शिव पूजन की सर्वोत्तम विधि का वर्णन

ब्रह्माजी कहते हैं – अब मैं पूजा की सर्वोत्तम विधि बता रहा हूँ, जो समस्त अभीष्ट तथा सुखों को सुलभ कराने वाली है। देवताओं तथा ऋषियों! तुम ध्यान देकर सुनो। उपासक को चाहिये कि वह ब्राह्ममुहूर्त में शयन से उठकर जगदम्बा पार्वती सहित भगवान् शिव का स्मरण करे तथा हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर भक्तिपूर्वक उनसे प्रार्थना करे – 'देवेश्वर! उठिये, उठिये! मेरे हृदय-मन्दिर में शयन करने वाले देवता! उठिये! उमाकान्त! उठिये और ब्रह्माण्ड में सबका मंगल कीजिये। मैं धर्म को जानता हूँ, किंतु मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती। मैं अधर्म को जानता हूँ, परंतु मैं उससे दूर नहीं हो पाता। महादेव! आप मेरे हृदय में स्थित होकर मुझे जैसी प्रेरणा देते हैं, वैसा ही मैं करता हूँ।' इस प्रकार भक्तिपूर्वक कहकर और गुरुदेव की चरणपादुकाओं का स्मरण करके गाँव से बाहर दक्षिण दिशा में मल-मुत्र का त्याग करने के लिये जाय। मलत्याग करने के बाद मिट्टी और जल से धोने के द्वारा शरीर की शुद्धि करके दोनों हाथों और पैरों को धोकर दतुअन करे, सूर्योदय होने से पहले ही दतुअन करके मूँह को सोलह बार जल की अंजलियों से धोये। देवताओं तथा ऋषियों! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावस्या और नवमी तिथियों तथा रविवार के दिन शिवभक्त को यत्नपूर्वक दतुअन को त्याग देना चाहिये। अवकाश के अनुसार नदी आदि में जाकर अथवा घर में ही भली-भांति स्नान करे। मनुष्य को देश और काल के विरुद्ध स्नान नहीं करना चाहिये। रविवार, श्राद्ध, संक्रान्ति, ग्रहण, महादान, तीर्थ, उपवास-दिवस अथवा अशौच प्राप्त होने पर मनुष्य गरम जल से स्नान न करे। शिवभक्त मनुष्य तीर्थ आदि में प्रवाह के सम्मुख होकर स्नान करे। जो नहाने के पहले तेल लगाना चाहे, उसे विहित एवं निषिद्ध दिनों का विचार करके ही तैलाभ्यंग करना चाहिये। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तेल लगाता हो, उसके लिये किसी दिन भी तैलाभ्यंग दूषित नहीं है अथवा जो तेल, इत्र आदि से वासित हो, उसका लगाना किसी दिन भी दूषित नहीं है। सरसों का तेल ग्रहण को छोड़कर दूसरे किसी दिन भी दूषित नहीं होता। इस तरह देश-काल का विचार करके ही विधिपूर्वक स्नान करे। स्नान के समय अपने मुख को उत्तर अथवा पूर्व की ओर रखना चाहिये।

