भगवान् शिव की श्रेष्ठता तथा उनके पूजन की अनिवार्य आवश्यकता का प्रतिपादन

नारदजी बोले – ब्रह्मन्! प्रजापते! आप धन्य हैं; क्योंकि आपकी बुद्धि भगवान् शिव में लगी हुई है। विधे! आप पुनः इसी विषय का सम्यक् प्रकार से विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजी ने कहा – तात! एक समय की बात है, मैं सब ओर से ऋषियों तथा देवताओं को बुलाकर उन सबको क्षीरसागर के तट पर ले गया, जहाँ सबका हित-साधन करने वाले भगवान् विष्णु निवास करते हैं। वहाँ देवताओं के पुछ्ने पर भगवान् विष्णु ने सबके लिये शिव पूजन की ही श्रेष्ठता बतलाकर यह कहा कि 'एक मुहूर्त या क्षण भी जो शिव का पूजन नहीं किया जाता, वही हानि है, वही महान् छिद्र है, वही अंधापन है और वही मृर्खता है। जो भगवान् शिव की भक्ति में तत्पर हैं, जो मन से उन्हीं को प्रणाम और उन्हीं का चिन्तन करते हैं, वे कभी दुःख के भागी नहीं होते। [भवभक्तिपरा ये च भवप्रणतचेतसः। भवसंस्मरणा ये च न ते दुःखस्य भाजनाः।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता -१२/२१)] जो महान् सौभाग्यशाली पुरुष मनोहर भवन, सुन्दर आभूषणों से विभूषित स्त्रियाँ, जितने से मन को संतोष हो उतना धन, पुत्र-पौत्र आदि सन्नति, आरोग्य, सुन्दर शरीर, अलौकिक प्रतिष्ठा, स्वर्गीय सुख, अन्त में मोक्षरूपी फल अथवा परमेश्वर शिव की भक्ति चाहते हैं, वे पूर्वजन्मों के महान् पुण्य से भगवान् सदाशिव की पूजा-अर्चा में प्रवृत्त होते हैं। जो पुरुष नित्य-भक्तिपरायण हो शिवलिंग की पूजा करता है, उसको सफल सिद्धि प्राप्ति होती है तथा वह पापों के चक्कर में नहीं पड़ता।

भगवान् के इस प्रकार उपदेश देने पर देवताओं ने उन श्रीहरि को प्रणाम किया और मनुष्यों की समस्त कामनाओं की पूर्ति के लिये उनसे शिवलिंग देने के लिये प्रार्थना की। मुनिश्रेष्ठ उस प्रार्थना को सुनकर जीवों के उद्धार में तत्पर रहने वाले भगवान् विष्णु ने विश्वकर्मा को बुलाकर कहा – 'विश्वकर्मन्! तुम मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण देवताओं को सुन्दर शिवलिंग का निर्माण करके दो।' तब विश्वकर्मा ने मेरी और श्रीहरि की आज्ञा के अनुसार उन देवताओं को उनके अधिकार के अनुसार शिवलिंग बनाकर दिये।

मुनिश्रेष्ठ नारद! किस देवता को कौन-सा शिवलिंग प्राप्त हुआ, इसका वर्णन आज मैं कर रहा हूँ; उसे सुनो। इन्द्र पद्मरागमणि के बने हुए शिवलिंग की और कुबेर सुवर्णमय लिंग की पूजा करते हैं। धर्म पीतमणिमय (पुखराज के बने हुए) लिंग की तथा वरुण श्यामवर्ण के शिवलिंग की पूजा करते हैं। भगवान् विष्णु इंद्रनीलमय तथा ब्रह्मा हेममय लिंग की पूजा करते हैं। मुने! विश्वेदेवगण चाँदी के शिवलिंग की, वसुगण पीतल के बने हुए लिंग की तथा दोनों अश्विनीकुमार पार्थिवलिंग की पूजा करते हैं। लक्ष्मीदेवी स्फटिकमय लिंग की, आदित्यगण ताम्रमय लिंग की, राजा सोम मोती के बने हुए लिंग की तथा अग्निदेव वज्र (हीरे) के लिंग की उपासना करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ मिट्टी के बने हुए शिवलिंग का, मयासुर चन्दननिर्मित लिंग का और नागगण मूँगे के बने हुए शिवलिंग का आदरपूर्वक पूजन करते हैं। देवी मक्खन के बने हुए लिंग की, योगीजन भस्ममय लिंग की, यक्षगण दधिनिर्मित लिंग की, छायादेवी आटे से बनाये हुए लिंग की और ब्रह्मपत्नी रत्नमय शिवलिंग की निश्चितरूप से पूजा करती हैं। बाणासुर पारद या पार्थिवलिंग की पूजा करता है। दूसरे लोग भी ऐसा ही करते हैं। ऐसे-ऐसे शिवलिंग बनाकर विश्वकर्मा ने विभिन्न लोगों को दिये तथा वे सब देवता और ऋषि उन लिंगों की पूजा करते हैं। भगवान् विष्णु ने इस तरह देवताओं को उनके हितकी कामना से शिवलिंग देकर उनसे तथा मुझ ब्रह्मा से पिनाकपाणि महादेव के पूजन की विधि भी बतायी। पूजन-विधि सम्बन्धी उनके वचनों को सुनकर देवशिरोमणियों सहित मैं ब्रह्मा हृदय में हर्ष लिये अपने धाम में आ गया। मुने! वहाँ आकर मैंने समस्त देवताओं और ऋषियों को शिव-पूजा की उत्तम विधि बतायी, जो सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली है।

