नारदजी का भगवान् विष्णु को क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना; फिर माया के दूर हो जाने पर पश्चात्तापपूर्वक भगवान् के चरणों में गिरना और शुद्धि का उपाय पूछना तथा भगवान् विष्णु का उन्हें समझा-बुझाकर शिव का माहात्म्य जानने के लिये ब्रह्माजी के पास जाने का आदेश और शिव के भजन का उपदेश देना

सूतजी कहते हैं – महर्षियो! माया-मोहित नारदमुनि उन दोनों शिवगणों को यथोचित शाप देकर भी भगवान् शिव के इच्छावश मोहनिद्रा से जाग न सके। वे भगवान् विष्णु के किये हुए कपट को याद करके मन में दुस्सह क्रोध लिये विष्णुलोक को गये और समिधा पाकर प्रज्वलित हुए अग्निदेव की भाँति क्रोध से जलते हुए बोले – उनका ज्ञान नष्ट हो गया था। इस लिए वे दुर्वचनपूर्ण व्यंग सुनाने लगे।

नारदजी ने कहा – हरे! तुम बड़े दुष्ट हो, कपटी हो और समस्त विश्व को मोह में डाले रहते हो। दूसरों का उत्साह या उत्कर्ष तुम से सहा नहीं जाता। तुम मायावी हो, तुम्हारा अन्तःकरण मलिन है। पूर्वकाल में तुम्हीं ने मोहिनी रूप धारण करके कपट किया, असुरों को वारुणी मदिरा पिलायी, उन्हें अमृत नहीं पीने दिया। छल-कपट में ही अनुराग रखने वाले हरे! यदि महेश्वर रुद्र दया करके विष न पी लेते तो तुम्हारी सारी माया उसी दिन समाप्त हो जाती। विष्णुदेव! कपटपूर्ण चाल तुम्हें अधिक प्रिय है। तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है, तो भी भगवान् शंकर ने तुम्हें स्वतन्त्र बना दिया है। तुम्हारी इस चाल-ढाल को समझकर अब वे (भगवान् शिव) भी पश्चात्ताप करते होंगे। अपनी वाणी रूप वेद की प्रामाणिकता स्थापित करने वाले महादेवजी ने ब्राह्मण को सर्वोपरि बताया है। हरे! इस बात को जानकर आज मैं बलपूर्वक तुम्हें ऐसी सीख दूँगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कर्म नहीं कर सकोगे। अब तक तुम्हें किसी शक्तिशाली या तेजस्वी पुरुष से पाला नहीं पड़ा था। इसलिये आज तक तुम निडर बने हुए हो। परंतु विष्णो! अब तुम्हें अपनी करनी का पूरा-पूरा फल मिलेगा!

भगवान् विष्णु से ऐसा कहकर मायामोहित नारदमुनि अपने ब्रह्मतेज का प्रदर्शन करते हुए क्रोध से खिन्न हो उठे और शाप देते हुए बोले – 'विष्णो! तुमने स्त्री के लिये मुझे व्याकुल किया है। तुम इसी तरह सबको मोह में डालते रहते हो। यह कपटपूर्ण कार्य करते हुए तुम ने जिस स्वरूप से मुझे संयुक्त किया था, उसी स्वरूप से तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्री के वियोग का दुःख भोगो। तुमने जिन वानरों के समान मेरा मूँह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों। तुम दूसरों को (स्त्री-विरहका) दुःख देने वाले हो, अतः स्वयं भी तुम्हें स्त्री के वियोग का दुःख प्राप्त हो। अज्ञान से मोहित मनुष्यों के समान तुम्हारी स्थिति हो।'

अज्ञान से मोहित हुए नारदजी ने मोहवश श्रीहरि को जब इस तरह शाप दिया, तब उन्होंने शम्भु की माया की प्रशंसा करते हुए उस शाप को स्वीकार कर लिया। तदनन्तर महालीला करने वाले शम्भु ने अपनी उस विश्वमोहिनी माया को, जिसके कारण ज्ञानी नारदमुनि भी मोहित हो गये थे, खींच लिया। उस माया के तिरोहित होते ही नारदजी पूर्ववत् शुद्धबुद्धि से युक्त हो गये। उन्हें पूर्ववत् ज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी सारी व्याकुलता जाती रही। इससे उनके मन में बड़ा विस्मय हुआ। वे अधिकाधिक पश्चात्ताप करते हुए बारंबार अपनी निन्दा करने लगे। उस समय उन्होंने ज्ञानी को भी मोह में डालनेवाली भगवान् शम्भु की माया की सराहना की। तदनन्तर यह जानकर कि माया के कारण ही मैं भ्रम में पड़ गया था – यह सब कुछ मेरा माया-जनित भ्रम ही था, वैष्णवशिरोमणि नारदजी भगवान् विष्णु के चरणों में गिर पड़े। भगवान् श्रीहरि ने उन्हें उठाकर खड़ा कर दिया। उस समय अपनी दुर्बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण वे यों बोले – 'नाथ! माया से मोहित होने के कारण मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी। इसलिये मैंने आपके प्रति बहुत दुर्वचन कहे हैं, आपको शाप तक दे डाला है। प्रभो! उस शाप को आप मिथ्या कर दीजिये। हाय! मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। अब मैं निश्चय ही नरक में पड़ूंगा। हरे! मैं आपका दास हूँ। बताइये, मैं क्या उपाय–कौन-सा प्रायश्चित करूँ, जिससे मेरा पाप-समूह नष्ट हो जाय और मुझे नरक में न गिरना पड़े।' ऐसा कहकर शुद्ध बुद्धिवाले मुनिशिरोमणि नारदजी पुनः भक्तिभाव से भगवान् विष्णु के चरणों में गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था। तब श्रीविष्णु ने उन्हें उठाकर मधुर वाणी में कहा –