उच्छिष्ट वस्त्र का उपयोग कभी न करे। शुद्ध वस्त्र से इष्ट देव के स्मरणपूर्वक स्नान करे। जिस वस्त्र को दूसरे ने धारण किया हो अथवा जो दूसरों के पहनने की वस्तु हो तथा जिसे स्वयं रात में धारण किया गया हो, वह वस्त्र उच्छिष्ट कहलाता है। उससे तभी स्नान किया जा सकता है, जब उसे धो लिया गया हो। स्नान के पश्चात् देवताओं, ऋषियों तथा पितरों को तृप्ति देने वाला स्नानांग तर्पण करना चाहिये। उसके बाद धुला हुआ वस्त्र पहने और आचमन करे। द्विजोत्तमो! तदनन्तर गोबर आदि से लीप-पोतकर स्वच्छ किये हुए शुद्ध स्थान में जाकर वहाँ सुन्दर आसन की व्यवस्था करे। वह आसन विशुद्ध काष्ठ का बना हुआ, पूरा फैला हुआ तथा विचित्र होना चाहिये। ऐसा आसन सम्पूर्ण अभीष्ट तथा फलों को देने वाला है। उसके ऊपर बिछाने के लिये यथायोग्य मृगचर्म आदि ग्रहण करे। शुद्ध बुद्धिवाला पुरुष उस आसन पर बैठ कर भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाये। त्रिपुण्ड्र से जप-तप तथा दान सफल होता है। भस्म के अभाव में त्रिपुण्ड्र का साधन जल आदि बताया गया है। इस तरह त्रिपुण्ड्र करके मनुष्य रुद्राक्ष धारण करे और अपने नित्य कर्म का सम्पादन करके फिर शिव की आराधना करे। तत्पश्चात् तीन बार मन्त्रोच्चारण पूर्वक आचमन करे। फिर वहाँ शिव की पूजा के लिए अन्न और जल लाकर रखे। दूसरी कोई भी जो वस्तु आवश्यक हो, उसे यथाशक्ति जुटाकर अपने पास रखे। इस प्रकार पूजन सामग्री का संग्रह करके वहाँ धैर्यपूर्वक स्थिर भाव से बैठे। फिर जल, गन्ध और अक्षत से युक्त एक अर्घ्यपात्र लेकर उसे दाहिने भाग में रखे। उससे उपचार की सिद्धि होती है। फिर गुरु का स्मरण करके उनकी आज्ञा लेकर विधिवत् संकल्प करके अपनी कामना को अलग न रखते हुए पराभक्ति से सपरिवार शिव का पूजन करे। एक मुद्रा दिखाकर सिन्दूर आदि उपचारों द्वारा सिद्धि-बुद्धि सहित विघ्नहारी गणेश का पूजन करे। लक्ष और लाभ से युक्त गणेशजी का पूजन करके उनके नाम के आदि में प्रणव तथा अन्त में नमः जोड़कर नाम के साथ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करते हुए नमस्कार करे। (ॐ गणपतये नमः अथवा ॐ लक्षलाभयुताय सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः) तदनन्तर उनसे क्षमा-प्रार्थना करके पुनः भाई कार्तिकेय सहित गणेशजी का पराभक्ति से पूजन करके उन्हें बारंबार नमस्कार करे। तत्पश्चात् सदा द्वार पर खड़े रहने वाले द्वारपाल महोदय का पूजन करके सती-साध्वी गिरिराजनन्दिनी उमा की पूजा करे। चन्दन, कुंकुम तथा धूप, दीप आदि अनेक उपचारों तथा नाना प्रकार के नैवेद्यों से शिवा का पूजन करके नमस्कार करने के पश्चात् साधक शिवजी के समीप जाय। यथासम्भव अपने घर में मिट्टी, सोना, चाँदी, धातु या अन्य पारे आदि की शिव-प्रतिमा बनाये और उसे नमस्कार करके भक्तिपरायण हो उसकी पूजा करे। उसकी पूजा हो जाने पर सभी देवता पूजित हो जाते हैं।

मिट्टी का शिवलिंग बनाकर विधिपूर्वक उसकी स्थापना करे। अपने घर में रहने वाले लोगों को स्थापना-सम्बन्धी सभी नियमों का सर्वथा पालन करना चाहिये। भूतशुद्धि एवं मातृकान्यास करके प्राणप्रतिष्ठा करे। शिवालय में दिक्पालों की भी स्थापना करके उनकी पूजा करे। घर में सदा मूलमन्त्र का प्रयोग करके शिव की पूजा करनी चाहिये। वहाँ द्वारपालों के पूजन का सर्वथा नियम नहीं है। भगवान् शिव के समीप ही अपने लिये आसन की व्यवस्था करे। उस समय उत्तराभिमुख बैठ कर फिर आचमन करे, उसके बाद दोनों हाथ जोड़कर तब प्राणायाम करे। प्राणायामकाल में मनुष्य को मूलमन्त्र की दस आवृत्तियाँ करनी चाहिये। हाथों से पाँच मुद्राएँ दिखाये। यह पूजा का आवश्यक अंग है। इन मूद्राओं का प्रदर्शन करके ही मनुष्य पूजा-विधि का अनुसरण करे। तदनन्तर वहाँ दीप निवेदन करके गुरु को नमस्कार करे और पद्मासन या भद्रासन बाँधकर बैठे अथवा उत्तानासन या पर्यंकासन का आश्रय लेकर सुखपूर्वक बैठे और पुनः पूजन का प्रयोग करे। फिर अर्घ्यपात्र से उत्तम शिवलिंग का प्रक्षालन करे। मन को भगवान् शिव से अन्यत्र न ले जाकर पूजा समाग्री को अपने पास रखकर निम्नाकिंत मन्त्रसमुह से महादेवजी का आवाहन करे।

