ब्रह्मा और विष्णु को भगवान् शिव के शब्दमय शरीर का दर्शन
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार हम दोनों देवता गर्वरहित हो निरन्तर प्रणाम करते रहे। हम दोनों के मन में एक ही अभिलाषा थी कि इस ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर प्रत्यक्ष दर्शन दें। भगवान् शंकर दीनों के प्रतिपालक, अहंकारियों का गर्व चूर्ण करने वाले तथा सबके अविनाशी प्रभु हैं। वे हम दोनों पर दयालु हो गये। उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठ से, 'ॐ' 'ॐ' ऐसा शब्द रूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्ट रूप से सुनायी देता था। वह नाद प्लुत स्वर में अभिव्यक्त हुआ था। जोर से प्रकट होने वाले उस शब्द के विषय में 'यह क्या है' ऐसा सोचते हुए समस्त देवताओं के आराध्य भगवान् विष्णु मेरे साथ संतुष्टचित्त से खड़े रहे। वे सर्वथा वैरभाव से रहित थे। उन्होंने लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आदिवर्ण अकार का दर्शन किया। उत्तर भाग में उकार का, मध्य-भाग में मकार का और अन्त में 'ॐ' उस नाद का साक्षात् दर्शन एवं अनुभव किया। दक्षिण भाग में प्रकट हुए आदिवर्ण अकार को सूर्यमण्डल के समान तेजोमय देखकर जब उन्होंने उत्तर भाग में दृष्टिपात किया, तब वहाँ उकार वर्ण अग्नि के समान दीप्तिशाली दिखायी दिया। मुनिश्रेष्ठ! इसी तरह उन्होंने मध्य-भाग में मकार को चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल कान्ति से प्रकाशमान देखा। तदनन्तर जब उसके ऊपर दृष्टि डाली, तब शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल प्रभा से युक्त, तुरीयातीत, अमल, निष्कल, निरुपद्रव, निर्द्वन्द्व, अद्वितीय, शून्यमय, बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से रहित, बाह्यान्तर भेद से युक्त, जगत् के भीतर और बाहर स्वयं ही स्थित, आदि, मध्य और अन्त से रहित, आनन्द के आदि कारण तथा सबके परम आश्रय, सत्य, आनन्द एवं अमुतस्वरूप परब्रह्म का साक्षात्कार किया।
उस समय श्रीहरि यह सोचने लगे कि 'यह अग्निस्तम्भ यहाँ कहाँ से प्रकट हुआ है? हम दोनों फिर इसकी परीक्षा करें। मैं इस अनुपम अनलस्तम्भ के नीचे जाऊँगा।' ऐसा विचार करते हुए श्रीहरि ने वेद और शब्द दोनों के आवेश में युक्त विश्वात्मा शिव का चिन्तन किया। तब वहाँ एक ऋषि प्रकट हुए, जो ऋषि-समूह के परम साररूप माने जाते हैं। उन्हीं ऋषि के द्वारा परमेश्वर श्रीविष्णु ने जाना कि इस शब्द ब्रह्ममय शरीर वाले परम लिंग के रूप में साक्षात् परब्रह्मस्वरूप महादेवजी ही यहाँ प्रकट हुए हैं। ये चिन्ता रहित (अथवा अचिन्त्य) रुद्र हैं। जहाँ जाकर मन सहित वाणी उसे प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, उस परब्रह्म परमात्मा शिव का वाचक एकाक्षर (प्रणव) ही है, वे इसके वाच्यार्थ रूप हैं। वह परम कारण, ऋत, सत्य, आनन्द एवं अमृत स्वरूप परात्पर परब्रह्म एकाक्षर का वाच्य है। प्रणव के एक अक्षर अकार से जगत् के बीज भूत अण्डजन्मा भगवान् ब्रह्मा का बोध होता है। उसके दूसरे एक अक्षर उकार से परम कारण रूप श्रीहरि का बोध होता है और तीसरे एक अक्षर मकार से भगवान् नील-लोहित शिव का ज्ञान होता है। अकार सृष्टिकर्ता है, उकार मोह में डालने वाला है और मकार नित्य अनुग्रह करने वाला है। मकार-बोध्य सर्वव्यापी शिव बीजी (बीज मात्र के स्वामी) हैं और 'अकार' संज्ञक मुझ ब्रह्मा को 'बीज' कहते हैं। 'उकार' नामधारी श्रीहरि योनि हैं। प्रधान और पुरुष के भी ईश्वर जो महेश्वर हैं, वे बीजी, बीज और योनि भी हैं। उन्हीं को 'नाद' कहा गया है। (उनके भीतर सब का समावेश है।) बीजी अपनी इच्छा से ही अपने बीज को अनेक रूपों में विभक्त करके स्थित हैं। इन बीजी भगवान् महेश्वर के लिंग से अकार रूप बीज प्रकट हुआ, जो उकार रूप योनि में स्थापित होकर सब ओर बढ़ने लगा। वह सुवर्णमय अण्ड के रूप में ही बताने योग्य था। उसका और कोई विशेष लक्षण नहीं लक्षित होता था। वह दिव्य अण्ड अनेक वर्षों तक जल में ही स्थित रहा। तदनन्तर एक हजार वर्ष के बाद उस अण्ड के दो टुकड़े हो गये। जल में स्थित हुआ वह अण्ड अजन्मा ब्रह्माजी की उत्पत्ति का स्थान था और