भगवान् विष्णु बोले – तात! खेद न करो। तुम मेरे श्रेष्ठ भक्त हो, इसमें संशय नहीं है। मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ, सुनो! उससे निश्चय ही तुम्हारा परम हित होगा, तुम्हें नरक में नहीं जाना पड़ेगा। भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। तुम ने मद से मोहित होकर जो भगवान् शिव की बात नहीं मानी थी – उसकी अवहेलना कर दी थी, उसी अपराध का भगवान् शिव ने तुम्हें ऐसा फल दिया है; क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता हैं। तुम अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लो कि भगवान् शिव की इच्छा से ही यह सब कुछ हुआ है। सबके स्वामी परमेश्वर शंकर ही गर्व को दूर करने वाले हैं। वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं। उन्हीं का सच्चिदानन्दरूप से बोध होता है। वे निर्गुण और निर्विकार हैं। सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों से परे हैं। वे ही अपनी माया को लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश – इन तीन रूपों में प्रकट होते हैं। निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं। निर्गुण अवस्था में उन्हीं का नाम शिव है। वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनन्त और महादेव आदि नामों से कहे जाते हैं। उन्हीं की सेवा से ब्रह्माजी जगत् के स्रष्टा हुए हैं और मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ। वे स्वयं ही रुद्ररूप से सदा सबका संहार करते हैं। वे शिवत्त्वरूप से सबके साक्षी हैं, माया से भिन्न और निर्गुण हैं। स्वतन्त्र होने के कारण वे अपनी इच्छा के अनुसार चलते हैं। उनका विहार – आचार-व्यवहार उत्तम है और वे भक्तों पर दया करने वाले हैं। नारदमुने! मैं तुम्हें एक सुन्दर उपाय बताता हूँ, जो सुखद, समस्त पापों का नाशक और सदा भोग एवं मोक्ष देने वाला हैं। तुम उसे सुनो! अपने सारे संशयों को त्याग कर तुम भगवान् शंकर के सुयश का गान करो और सदा अनन्य भाव से शिव के शतनामस्तोत्र का पाठ करो। मुने! तुम निरन्तर उन्हीं की उपासना और उन्हीं का भजन करो। उन्हीं के यश को सुनो और गाओ तथा प्रति दिन उन्हीं की पूजा-अर्चा करते रहो। नारद! जो शरीर, मन और वाणी द्वारा भगवान् शंकर की उपासना करता है, उसे पण्डित या ज्ञानी जानना चाहिये। वह जीवन्मुक्त कहलाता है। 'शिव' इस नामरूपी दावानल से बड़े-बड़े पातकों के असंख्य पर्वत अनायास भस्म हो जाते हैं – यह सत्य हैं, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। जो भगवान् शिव के नाम रूपी नौका का आश्रय लेते हैं, वे संसार-सागर से पार हो जाते हैं। संसार के मुलभुत उनके सारे पाप निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं। महामुने! संसार के मुलभुत जो पातकरूपी वृक्ष हैं, उनका शिवनामरूपी कुठार से निश्चय ही नाश हो जाता है।

जो लोग पापरूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिवनामरूपी अमृत का पान करना चाहिये। पापदावाग्नि से दग्ध होने वाले प्राणियों को उस (शिवनामामृत) के बिना शान्ति नहीं मिल सकती। सम्पूर्ण वेदों का अवलोकन करके पूर्ववती विद्वानों ने यही निश्चय किया है कि भगवान् शिव की पूजा ही उत्कृष्ट साधन तथा जन्म-मरणरूपी संसारबन्धन के नाश का उपाय है। आज से यत्नपूर्वक सावधान रहकर विधि-विधान के साथ भक्तिभाव से नित्य-निरन्तर जगदम्बा पार्वती सहित महेश्वर सदाशिव का भजन करो, नित्य शिव की ही कथा सुनो और कहो तथा अत्यन्त यत्न करके बारंबार शिव भक्तों का पूजन किया करो। मुनिश्रेष्ठ! अपने हृदय में भगवान् शिव के उज्ज्वल चरणारविन्दों की स्थापना करके पहले शिव के तीर्थों में विचरो। मुने! इस प्रकार परमात्मा शंकर के अनुपम माहात्म्य का दर्शन करते हुए अन्त में आनन्दवन (काशी)-को जाओ, वह स्थान भगवान् शिव को बहुत ही प्रिय है। वहाँ भक्तिपूर्वक विश्वनाथजी का दर्शन-पूजन करो। विशेषतः उनकी स्तुति-वन्दना करके तुम निर्विकल्प (संशयरहित) हो जाओगे, नारदजी! इसके बाद तुम्हें मेरी आज्ञा से भक्तिपूर्वक अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये निश्चय ही ब्रह्मलोक में जाना चाहिये। वहाँ अपने पिता ब्रह्माजी की विशेष रूप से स्तुति-वन्दना करके तुम्हें प्रसन्नतापूर्ण हृदय से बारंबार शिव-महिमा के विषय में प्रश्न करना चाहिये। ब्रह्माजी शिव-भक्तों में श्रेष्ठ हैं। वे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता के साथ भगवान् शंकर का माहात्म्य और शतनामस्तोत्र सुनायेंगे। मुने! आज से तुम शिवाराधना में तत्पर रहने वाले शिवभक्त हो जाओ और विशेष रूप से मोक्ष के भागी बनो। भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार प्रसन्नचित्त हुए भगवान् विष्णु नारदमुनि को प्रेमपूर्वक उपदेश देकर श्रीशिव का स्मरण, वन्दन और स्तवन करके वहाँ से अन्तर्धान हो गये।

(अध्याय ४)