उमासहित भगवान् शिव का प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूप का विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओं की एकता का प्रतिपादन
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान् विष्णु के द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणानिधि महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए और उमा देवी के साथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये। उस समय उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र शोभा पाते थे। भालदेश में चन्द्रमा का मुकुट सुशोभित था। सिर पर जटा धारण किये गौरवर्ण, विशाल नेत्र शिव ने अपने सम्पूर्ण अंगों में विभूति लगा रखी थी। उनके दस भुजाएँ थी। कण्ठ में नील चिह्न था। उनके श्रीअंग समस्त आभूषणों से विभूषित थे। उन सर्वांगसुन्दर शिव के मस्तक भस्ममय त्रिपुण्ड्र से अंकित थे। ऐसे विशेषणों से युक्त परमेश्वर महादेवजी को भगवती उमा के साथ उपस्थित देख मैंने और भगवान् विष्णु ने पुनः प्रिय वचनों द्वारा उनकी स्तुति की। तब पापहारी करुणाकर भगवान् महेश्वर ने प्रसन्नचित्त होकर उन श्रीविष्णुदेव को श्वासरूप से वेद का उपदेश दिया। मुने! उनके बाद शिव ने परमात्मा श्रीहरि को गुह्य ज्ञान प्रदान किया। फिर उन परमात्मा ने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान प्राप्त करके कृतार्थ हुए भगवान् विष्णु ने मेरे साथ हाथ जोड़ महेश्वर को नमस्कार करके पुनः उनसे पूजन की विधि बताने तथा सदुपदेश देने के लिए प्रार्थना की।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! श्रीहरि की यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए कृपानिधान भगवान् शिव ने प्रीतिपूर्वक यह बात कही।
श्रीशिव बोले – सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों की भक्ति से निश्चय ही बहुत प्रसन्न हूँ। तुम लोग मुझ महादेव की ओर देखो। इस समय तुम्हें मेरा स्वरूप जैसा दिखायी देता है, वैसे ही रूप का प्रत्यत्नपूर्वक पूजन-चिन्तन करना चाहिये। तुम दोनों महाबली हो और मेरी स्वरूपभूता प्रकृति से प्रकट हुए हो। मुझ सर्वेश्वर के दायें-बायें अंगों से तुम्हार आविर्भाव हुआ है। ये लोकपितामह ब्रह्मा मेरे दाहिने पार्श्व से उत्पन्न हुए हैं और तुम विष्णु मुझ परमात्मा के वाम पार्श्व से प्रकट हुए हो। मैं तुम दोनों पर भली-भांति प्रसन्न हूँ और तुम्हें मनोवांछित वर देता हूँ। मेरी आज्ञा से तुम दोनों की मुझमें सुदृढ़ भक्ति हो। ब्रह्मन्! तुम मेरी आज्ञा का पालन करते हुए जगत् की सृष्टि करो और वत्स विष्णो! तुम इस चराचर जगत् का पालन करते रहो।
हम दोनों से ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने हमें पूजा की उत्तम विधि प्रदान की, जिसके अनुसार पूजित होने पर वे पूजक को अनेक प्रकार के फल देते हैं। शम्भु की उपर्युक्त बात सुनकर मेरे सहित श्रीहरि ने महेश्वर को हाथ जोड़ प्रणाम करके कहा।
