शिव पूजन की विधि तथा उसका फल

ऋषि बोले – व्यासशिष्य महाभाग सूतजी! आपको नमस्कार है। आज आपने भगवान् शिव की बड़ी अद्भुत एवं परम पावन कथा सुनायी है। दयानिधे! ब्रह्मा और नारदजी के संवाद के अनुसार आप हमें शिव पूजन की वह विधि बताइये, जिससे यहाँ भगवान् शिव संतुष्ट होते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र – सभी शिव की पूजा करते हैं। वह पूजन कैसे करना चाहिये? आपने व्यासजी के मुख से इस विषय को जिस प्रकार सुना हो, वह बताइये।

महर्षियों का वह कल्याणप्रद एवं श्रुतिसम्मत वचन सुनकर सूतजी ने उन मुनियों के प्रश्न के अनुसार सब बातें प्रसन्नतापूर्वक बतायीं।

सूतजी बोले – मुनीश्वरो! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। परंतु वह रहस्य की बात है। मैंने इस विषय को जैसा सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसके अनुसार आज कुछ कह रहा हूँ। जैसे आप लोग पूछ रहे हैं, उसी तरह पूर्वकाल में व्यासजी ने सनत्कुमारजी से पूछा था। फिर उसे उपमन्युजी ने भी सुना था। व्यासजी ने शिव पूजन आदि जो भी विषय सुना था, उसे सुनकर उन्होंने लोकहित की कामना से मुझे पढ़ा दिया था। इसी विषय को भगवान् श्रीकृष्ण ने महात्मा उपमन्यु से सुना था। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी से इस विषय में जो कुछ कहा था, वही इस समय मैं कहूँगा।

ब्रह्माजी ने कहा – नारद! मैं संक्षेप से लिंगपूजन की विधि बता रहा हूँ, सुनो। जैसा पहले कहा गया है, वैसा जो भगवान् शंकर का सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है, उसका उत्तम भक्तिभाव से पूजन करे, इससे समस्त मनोवांछित फलों की प्राप्ति होगी। दरिद्रता, रोग, दुःख तथा शत्रुजनित पीड़ा – ये चार प्रकार के पाप (कष्ट) तभी तक रहते हैं, जब तक मनुष्य भगवान् शिव का पूजन नहीं करता। भगवान् शिव की पूजा होते ही सारे दुःख विलीन हो जाते और समस्त सुखों की प्राप्ति हो जाती है। तत्पश्चात् समय आने पर उपासक की मुक्ति भी होती है। जो मानव-शरीर का आश्रय लेकर मुख्यतया संतान-सुख की कामना करता है उसे चाहिये कि वह सम्पूर्ण कार्यों और मनोरथों के साधक महादेवजी की पूजा करे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र भी सम्पूर्ण कामनाओं तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिये क्रम से विधि के अनुसार भगवान् शंकर की पूजा करे। प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त में उठ कर गुरु तथा शिव का स्मरण करके तीर्थों का चिन्तन एवं भगवान् विष्णु का ध्यान करे। फिर मेरा, देवताओं का और मुनि आदि का भी स्मरण स्मरण-चिन्तन करके स्तोत्रपाठपूर्वक शंकरजी का विधिपूर्वक नाम ले। उसके बाद शय्या से उठ कर निवास स्थान से दक्षिण दिशा में जाकर मलत्याग करे। मुने! एकान्त में मलोत्सर्ग करना चाहिये। उससे शुद्ध होने के लिये जो विधि मैंने सुन रखी है, उसी को आज कहता हूँ। मन को एकाग्र करके सुनो।