उस समय मुझ ब्रह्मा ने कहा – देवताओं सहित समस्त ऋषियों! तुम प्रेमपरायण होकर सुनो; मैं प्रसन्नतापूर्वक तुमसे शिव पूजन की उस विधि का वर्णन करता हूँ, जो भोग और मोक्ष देने वाली है। देवताओं और मुनीश्वरो! समस्त जन्तुओं में मनुष्य-जन्म प्राप्त करना प्रायः दुर्लभ हैं। उनमें भी उत्तम कुलमें जन्म तो और भी दुर्लभ है। उत्तम कुल में भी आचारवान् ब्राह्मणों के यहाँ उत्पन्न होना उत्तम पुण्य से ही सम्भव है। यदि वैसा जन्म सुलभ हो जाय तो भगवान् शिव के संतोष के लिये उस उत्तम कर्म का अनुष्ठान करे, जो अपने वर्ण और आश्रम के लिये शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित है। जिस जाति के लिये जो कर्म बताया गया है, उसका उल्लंघन न करे। जितनी सम्पत्ति हो, उसके अनुसार ही दान करे। कर्ममय सहस्त्रों यज्ञों से तपोयज्ञ बढ़कर है। सहस्त्रों तपोयज्ञों से जपयज्ञ का महत्व अधिक है। ध्यानयज्ञ से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है। ध्यान ज्ञान का साधन है; क्योंकि योगी ध्यान के द्वारा अपने इष्टदेव समरस शिव का साक्षात्कार करता है। [ध्यानयज्ञात्परं नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम्। यतः समरसं स्वेष्टं योगी ध्यानेन पश्चति।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता -१२/४६)] ध्यानयज्ञ में तत्पर रहने वाले उपासक के लिये भगवान् शिव सदा ही संनिहित हैं। जो विज्ञान से सम्पन्न हैं, उन पुरुषों की शुद्धि के लिये किसी प्रायश्चित आदि की आवश्यकता नहीं है।

मनुष्य को जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक वह विश्वास दिलाने के लिये कर्म से ही भगवान् शिव की आराधना करे। जगत् के लोगों को एक ही परमात्मा अनेक रूपों में अभिवक्त हो रहा है। एकमात्र भगवान् सूर्य एक स्थान में रहकर भी जलाशय आदि विभिन्न वस्तुओं में अनेक-से दीखते हैं। देवताओं! संसार में जो-जो सत् या असत् वस्तु देखी या सुनी जाती है, वह सब परब्रह्म शिवरूप ही है – ऐसा समझो। जब तक तत्त्वज्ञान न हो जाय, तब तक प्रतिमा की पूजा आवश्यक है। ज्ञान के आभाव में भी जो प्रतिमा-पूजा की अवहेलना करता है, उसका पतन निश्चित है। इसलिये ब्राह्मणो! यह यथार्थ बात सुनो। अपनी जाति के लिये जो कर्म बताया गया है, उसका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। जहाँ-जहाँ यथावत् भक्ति हो, उस-उस आराध्यदेव का पूजन आदि अवश्य करना चाहिये; क्योंकि पूजन और दान आदि के बिना पातक दूर नहीं होते। [यत्र यत्र यथाभक्तिः कर्तव्यं पुजनादिकम्। विना पुजनादानादि पातकं न च दुरतः।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता -१२/६९)] जैसे मैले कपड़े में रंग बहुत अच्छा नहीं चढ़ता है किंतु जब उसको धोकर स्वच्छ कर लिया जाता है, तब उस पर सब रंग अच्छी तरह चढ़ते हैं, उसी प्रकार देवताओं की भली-भांति पूजा से जब त्रिविध शरीर पूर्णतया निर्मल हो जाता है, तभी उस पर ज्ञान का रंग चढ़ता है और तभी विज्ञान का प्राकट्य होता है। जब विज्ञान हो जाता है, तब भेदभाव की निवृत्ति हो जाती है। भेदकी सम्पूर्णतया निवृत्ति हो जाने पर द्वंद्व-दुःख दूर हो जाते हैं और द्वंद्व-दुःख से रहित पुरुष शिव रूप हो जाता है।

मनुष्य जब तक गृहस्थ-आश्रम में रहे, तब तक पाँचों देवताओं की तथा उन में श्रेष्ठ भगवान् शंकर की प्रतिमा का उत्तम प्रेम के साथ पूजन करे। अथवा जो सबके एकमात्र मूल हैं, उन भगवान् शिव की ही पूजा सबसे बढ़कर है; क्योंकि मूल के सींचे जाने पर शाखास्थानीय सम्पूर्ण देवता स्वतः तृप्त हो जाते हैं। अतः जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को पाना चाहता है, वह अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहकर लोककल्याणकारी भगवान् शंकर का पूजन करे।

(अध्याय १२)