भगवान् विष्णु बोले – प्रभो! यदि हमारे प्रति आपके हृदय में प्रीति उत्पन्न हुई है और यदि आप हमें वर देना आवश्यक समझते हैं तो हम यही वर माँगते हैं कि आप में हम दोनों की सदा अनन्य एवं अविचल भक्ति बनी रहे।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! श्रीहरि की यह बात सुनकर भगवान् हर ने पुनः मस्तक झुका कर प्रणाम करके हाथ जोड़े खड़े हुए उन नारायण देव से स्वयं कहा।
श्रीमहेश्वर बोले – मैं सृष्टि, पालन और संहार का कर्ता हूँ, सगुण और निर्गुण हूँ तथा सच्चिदानंद स्वरूप निर्विकार परब्रह्म परमात्मा हूँ। विष्णो! सृष्टि, रक्षा और प्रलय रूप गुणों अथवा कार्यों के भेद से मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण करके तीन स्वरूपों में विभक्त हुआ हूँ। हरे! वास्तव में मैं सदा निष्कल हूँ। विष्णो! तुमने और ब्रह्मा ने मेरे अवतार के निमित्त जो स्तुति की है, तुम्हारी उस प्रार्थना को मैं अवश्य सच्ची करूँगा; क्योंकि मैं भक्तवत्सल हूँ। ब्रह्मन्! मेरा ऐसा ही परम उत्कृष्ट रूप तुम्हारे शरीर से इस लोक में प्रकट होगा, जो नाम से 'रुद्र' कहलायेगा। मेरे अंश से प्रकट हुए रुद्र की सामर्थ्य मुझसे कम नहीं होगी। जो मैं हूँ, वही यह रुद्र है। पूजा की विधि-विधान की दृष्टी से भी मुझमें और उसमें कोई अंतर नहीं है। जैसे ज्योति का जल आदि के साथ सम्पर्क होने पर भी उसमें स्पर्शदोष नहीं लगता, उसी प्रकार मुझ निर्गुण परमात्मा को भी किसी के संयोग से बन्धन नहीं प्राप्त होता। यह मेरा शिवरूप है। जब रुद्र प्रकट होंगे, तब वे भी शिव के ही तुल्य होंगे। महामुने! उनमें और शिव में परायेपन का भेद नहीं करना चाहिये। वास्तव में एक ही रूप सब जगत् में व्यवहार-निर्वाह के लिये दो रूपों में विभक्त हो गया है। अतः शिव और रुद्र में कभी भेदबुद्धि नहीं करनी चाहिये। वास्तव में सारा दृश्य ही मेरे विचार से शिवरूप है।
मैं, तुम, ब्रह्मा तथा जो ये रुद्र प्रकट होंगे, वे सब-के-सब एक रूप हैं। इनमें भेद नहीं हैं। भेद मानने पर अवश्य ही बन्धन होगा। तथापि मेरा शिवरूप ही सनातन है। यही सदा सब रूपों का मुलभुत कहा गया है। वह सत्य, ज्ञान एवं अनन्त ब्रह्म है। [मूलीभूतं सदोक्त च सत्यज्ञानमनन्तकम। (शिवपुराण रुद्रसंहिता - ९/४०)] ऐसा जानकर सदा मन से मेरे यथार्थ-स्वरूप का दर्शन करना चाहिये। ब्रह्मन्! सुनो, मैं तुम्हें एक गोपनीय बात बता रहा हूँ। मैं स्वयं ब्रह्माजी की भ्रुकुटी से प्रकट होऊँगा। गुणों में भी मेरा प्राकट्य कहा गया है। जैसा कि लोगों ने कहा है 'हर' तामस प्रकृति के हैं।' वास्तव में उस रूप में अहंकार का वर्णन हुआ है। उस अहंकार को केवल तामस ही नहीं, वैकारिक (सात्त्विक) भी समझना चाहिये (क्योंकि सात्त्विक देवगण वैकारिक अहंकार की ही सृष्टि हैं)। यह तामस और सात्त्विक आदि भेद केवल नाम मात्र का है, वस्तुतः नहीं है। वास्तव में 'हर' को तामस नहीं कहा जा सकता। ब्रह्मन्! इस कारण से तुम्हें ऐसा करना चाहिये। तुम तो इस सृष्टि के निर्माता बनो और श्रीहरि इसका पालन करें तथा मेरे अंश से प्रकट होने वाले जो रुद्र हैं, वे इसका प्रलय करने वाले होंगे। ये जो 'उमा' नाम से विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी हैं, इन्हीं की शक्तिभूता वाग्देवी ब्रह्माजी का सेवन करेंगी। फिर इन प्रकृति देवी से वहाँ जो दूसरी शक्ति प्रकट होगी वे लक्ष्मी रूप से भगवान् विष्णु का आश्रय लेंगी। तदनन्तर पुनः काली नाम से जो तीसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे निश्चय ही मेरे अंशभूत रुद्रदेव को प्राप्त होंगी। वे कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ ज्योतिरूप से प्रकट होंगी। इस प्रकार मैंने देवी की शुभस्वरूपा पराशक्तियों का परिचय दिया। उनका कार्य क्रमशः सृष्टि, पालन और संहार का सम्पादन ही है। सुरश्रेष्ठ! ये सब-की-सब मेरी प्रिया प्रकृति देवी की अंशभूता हैं। हरे! तुम लक्ष्मी का सहारा लेकर कार्य करो। ब्रह्मन्! तुम्हें प्रकृति की अंशभूता वाग्देवी को पाकर मेरी आज्ञा के अनुसार मन से सृष्टिकार्य का संचालन करना चाहिये और मैं अपनी प्रिया की अंशभूता परात्पर काली का आश्रय ले रुद्ररूप से प्रलय-सम्बन्धी उत्तम कार्य करूँगा। तुम सब लोग अवश्य ही सम्पूर्ण आश्रमों तथा उनसे भिन्न अन्यान्य विविध कार्यों द्वारा चारों वर्णों से भरे हुए लोक की सृष्टि एवं रक्षा आदि करके सुख पाओगे। हरे! तुम ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण लोकों के हितैषी हो। अतः अब मेरी आज्ञा पाकर जगत् में सब लोगों के लिये मुक्तिदाता बनो। मेरा दर्शन होने पर जो फल प्राप्त होता है, वही तुम्हारा दर्शन होने पर भी होगा। मेरी यह बात सत्य है, सत्य है, इसमें संशय के लिये स्थान नहीं है। मेरे हृदय में विष्णु हैं और विष्णु के हृदय में मैं हूँ। जो इन दोनों में अन्तर नहीं समझता, वही मुझे विशेष प्रिय है। [ममैव हृदये विष्णुर्विष्नोश्च हृदये ह्यहं।। उभयोरंतरं यो वै न जानाति मतो मम। (शिवपुराण रुद्रसंहिता - ९/५५-५६)] श्रीहरि मेरे बायें अंग से प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा का दाहिने अंग से प्राकट्य हुआ है और महाप्रलयकारी विश्वात्मा रुद्र मेरे हृदय से प्रादुर्भूत होंगे। विष्णो! मैं ही सृष्टि, पालन और संहार करने वाले रज आदि त्रिविध गुणों द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम से प्रसिद्ध हो तीन रूपों में पृथक्-पृथक् प्रकट होता हूँ। साक्षात् शिव गुणों से भिन्न हैं। वे प्रकृति और पुरुष से भी परे हैं –अद्वितीय, नित्य, अनन्त, पूर्ण एवं निरंजन परब्रह्म परमात्मा हैं। तीनों लोकों का पालन करने वाले श्रीहरि भीतर तमोगुण और बाहर सत्त्वगुण धारण करते हैं, त्रिलोकी का संहार करने वाले रुद्रदेव भीतर सत्त्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं तथा त्रिभुवन की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी बाहर और भीतर से भी रजोगुणी ही हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र – इन तीन देवताओं में गुण हैं, परंतु शिव गुणातीत माने गये हैं। विष्णो! तुम मेरी आज्ञा से इन सृष्टिकर्ता पितामह का प्रसन्नतापूर्वक पालन करो; ऐसा करने से तीनों लोकों में पूजनीय होओगे।
(अध्याय ९)