ब्राह्मण गुदा की शुद्धि के लिये उसमें पाँच बार शुद्ध मिट्टी का लेप करे और धोये। क्षत्रिय चार बार, वैश्य तीन बार और शुद्र दो बार विधिपूर्वक गुदा की शुद्धि के लिये उसमें मिट्टी लगाये। लिंग में भी एक बार प्रयत्नपूर्वक मिट्टी लगानी चाहिये। तत्पश्चात् बायें हाथ में दस बार और दोनों हाथों में सात बार मिट्टी लगाकर धोये। तात! प्रत्येक पैर में तीन-तीन बार मिट्टी लगाये। फिर दोनों हाथों में भी मिट्टी लगाकर धोये। स्त्रियों को शुद्र की ही भाँति अच्छी तरह मिट्टी लगानी चाहिये। हाथ-पैर धोकर पूर्ववत् शुद्ध मिट्टी ले और उसे लगाकर दाँत साफ़ करे। फिर अपने वर्ण के अनुसार मनुष्य दतुअन करे। ब्राह्मण को बारह अंगुल की दतुअन करनी चाहिये। क्षत्रिय ग्यारह अंगुल, वैश्य दस अंगुल और शुद्र नौ अंगुल की दतुअन करे। यह दतुअन का मान बताया गया। मनुस्मृति के अनुसार कालदोष का विचार करके ही दतुअन करे या त्याग दे। तात! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, व्रत का दिन, सूर्यास्त का समय, रविवार तथा श्राद्ध-दिवस – ये दन्तधावन के लिये वर्जित हैं – इनमें दतुअन नहीं करनी चाहिये। दतुअन के पश्चात् तीर्थ (जलाशय) आदि में जाकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिये, विशेष देश-काल आने पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान करना उचित है। स्नान के पश्चात् पहले आचमन करके वह धुला हुआ वस्त्र धारण करे। फिर सुन्दर एकान्त स्थल में बैठ कर संध्याविधि का अनुष्ठान करे। यथायोग्य संध्याविधि का पालन करके पूजा का कार्य आरम्भ करे।

मन को सुस्थिर करके पूजागृह में प्रवेश करे। वहाँ पूजन-सामग्री लेकर सुन्दर आसन पर बैठे। पहले न्यास आदि करके क्रमशः महादेवजी की पूजा करे। शिव की पूजा से पहले गणेशजी की, द्वारपालों की और दिक्पालों की भी भलीभाँति पूजा करके पीछे देवता के लिये पीठस्थान की कल्पना करे। अथवा अष्टदल कमल बनाकर पूजा द्रव्य के समीप बैठे और उस कमल पर ही भगवान् शिव को समाशीन करे। तत्पश्चात् तीन आचमन करके पुनः दोनों हाथ धोकर तीन प्राणायाम करके मध्यम प्राणायाम अर्थात् कुम्भक करते समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव का इस प्रकार ध्यान करे – उनके पाँच मुख हैं, दस भुजाएँ हैं, शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल कान्ति है, सब प्रकार के आभूषण उनके श्रीअंगों को विभूषित करते हैं तथा वे व्याघ्र चर्म की चादर ओढ़े हुए हैं। इस तरह ध्यान करके यह भावना करे कि मुझे भी इनके समान ही रूप प्राप्त हो जाय। ऐसी भावना करके मनुष्य सदा के लिये अपने पाप को भस्म कर डाले। इस प्रकार भावना द्वारा शिव का ही शरीर धारण करके उन परमेश्वर की पूजा करे। शरीरशुद्धि करके मूलमन्त्र का क्रमशः न्यास करे अथवा सर्वत्र प्रणव से ही षडंग न्यास करे। 'ॐ अद्येत्यादि' रूप से संकल्प-वाक्य का प्रयोग करके फिर पूजा आरम्भ करे। पाद्य, अर्ध्य और आचमन के लिए पात्रों को तैयार करके रखे। बुद्धिमान् पुरुष विधिपूर्वक भिन्न-भिन्न प्रकार के नौ कलश स्थापित करे। उन्हें कुशाओं से ढक कर रखे और कुशाओं से ही जल लेकर उन सब का प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् उन-उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले। फिर बुद्धिमान् पुरुष देखभाल कर प्रणव मन्त्र के द्वारा उनमें निम्नाकिंत द्रव्यों को डाले। खस और चन्दन को पाद्यपात्र में रखे। चमेली के फूल, शीतल चीनी, कपूर, बड़ की जड़ तथा तमाल – इन सबको यथोचित रूप से कूट-पीस कर चूर्ण बना ले और आचमनीय के पात्र में डाले। इलायची और चन्दन को तो सभी पात्रों में डालना चाहिये। देवाधिदेव महादेवजी के पार्श्वभाग में नन्दीश्वर का पूजन करे। गन्ध, धुप तथा भाँति-भाँति के दीपों द्वारा शिव की पूजा करे। फिर लिंग शुद्धि करके मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक मन्त्र समूहों के आदि में प्रणव तथा अन्त में 'नमः' पद जोड़कर उनके द्वारा इष्ट देव की लिये यथोचित आसन की कल्पना करे। फिर प्रणव से पद्मासन की कल्पना करके यह भावना कर कि इस कमल का पुर्व दल साक्षात् अणिमा नामक ऐश्वर्य रूप तथा अविनाशी है। दक्षिण दल लघिमा है। पश्चिम दल महिमा है। उत्तर दल प्राप्ति है। अग्निकोण का दल प्राकाम्य है। नैऋत्यकोण का दल ईशित्व है। वायव्यकोण का दल वशित्व है। ईशानकोण का दल सर्वज्ञत्व है और उस कमल की कर्णिका को सोम कहा जाता है। सोम के नीचे सूर्य हैं, सूर्य के नीचे अग्नि हैं और अग्नि के भी नीचे धर्म आदि के स्थान हैं। कमशः ऐसी कल्पना करने के पश्चात् चारों दिशाओं में अव्यक्त महत्तत्व, अहंकार तथा उनके विकारों की कल्पना करे। सोम के अन्त में सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों की कल्पना करे। इसके बाद 'सद्योजातं प्रपद्यामि' इत्यादि मन्त्र से परमेश्वर शिव का आवाहन करके 'ॐ वामदेवाय नमः' इत्यादि वामदेव-मन्त्र से उन्हें आसन पर विराजमान करे। फिर 'ॐ तत्पुरुषाय विद्यहे' इत्यादि रुद्रगायत्री द्वारा इष्टदेव का सांनिध्य प्राप्त करके उन्हें 'अघोरेभ्योऽथ' इत्यादि अघोरमन्त्र से वहाँ निरुद्ध करे। फिर 'ईशानः सर्वविद्यानाम्' इत्यादि मन्त्र से आराध्य देव का पूजन करे।

