मायानिर्मित नगर में शीलनिधि की कन्या पर मोहित हुए नारदजी का भगवान् विष्णु से उनका रूप माँगना, भगवान् का अपने रूपके साथ उन्हें वानरका-सा मुँह देना, कन्या का भगवान् को वरण करना और कुपित हुए नारद का शिवगणों को शाप देना

सूतजी कहते हैं – महर्षियो! जब नारदमुनि इच्छानुसार वहाँ से चले गये, तब भगवान् शिव की इच्छा से मायाविशारद श्रीहरि ने तत्काल अपनी माया प्रकट की। उन्होंने मुनि के मार्ग में एक विशाल नगर की रचना की, जिसका विस्तार सौ योजन था। वह अद्भुत नगर बड़ा ही मनोहर था। भगवान् ने उसे अपने वैकुण्ठलोक से भी अधिक रमणीय बनाया था। नाना प्रकार की वस्तुएँ उस नगर की शोभा बढ़ाती थी। वहाँ स्त्रियों और पुरुषों के लिये बहुत-से विहार-स्थल थे। वह श्रेष्ठ नगर चारों वर्णों के लोगों से भरा था। वहाँ शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वे अपनी पुत्री का स्वयंवर करने के लिये उद्यत थे। अतः उन्होंने महान् उत्सव का आयोजन किया था। उनकी कन्या का वरण करने के लिये उत्सुक हो चारों दिशाओं से बहुत-से राजकुमार पधारे थे, जो नाना प्रकार की वेशभूषा तथा सुन्दर शोभा से प्रकाशित हो रहे थे। उन राजकुमारों से वह नगर भरा-पूरा दिखायी देता था। ऐसे सुन्दर राजनगर को देख नारदजी मोहित हो गये। वे राजा शीलनिधि के द्वार पर गये। मुनिशिरोमणि नारद को आया देख महाराज शीलनिधि ने श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बिठाकर उनका पूजन किया। तत्पश्चात् अपनी सुन्दरी कन्या को, जिसका नाम श्रीमती था, बुलवाया और उससे नारदजी के चरणों में प्रणाम करवाया। उस कन्या को देखकर नारदमुनि चकित हो गये और बोले – 'राजन्! यह देवकन्या के समान सुन्दरी महाभागा कन्या कौन है?' उनकी यह बात सुनकर राजा ने हाथ जोड़कर कहा – 'मुने! यह मेरी पुत्री है। इसका नाम श्रीमती है। अब इसके विवाह का समय आ गया है। यह अपने लिये सुन्दर वर चुनने के निमित्त स्वयंवर में जाने वाली है। इसमें सब प्रकार के शुभ लक्षण लक्षित होते हैं। महर्षे! आप इसका भाग्य बताइये।'

राजा के इस प्रकार पुछ्ने पर काम से विह्वल हुए मुनिश्रेष्ठ नारद उस कन्या को प्राप्त करने की इच्छा मन में लिये राजा को सम्बोधित करके इस प्रकार बोले – 'भूपाल! आपकी यह पुत्री समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न है, परम सौभाग्यवती है। अपने महान् भाग्य के कारण यह धन्य है और साक्षात् लक्ष्मी की भाँति समस्त गुणों की आगार है। इसका भावी पति निश्चय ही भगवान् शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित न होने वाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा।'

ऐसा कहकर राजा से विदा ले इच्छानुसार विचरनेवाले नारद मुनि वहाँ से चल दिये। वे काम के वशीभूत हो गये थे। शिव की माया ने उन्हें विशेष मोह में डाल दिया था। वे मुनि मन-ही-मन सोचने लगे कि 'मैं इस राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूँ? स्वयंवर में आये हुए नरेशों में से सबको छोड़कर यह एकमात्र मेरा ही वरण करे, यह कैसे सम्भव हो सकता है? समस्त नारियों को सौन्दर्य सर्वथा प्रिय होता है। सौन्दर्य को देखकर ही वह प्रसन्नतापूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें संशय नहीं है।'

ऐसा विचारकर काम से विह्वल हुए मुनिवर नारद भगवान् विष्णु का रूप ग्रहण करने के लिये तत्काल उनके लोक में जा पहुँचे। वहाँ भगवान् विष्णु को प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले – 'भगवन्! मैं एकान्त में आप से अपना सारा वृतान्त कहूँगा।' तब 'बहुत अच्छा' कहकर लक्ष्मीपति श्रीहरि नारदजी के साथ एकान्त में जा बैठे और बोले – 'मुने! अब आप अपनी बात कहिये।'

तब नारदजी ने कहा – भगवन्! आपके भक्त जो राजा शीलनिधि हैं, वे सदा धर्म-पालन में तत्पर रहते हैं। उनकी एक विशाललोचना कन्या है, जो बहुत ही सुन्दरी है। उसका नाम श्रीमती है। वह विश्वमोहिनी के रूप में विख्यात है और तीनों लोकों में सब से अधिक सुन्दरी है। प्रभो! आज मैं शीघ्र ही उस कन्या से विवाह करना चाहता हूँ। राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री की इच्छा से स्वयंवर रचाया है। इसलिये चारों दिशाओं से वहाँ सहस्त्रों राजकुमार पधारे हैं। नाथ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ। अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिये, जिससे राजकुमारी श्रीमती निश्चय ही मुझे वर ले।

सूतजी कहते है – महर्षियो! नारदमुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और भगवान् शंकर के प्रभाव का अनुभव करके उन दयालु प्रभु ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया –

भगवान् विष्णु बोले – मुने! तुम अपने अभीष्ट स्थान को जाओ। मैं उसी तरह तुम्हारा हित-साधन करूँगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य अत्यन्त पीड़ित रोगी का करता है; क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो।

ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ने नारदमुनि को मुख तो वानर का दे दिया और शेष अंगों में अपने-जैसा स्वरूप देकर वे वहाँ से अन्तर्धान हो गये। भगवान् की पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप प्राप्त हो गया समझकर नारद मुनि को बड़ा हर्ष हुआ। वे अपने को कृतकृत्य मानने लगे। भगवान् ने क्या प्रयत्न किया है, इसको वे समझ न सके। तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ राजा शीलनिधि ने राजकुमारों से भरी हुई स्वयंवर-सभा का आयोजन किया था। विप्रवरो! राजपुत्रों से घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवर सभा दूसरी इन्द्रसभा के समान अत्यन्त शोभा पा रही थी। नारदजी उस राजसभा में जा बैठे और वहाँ बैठ कर प्रसन्न मन से बार-बार यही सोचने लगे कि 'मैं भगवान् विष्णु के समान रूप धारण किये हुए हूँ। अतः वह राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी, दूसरे का नहीं।' मुनिश्रेष्ठ नारद को यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुँह कितना कुरूप है। उस सभा में बैठे हुए सब मनुष्यों ने मुनि को उनके पूर्वरूप में ही देखा। राजकुमार आदि कोई भी उनके रूप-परिवर्तन के रहस्य को न जान सके। वहाँ नारदजी की रक्षा के लिये भगवान् रुद्र के दो पार्षद आये थे, जो ब्राह्मण का रूप धारण करके गूढ़ भाव से वहाँ बैठे थे। वे ही नारदजी के रूप-परिवर्तन के उत्तम भेद को जानते थे। मुनि को कामावेश से मूढ हुआ जान वे दोनों पार्षद उनके निकट गये और आपस में बातचीत करते हुए उनकी हँसी उड़ाने लगे। परंतु मुनि तो काम से विह्वल हो रहे थे। अतः उन्होंने उनकी यथार्थ बात भी अनसुनी कर दी। वे मोहित हो श्रीमती को प्राप्त करने की इच्छा से उसके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।

इसी बीच में वह सुन्दरी राजकन्या स्त्रियों से घिरी हुई अन्तःपुर से वहाँ आयी। उसने अपने हाथ में सोने की एक सुन्दर माला ले रखी थी। वह शुभलक्षणा राजकुमारी स्वयंवर के मध्य-भाग में लक्ष्मी के समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा रही थी। उत्तम व्रत का पालन करने वाली वह भूपकन्या माला हाथ में लेकर अपने मन के अनुरूप वर का अन्वेषण करती हुई सारी सभा में भ्रमण करने लगी। नारदमुनि का भगवान् विष्णु के समान शरीर और वानर जैसा मुँह देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओर से दृष्टी हटा कर प्रसन्न मन से दूसरी ओर चली गयी। स्वयंवर सभा में अपने मनोवांछित वर को न देखकर वह भयभीत हो गयी। राजकुमारी उस सभा के भीतर चुपचाप खड़ी रह गयी। उसने किसी के गले में जयमाला नहीं डाली। इतने में ही राजा के समान वेश-भूषा धारण किये भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे। किन्हीं दुसरे लोगों ने उन को वहाँ नहीं देखा। केवल उस कन्या की ही दृष्टि उन पर पड़ी। भगवान् को देखते ही उस परम सुन्दरी राजकुमारी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उसने तत्काल ही उनके कण्ठ में वह माला पहना दी। राजा का रुपधारण करने वाले भगवान् विष्णु उस राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो गये और अपने धाम में जा पहुँचे। इधर सब राजकुमार श्रीमती की ओर से निराश हो गये। नारदमुनि तो कामवेदना से आतुर हो रहे थे। इस लिये वे अत्यन्त विह्वल हो उठे। तब वे दोनों विप्ररूपधारी ज्ञानविशारद रुद्रगण काम-विह्वल नारदजी से उसी क्षण बोले –

रुद्रगणों ने कहा – हे नारद! हे मुने! तुम व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हो और सौन्दर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हो। अपना वानर के समान घृणित मुँह तो देख लो।

सुतजी कहते हैं – महर्षियो! रुद्रगणों का वह वचन सुनकर नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ। वे शिव की माया से मोहित थे। उन्होंने दर्पण में अपना मुँह देखा। वानर के समान अपना मुँह देख वे तुरंत ही क्रोध से जल उठे और माया से मोहित होने के कारण उन दोनों शिवगणों की वहाँ शाप देते हुए बोले – 'अरे! तुम दोनों ने मुझ ब्राह्मण का उपहास किया है। अतः तुम ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न राक्षस हो जाओ। ब्राह्मण की संतान होने पर भी तुम्हारे आकार राक्षस के समान ही होंगे।' इस प्रकार अपने लिये शाप सुनकर वे दोनों ज्ञानिशिरोमणि शिवगण मुनि को मोहित जानकर कुछ नहीं बोले। ब्राह्मणो! वे सदा सब घटनाओं में भगवान् शिव की ही इच्छा मानते थे। अतः उदासीन भाव से अपने स्थान को चले गये और भगवान् शिव की स्तुति करने लगे।

(अध्याय ३)