श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग-मोक्ष-दान का अधिकार दे भगवान् शिव का अन्तर्धान होना
परमेश्वर शिव बोले–उत्तम व्रत का पालन करने वाले हरे! विष्णो! अब तुम मेरी दूसरी आज्ञा सुनो। उसका पालन करने से तुम सदा समस्त लोकों में माननीय और पूजनीय बने रहोगे। ब्रह्माजी के द्वारा रचे गये लोक में जब कोई दुःख या संकट उत्पन्न हो, तब तुम उन सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने के लिये सदा तत्पर रहना। तुम्हारे सम्पूर्ण दुस्सह कार्यों में मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। तुम्हारे जो दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रु होंगे, उन सबको मैं मार गिराऊँगा। हरे! तुम नाना प्रकार के अवतार धारण करके लोक में अपनी उत्तम कीर्ति का विस्तार करो और सबके उद्धार के लिये तत्पर रहो। तुम रुद्र के ध्येय हो और रुद्र तुम्हारे ध्येय हैं। तुम में और रुद्र में कुछ भी अंतर नहीं है। [रुद्रध्येयो भवांश्चैव भवद्ध्येयो हरस्तथा। युवयोरन्तरं नैव तव रुद्रस्य किंचन।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता - १०/६)] जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर तुम्हारी निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा। पुरुषोत्तम विष्णो! तुमसे द्वेष करने के कारण मेरी आज्ञा से उसको नरक में गिरना पड़ेगा। यह बात सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। [रुद्र्भक्तो नरो यस्तु तव निन्दां करिष्यति। तस्य पुण्यं च निखिलं द्रुतं भस्म भविष्यति।। नरके पतनं तस्य त्वददे्षात्पुरुषोत्तम। मदाज्ञया भवेदि्ष्णो सत्यं सत्यं न संशयः।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता - १०/८-९)] तुम इस लोक में मनुष्यों के लिये विशेषतः भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले और भक्तों के ध्येय तथा पूज्य होकर प्राणियों का निग्रह और अनुग्रह करो।
ऐसा कहकर भगवान् शिव ने मेरा हाथ पकड़ लिया और श्रीविष्णु को सौंपकर उनसे कहा – 'तुम संकट के समय सदा इनकी सहायता करते रहना। सबके अध्यक्ष होकर सभी को भोग और मोक्ष प्रदान करना तथा सर्वदा समस्त कामनाओं का साधक एवं सर्वश्रेष्ठ बने रहना। जो तुम्हारी शरण में आ गया, वह निश्चय ही मेरी शरण में आ गया। जो मुझमें और तुम में अंतर समझता है, वह अवश्य नरक में गिरता है।' [त्वां यः समाश्रितो नूनं भामेव सः समाश्रितः। अन्तरं यश्च जानाति निरये पतति घ्रुवम्।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता - १०/१-४)]
ब्रह्माजी कहते हैं–देवर्षे! भगवान् शिव का यह वचन सुनकर मेरे साथ भगवान् विष्णु ने सबको वश में करने वाले विश्वनाथ को प्रणाम करके मन्दस्वर में कहा –
श्रीविष्णु बोले – करूणासिन्धो! जगन्नाथ शंकर! मेरी यह बात सुनिये। मैं आपकी आज्ञा के अधीन रहकर यह सब कुछ करूँगा। स्वामिन्! जो मेरा भक्त होकर आपकी निन्दा करे, उसे आप निश्चय ही नरकवास प्रदान करें। नाथ! जो आपका भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। जो ऐसा जानता है, उसके लिये मोक्ष दुर्लभ नहीं है। [मम भक्तश्च यः स्वामिँस्तव निंदा करिष्यति। तस्य वै निरये वासं प्रयच्छ नियतं ध्रुवम्।। त्वद्भक्तो यो भवेत्स्वामिन्मम प्रियतरो हि सः। एवं वै यो विजानाति तस्य मुक्तिर्न दुर्लभा।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता - १०/३०-३१)]
श्रीहरि का यह कथन सुनकर दुःखहारी हर ने उनकी बात का अनुमोदन किया और नाना प्रकार के धर्मों का उपदेश देकर हम दोनों के हित की इच्छा से हमें अनेक प्रकार के वर दिये। इसके बाद भक्तवत्सल भगवान् शम्भु कृपापूर्वक हमारी ओर देखकर हम दोनों के देखते-देखते सहसा वहीं अन्तर्धान हो गये। तभी से इस लोक में लिंग-पुजा का विधान चालु हुआ है। लिंग में प्रतिष्ठित भगवान् शिव भोग और मोक्ष देने वाले हैं। शिवलिंग की जो वेदी या अर्घा है, वह महादेवी का स्वरूप है और लिंग साक्षात् महेश्वर का। लय का अधिष्ठान होने के कारण भगवान् शिव को लिंग कहा गया है; क्योंकि उन्हीं में निखिल जगत् का लय होता है। महामुने! जो शिवलिंग के समीप कोई कार्य करता हैं, उसके पुण्यफल का वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है।
(अध्याय १०)