पाद्य और आचमनीय अर्पित करके अर्घ्य दे। तत्पश्चात् गंध और चन्दन मिश्रित जल से विधिपूर्वक रुद्रदेव को स्नान कराये। फिर पंचगव्य निर्माण की विधि से पाँचों द्रव्यों को एक पात्र में लेकर प्रणव से ही अभिमन्त्रित करके उन मिश्रित गव्य पदार्थों द्वारा भगवान् को नहलाये। तत्पश्चात् दूध, दही, मधु, गन्ने के रस तथा घी से नहलाकर समस्त अभीष्टों के दाता और हितकारी पूजनीय महादेवजी का प्रणव के उच्चारणपूर्वक पवित्र द्रव्यों द्वारा अभिषेक करे। पवित्र जलपात्रों में मन्त्रोचारणपूर्वक जल डाले। डालने से पहले साधक श्वेत वस्त्र से उस जल को यथोचित रीति से छान ले। उस जल को तब तक दूर न करे, जब तक इष्टदेव को चन्दन न चढ़ा ले। तब सुन्दर अक्षतों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक शंकरजी की पूजा करे। उनके ऊपर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चम्पा, गुलाब, श्वेत कनेर, बेला, कमल और उत्पल आदि भाँति-भाँति के अपूर्व पुष्प एवं चन्दन आदि चढ़ाकर पूजा करे। परमेश्वर शिव के ऊपर जल की धारा गिरती रहे, इसकी भी व्यवस्था करे। मन्त्रोच्चारणपूर्वक पूजा करनी चाहिये। वह समस्त फलों को देने वाली होती है।

तात! अब मैं तुम्हें समस्त मनोवांछित कामनाओं की सिद्धि के लिये उन पूजा-सम्बन्धी मन्त्रों को भी संक्षेप से बता रहा हूँ, सावधानी के साथ सुनो। पावमान मन्त्र से, 'वाङ्मे' इत्यादि मन्त्र से, रुद्रमन्त्र तथा नीलरुद्रमन्त्र से, सुन्दर एवं शुभ पुरुषसूक्त से, श्रीसूक्त से, सुन्दर अथर्वशीर्ष के मन्त्र से, 'आ नो भद्रा०' इत्यादि शान्तिमन्त्र से, शान्ति सम्बन्धी दुसरे मन्त्रों से, भारुण्डमन्त्र और अरुणमन्त्रों से, अर्थाभीष्टसाम तथा देवव्रतसाम से, 'अभि त्वा०' इत्यादि रथन्तरसाम से, पुरुषसूक्त से, मृत्युंजयमन्त्र से तथा पंचाक्षरमन्त्र से पूजा करे। एक सहस्त्र अथवा एक सौ एक जलधाराएँ गिराने की व्यवस्था करे। यह सब वेदमार्ग से अथवा नाममन्त्रों से करना चाहिये। तदनन्तर भगवान् शंकर के ऊपर चन्दन और फुल आदि चढ़ाये। प्रणव से ही मुखवास (ताम्बुल) आदि अर्पित करे। इसके बाद जो स्फटिकमणि के समान निर्मल, निष्कल, अविनाशी, सर्वलोककारण, सर्वलोकमय परमदेव हैं; जो ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र और विष्णु आदि देवताओं की भी दृष्टि में नहीं आते; वेदवेत्ता विद्वानों ने जिन्हें वेदान्त में मन-वाणी के अगोचर बताया है; जो आदि, मध्य और अन्त से रहित तथा समस्त रोगियों के लिये औषधरूप हैं; जिनकी शिवतत्व के नाम से ख्याति है तथा जो शिवलिंग के रूप में प्रतिष्ठित हैं, उन भगवान् शिव का शिवलिंग के मस्तक पर प्रणवमन्त्र से ही पूजन करे। धुप, दीप, नैवेद्य, सुन्दर ताम्बुल एवं सुरम्य आरती द्वारा यथोक्त विधि से पूजा करके स्तोत्रों तथा अन्य नाना प्रकार के मन्त्रों द्वारा उन्हें नमस्कार करे। फिर अर्घ्य देकर भगवान् के चरणों में फुल बिखेरे और साष्टांग प्रणाम करके देवेश्वर शिव की आराधना करे। फिर हाथ में फुल लेकर खड़ा हो जाय और दोनों हाथ जोड़कर निम्नाकिंत मन्त्र से सर्वेश्वर शंकर की पुनः प्रार्थना करे –

अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपुजादिकं मया। कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर।।

'कल्याणकारी शिव! मैंने अनजान में अथवा जान-बुझकर जो जप-पूजा आदि सत्कर्म किये हों, वे आपकी कृपा से सफल हों।'

इस प्रकार पढ़कर भगवान् शिव के ऊपर प्रसन्नतापूर्वक फुल चढ़ाये। स्वस्तिवाचन [स्वस्तिवाचन सम्बन्धी मन्त्र – ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।] करके नाना प्रकार की 'आशी' [आशी प्रार्थना – काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी शस्यशालिनी। देशोऽयं क्षोभरहितो ब्राह्मणाः सन्तु निर्भयाः।। सर्वे च सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्रणि पश्चन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।।] प्रार्थना करे। फिर शिव के ऊपर मार्जन [मार्जन मन्त्र – ॐ आपो हि ष्ठामयोभुवः (यजु० ११। ५०–५२) इत्यादि तीन मार्जन मन्त्र कहे गए हैं। इन्हें पढ़ते हुए इष्टदेव पर जल छिड़कना 'मार्जन' कहलाता है।] करना चाहिये। मार्जन के बाद नमस्कार करके अपराध के लिये क्षमा प्रार्थना [क्षमाप्रार्थना – अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। तानि सर्वाणि मे देव क्षमस्व परमेश्वर।।] करते हए पुनरागमन के लिये विसर्जन [विसर्जनमन्त्र – यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मागकीम्। अभीष्टफलदानाय पुनरागमनाय च।।] करना चाहिये। इसके बाद 'अद्या' [अद्या मन्त्र – ॐ अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निर्ँहस पिपृता निरवद्यात्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः। (यजु० ३३। ४२)] से आरम्भ होने वाले मन्त्र का उच्चारण करके नमस्कार करे। फिर सम्पूर्ण भाव से विभोर हो इस प्रकार प्रार्थना करे – शिवे भक्तिः शिवे भक्तिः शिवे भक्तिर्भवे भवे। अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।। 'प्रत्येक जन्म में मेरी शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो। शिव के सिवा दूसरा कोई मुझे शरण देने वाला नहीं। महादेव! आप ही मेरे लिये शरणदाता हैं।'

इस प्रकार प्रार्थना करके सम्पूर्ण सिद्धियों के दाता देवेश्वर शिव का पराभक्ति के द्वारा पूजन करे। विशेषतः गले की आवाज से भगवान् को संतुष्ट करे। फिर सपरिवार नमस्कार करके अनुपम प्रसन्नता का अनुभव करते हुए समस्त लौकिक कार्य सुखपूर्वक करता रहे।

जो इस प्रकार शिवभक्तिपरायण हो प्रतिदिन पूजन करता है, उसे अवश्य ही पग-पग पर सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है। वह उत्तम वक्ता होता है तथा उसे मनोवांछित फल की निश्चय ही प्राप्ति होती है। रोग, दुःख, दूसरों के निमित्त से होने वाला उद्वेग, कुटिलता तथा विष आदि के रूप में जो-जो कष्ट उपस्थित होता है, उसे कल्याणकारी परम शिव अवश्य नष्ट कर देते हैं। उस उपासक का कल्याण होता है। भगवान् शंकर की पूजा से उसमें अवश्य सद्गुणों की वृद्धि होती है – ठीक उसी तरह, सद्गुणों की वृद्धि होती है – ठीक उसी तरह, जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ते हैं। मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार मैंने शिव की पूजा का विधान बताया।

(अध्याय ११)