आवाहन मन्त्र –
कैलासशिखरस्थं च पार्वतीपतिमुत्तमम्‌॥४७॥
यथोक्तरूपिणं शम्भुं निर्गुणं गुणरूपिणम्‌।
पञ्चवक्त्रं दशभुजं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम्‌॥४८॥
कर्पूरगौरं दिव्याङ्गं चन्द्रमौलिं कपर्दिनम्‌।
व्याघ्रचर्मोत्तरीयं च गजचर्माम्बरं शुभम्‌॥४९॥
वासुक्यादिपरीताङ्गं पिनाकाद्यायुधान्वितम्‌।
सिद्ध्योऽष्टौं च यस्याग्रे नृत्यन्तीह निरन्तरम्‌॥५०॥
जयजयेति शब्दैश्च सेवितं भक्तपुञ्जकैः।
तेजसा दुस्सहेनैव दुर्लक्ष्यं देवसेवितम्‌॥५१॥
शरण्यं सर्वसत्त्वानां प्रसन्नमुखपङ्कजम्‌।
वेदैः शास्त्रैर्यथागीतं विष्णुब्रह्मनुतं सदा॥५२॥
भक्तवत्सलमानन्दं शिवमावाहयाम्यहम्‌।

'जो कैलास के शिखर पर निवास करते हैं, पार्वती देवी के पति हैं, समस्त देवताओं से उत्तम हैं, जिनके स्वरूप का शास्त्रों में यथावत् वर्णन किया गया है, जो निर्गुण होते हुए भी गुणरूप हैं, जिनके पाँच मुख, दस भूजाएँ और प्रत्येक मुखमण्डल में तीन-तीन नेत्र हैं, जिनकी ध्वजा पर वृषभ का चिह्न अंकित है, अंगकान्ति कर्पूर के समान गौर है, जो दिव्यरूपधारी, चन्द्रमारूपी, मुकुट से सुशोभित तथा सिर पर जटाजूट धारण करने वाले हैं, जो हाथी की खाल पहनते और व्याघ्रचर्म ओढ़ते हैं, जिनका स्वरूप शुभ है, जिनके अंगों में वासुकि आदि नाग लिपटे रहते हैं, जो पिनाक आदि आयुध धारण करते हैं, जिनके आगे आठो सिद्धियाँ निरन्तर नृत्य करती रहती हैं, भक्तसमुदाय जय-जयकार करते हुए जिनकी सेवा में लगे रहते हैं, दुस्सह तेज के कारण जिनकी ओर देखना भी कठिन है, जो देवताओं से सेवित तथा सम्पूर्ण प्राणियों को शरण देने वाले हैं, जिनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ है, वेदों और शास्त्रों ने जिनकी महिमा का यथावत् गान किया है, विष्णु और ब्रह्मा भी सदा जिनकी स्तुति करते हैं तथा जो परमानंदस्वरुप हैं, उन भक्तवत्सल शम्भु शिव का मैं आवाहन करता हूँ।'