साक्षात् महेश्वर के आघात से ही फुटकर दो भागों में बँट गया था। उस अवस्था में उसका ऊपर स्थित हुआ सुवर्णमय कपाल बड़ी शोभा पाने लगा। वही द्युलोक के रूप में प्रकट हुआ तथा जो उसका दूसरा नीचेवाला कपाल था, वही यह पाँच लक्षणों से युक्त पृथ्वी है। उस अण्ड से चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनकी 'क' संज्ञा है। वे समस्त लोकों के स्रष्टा हैं। इस प्रकार वे भगवान् महेश्वर ही 'अ', 'उ' और 'म' इन त्रिविध रूपों में वर्णित हुए हैं। इसी अभिप्राय से उन ज्योतिर्लिंग स्वरूप सदाशिव ने 'ॐ', 'ॐ; ऐसा कहा – यह बात यजुर्वेद के श्रेष्ठ मन्त्र कहते हैं। यजुर्वेद के श्रेष्ठ मन्त्रों का यह कथन सुनकर ऋचाओं और साममन्त्रों ने भी हम से आदरपूर्वक कहा – 'हे हरे! हे ब्रह्मन्! यह बात ऐसी ही है।' इस तरह देवेश्वर शिव को जानकर श्रीहरि ने शक्तिसम्भूत मन्त्रों द्वारा उत्तम एवं महान् अभ्युदय से शोभित होने वाले उन महेश्वर देव का स्तवन किया। इसी बीच में मेरे साथ विश्वपालक भगवान् विष्णु ने एक और भी अद्भुत एवं सुन्दर रूप देखा। मुने! वह रूप पाँच मुखों और दस भुजाओं से अलंकृत था। उसकी कान्ति कर्पूर के समान गौर थी। वह नाना प्रकार की छटाओं से छविमान और भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित था। उस परम उदार महापराक्रमी और महापुरुष के लक्षणों से सम्पन्न अत्यन्त उत्कृष्ट रूप का दर्शन करके मैं और श्रीहरि दोनों कृतार्थ हो गये।
तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् महेश प्रसन्न हो अपने दिव्य शब्दमय रूप को प्रकट करके हँसते हुए खड़े हो गये। अकार उनका मस्तक और आकार ललाट है। इकार दाहिना और ईकार बायाँ नेत्र है। उकार को उनका दाहिना और ऊकार को बायाँ कान बताया जाता है। ऋकार उन परमेश्वर का दायाँ कपोल है और ऋ्कार बायाँ। लृ और लृ – ये उनकी नासिका के दोनों छिद्र हैं। एकार उन सर्वव्यापी प्रभु का ऊपरी ओष्ठ है और ऐकार अधर। ओकार तथा औकार – ये दोनों क्रमशः उनकी ऊपर और नीचे की दो दन्तपंक्तियाँ हैं। 'अं', और 'अः' उन देवाधिदेव शूलधारी शिव के दोनों तालू हैं। क आदि पाँच अक्षर उनके दाहिने पाँच हाथ हैं और च आदि पाँच अक्षर बायें पाँच हाथ; ट आदि और त आदि पाँच-पाँच अक्षर उनके पैर हैं। पकार पेट है। फकार को दाहिना पार्श्व बताया जाता है और बकार को बायाँ पार्श्व। भकार को कंधा कहते हैं। मकार उन योगी महादेव शम्भु का हृदय है। 'य' से लेकर 'स' तक सात अक्षर सर्वव्यापी शिव के शब्दमय शरीर की सात धातुएँ हैं। हकार उनकी नाभि है और क्षकार को मेढ्र (मुत्रेन्द्रिय) कहा गया है। इस प्रकार निर्गुण एवं गुणस्वरुप परमात्मा के शब्दमय रूप को भगवती उमा के साथ देखकर मैं और श्रीहरि दोनों कृतार्थ हो गये। इस तरह शब्द-ब्रह्ममय-शरीरधारी महेश्वर शिव का दर्शन पाकर मेरे साथ श्रीहरि ने उन्हें प्रणाम किया और पुनः ऊपर की ओर देखा। उस समय उन्हें पाँच कलाओं से युक्त ॐकारजनित मन्त्र का साक्षात्कार हुआ। तत्पश्चात् महादेवजी का 'ॐ तत्त्वमसि' यह महावाक्य दृष्टिगोचर हुआ, जो परम उत्तम मन्त्र रूप है तथा शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है। फिर सम्पूर्ण धर्म और अर्थ का साधक तथा बुद्धिस्वरुप गायत्री नामक दूसरा महान् मन्त्र लक्षित हुआ, जिस में चौबीस अक्षर हैं तथा जो चारों पुरुषार्थरूपी फल देने वाला है। तत्पश्चात् मृत्युंजय-मन्त्र फिर पंचाक्षर-मन्त्र तथा दक्षिणामूर्तिसंज्ञक चिन्तामणि-मन्त्र का साक्षात्कार हुआ। इस प्रकार पाँच मन्त्रों की उपलब्धि करके भगवान् श्रीहरि उनका जप करने लगे।
तदनन्तर ऋक, यजुः और साम – ये जिनके रूप हैं, जो ईशों के मुकुटमणि ईशान हैं, जो पुरातन पुरुष हैं, जिनका हृदय अघोर अर्थात् सौम्य है, जो हृदय को प्रिय लगने वाले सर्वगुह्य सदाशिव हैं, जिनके चरण वाम–परम सुन्दर हैं, जो महान् देवता हैं और महान् सर्पराज को आभूषण के रूप में धारण करते हैं, जिनके सभी ओर पैर और सभी ओर नेत्र हैं, जो मुझ ब्रह्मा के भी अधिपति, कल्याणकारी तथा सृष्टि, पालन एवं संहार करने वाले हैं, उन वरदायक साम्बशिव का मेरे साथ भगवान् विष्णु ने प्रिय वचनों द्वारा संतुष्टचित्त से स्तवन किया।
(अध्याय ८)