिवनाम के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त हुई। द्विजवरो! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवन्नाम के उत्तम विश्वेश्वर संहिताका वर्णन किया है। अब तुम भस्मका विश्वेश्वर संहिता सुनो, जो समस्त पावन वस्तुओं को भी पावन करने वाला है।
महर्षियो! भस्म सम्पूर्ण मंगलो को देने वाला तथा उत्तम है; उसके दो भेद बताये गये हैं, उन भेदों का मैं वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो। एक को 'महाभस्म' जानना चाहिये और दुसरे को 'स्वल्पभस्म'। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकार का कहा गया है – श्रौत, स्मार्त और लौकिक। स्वल्पभस्म के भी बहुत-से भेदों का वर्णन किया गया है। श्रौत और स्मार्त भस्म को केवल द्विजों के ही उपयोग में आने के योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है, वह अन्य सब लोगों के भी उपयोग में आ सकता हैं। श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों का वैदिक मन्त्र के उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिये। दूसरे लोगों के लिये बिना मन्त्र के ही केवल धारण करने का विधान है। जले हुए गोबर से प्रकट होने वाला भस्म आग्नेय कहलाता है। महामुने! वह भी त्रिपुण्ड्र का द्रव्य है, ऐसा कहा गया है। अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिये। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम में आ सकता है। जाबालोपनिषद में आये हुए 'अग्निः' इत्यादि सात मन्त्रों द्वारा जलमिश्रित भस्म से धूलन (विभिन्न अंगों में मर्दन या लेपन) करना चाहिये। महर्षि जाबालिने सभी वर्णों और आश्रमों के लिये मन्त्र से या बिना मन्त्र के भी आदरपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाने की आवश्यकता बतायी है। समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड्र लगाना – इन कार्यों को मोक्षार्थी पुरुष प्रमाद से भी न छोड़े, ऐसा श्रुतिका आदेश है। भगवान् शिव और विष्णु ने भी तिर्यक त्रिपुण्ड्र धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जातिभ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड्र के रूप में भस्म धारण किया है।
इसके पश्चात् भस्म-धारण तथा त्रिपुण्ड्र की महिमा एवं विधि बताकर सूतजी ने फिर कहा – महर्षियो! इस प्रकार मैंने संक्षेप से त्रिपुण्ड्र का विश्वेश्वर संहिता बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिये गोपनीय रहस्य है। अतः तुम्हें भी इसे गुप्त ही रखना चाहिये। मुनिवरो! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएँ बनायी जाती हैं, उन्ही को विद्वानों ने त्रिपुण्ड्र कहा है। भौंहों के मध्य-भाग से लेकर जहाँ तक भौंहों का अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट में धारण करना चाहिये। मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएँ करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गयी रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीच की तीन अंगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्तिभाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करे। त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्ष को देने वाला है। त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं; मैं उनका परिचय देता हूँ। सावधान होकर सुनो। मुनिवरो! प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातःसवन तथा महादेव – ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं, यह बात शिव-दीक्षापरायण पुरुषों को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये। प्रणव का दूसरा अक्षर उकार, दक्षिणात्रि, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा तथा महेश्वर – ये दूसरी रेखाके नौ देवता हैं। प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन तथा शिव – ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं। इस प्रकार स्थान-देवताओं को उत्तम भक्तिभाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड्र धारण करे तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। मुनीश्वर! ये सम्पूर्ण अंगों में स्थान-देवता बताये गये हैं; अब उनके सम्बन्धी स्थान बताता हूँ, भक्तिपूर्वक सुनो। बत्तीस, सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानों में त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथों, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग, नाभि, दोनों अंडकोष, दोनों ऊरू, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर – ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं, इन में क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल तथा आठ वसुओं का निवास है। धर, ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभास – ये आठ वसु कहे गये हैं। इन सबका नाम मात्र लेकर इनके स्थानों में विद्वान् पुरुष त्रिपुण्ड्र धारण करे।
अथवा एकाग्रचित्त हो सोलह स्थान में ही त्रिपुण्ड्र धारण करे। मस्तक, ललाट, कण्ठ, दोनों कन्धों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयों में, हृदय में, नाभि में, दोनों पसलियों में तथा पृष्ठभाग में त्रिपुण्ड्र लगाकर वहाँ दोनों अश्विनीकुमारों का शिव, शक्ति, रुद्र, ईश तथा नारद का और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करे। ये सब मिलकर सोलह देवता हैं। अश्विनीकुमार दो कहे गये हैं। नासत्य और दस्त्र अथवा मस्तक, केश, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, हृदय, नाभि, दोनों ऊरू, दोनों जानु, दोनों पैर और पृष्ठभाग – इन सोलह स्थानों में सोलह त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक में शिव, केश में चन्द्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा, मुख में विघ्नराज गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, हृदय में शम्भु, नाभि में प्रजापति, दोनों ऊरुओं में नाग और नागकन्याएँ, दोनों घुटनों में ऋषिकन्याएँ, दोनों पैरों में समुद्र तथा विशाल पृष्ठभाग में सम्पूर्ण तीर्थ देवतारूप से विराजमान हैं। इस प्रकार सोलह स्थानों का परिचय दिया गया। अब आठ स्थान बताये जाते हैं। गुह्य स्थान, ललाट, परम उत्तम कर्णयुगल, दोनों कंधे, हृदय और नाभि – ये आठ स्थान हैं। इनमें ब्रह्मा तथा सप्तर्षि – ये आठ देवता बताये गये हैं। मुनीश्वरो! भस्म के स्थान को जानने वाले विद्वानों ने इस तरह आठ स्थानों का परिचय दिया है अथवा मस्तक, दोनों भुजाएँ, हृदय और नाभि – इन पाँच स्थानों को भस्मवेत्ता पुरुषों ने भस्म धारण के योग्य बताया है। यथासम्भव देश, काल आदि की अपेक्षा रखते हुए भस्म को अभिमन्त्रित करना और जल में मिलाना आदि कार्य करे। यदि भस्म में भी असमर्थ हो तो त्रिपुण्ड्र आदि लगाये। त्रिनेत्रधारी, तीनों गुणों के आधार तथा तीनों देवताओं के जनक भगवान् शिव का स्मरण करते हुए 'नमः शिवाय' कहकर ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाये। 'ईशाभ्यां नमः' ऐसा कहकर दोनों पार्श्वभागों में त्रिपुण्ड्र धारण करे। 'बिजाभ्यां नमः' यह बोलकर दोनों कलाइयों में भस्म लगावे। 'पितृभ्यां नमः' कहकर ऊपर के अंग में तथा 'भीमाय नमः' कहकर पीठ में और सिर के पिछले भाग में त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये।
(अध्याय २३ - २४)