इस प्रकार साम्ब शिव का ध्यान करके उनके लिये आसन दे। चतुर्थ्यन्त पद से ही क्रमशः सब कुछ अर्पित करे (यथा – साम्बाय सदाशिवाय नमः आसनं समर्पयामि – इत्यादि)। आसन के पश्चात् भगवान् शंकर को पाद्य और अर्घ्य दे। फिर परमात्मा शम्भु को आचमन कराकर पंचामृत-सम्बन्धी द्रव्यों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक शंकर को स्नान कराये। वेदमन्त्रों अथवा समन्त्रक चतुर्थ्यन्त नामपदों का उच्चारण करके भक्तिपूर्वक यथायोग्य समस्त द्रव्य भगवान् को अर्पित करे। अभीष्ट द्रव्य को शंकर के ऊपर चढ़ाये। फिर भगवान् शिव को वारुण-स्नान कराये। स्नान के पश्चात् उनके श्रीअंगों में सुगन्धित चन्दन तथा अन्य द्रव्यों का यत्नपूर्वक लेप करे। फिर सुगन्धित जल से ही उनके ऊपर जलधारा गिरा कर अभिषेक करे। वेदमन्त्रों, षडंगों अथवा शिव के ग्यारह नामों द्वारा यथावकाश जलधारा चढ़ाकर वस्त्र से शिवलिंग को अच्छी तरह पौंछे। फिर आचमनार्थ जल दे और वस्त्र समर्पित करे। नाना प्रकार के मन्त्रों द्वारा भगवान् शिव को तिल, जौ, गेहूं, मूँग और उड़द अर्पित करे। फिर पाँच मुख वाले परमात्मा शिव को पुष्प चढ़ाये। प्रत्येक मुख पर ध्यान के अनुसार अभिलाषा करके कमल, शतपत्र, शंखपुष्प, कुशपुष्प, धत्तूर, मन्दार, द्रोणपुष्प (गूमा), तुलसीदल तथा बिल्वपत्र चढ़ाकर पराभक्ति के साथ भक्तवत्सल भगवान् शंकर की विशेष पूजा करे। अन्य सब वस्तुओं का अभाव होने पर शिव को केवल बिल्वपत्र ही अर्पित करे। बिल्वपत्र समर्पित होने से ही शिव की पूजा सफल होती है। तत्पश्चात् सुगन्धित चूर्ण, तथा सुवासित उत्तम तैल (इत्र आदि) विविध वस्तुएँ बड़े हर्ष के साथ भगवान् शिव को अर्पित करे। फिर प्रसन्नतापूर्वक गुग्गुल और अगुरु आदि की धुप निवेदन करे। तदनन्तर शंकरजी को घी से बरा हुआ दीपक दे। इसके बाद निम्नांकित मन्त्र से भक्तिपूर्वक पुनः अर्घ्य दे और भक्तिभाव से वस्त्र द्वारा उनके मुख का मार्जन करे।

अर्घ्यमन्त्र

रूपं देहि यशो देहि भोगं देहि च शङ्‌कर।
भुक्तिमुक्तिपफलं देहि गृहीत्वार्ष्य नमोऽस्तु ते।।
'प्रभो! शंकर! आपको नमस्कार है। आप इस अर्घ्य को स्वीकार करके मुझे रूप दीजिये, यश दीजिये, भोग दीजिये तथा भोग और मोक्ष रूपी फल प्रदान कीजिये।'

इसके बाद भगवान् शिव को भाँती-भाँति के उत्तम नैवेद्य अर्पित करे। नैवेद्य के पश्चात् प्रेमपूर्वक आचमन कराये। तदनन्तर सांगोपांग ताम्बुल बनाकर शिव को समर्पित करे। फिर पाँच बत्ती की आरती बनाकर भगवान् को दिखाये। उसकी संख्या इस प्रकार है – पैरों में चार बार, नाभिमण्डल के सामने दो बार, मुख के समक्ष एक बार तथा सम्पूर्ण अंगों में सात बार आरती दिखाये। तत्पश्चात् नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा प्रेमपूर्वक भगवान् वृषभध्वज की स्तुति करे। तदनन्तर धीरे-धीरे शिव की परिक्रमा करे। परिक्रमा के बाद भक्त पुरुष साष्टांग प्रणाम करे और निम्नाकिंत मन्त्र से भक्तिपूर्वक पुष्पांजलि दे –

पुष्पांजलिमन्त्र
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाद्यद्यत्पुजादिकं मया।
कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर।।
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वश्चित्तोऽहं सदा मृड।
इति विज्ञाय गौरीश भूतनाथ प्रसीद मे।।
भूमौ स्खलितपादानां भूमिरेवावलम्बनम्।
त्वयि जातापराधानां त्वमेव शरणं प्रभो।।

'शंकर! मैंने अज्ञान से या जान-बूझकर जो पूजन आदि किया है, वह आपकी कृपा से सफल हो। मृड! मैं आपका हूँ, मेरे प्राण सदा आप में लगे हुए हैं, मेरा चित्त सदा आपका ही चिन्तन करता है – ऐसा जानकर हे गौरीनाथ! भूतनाथ! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। प्रभो! धरती पर जिनके पैर लड़खड़ा जाते हैं, उनके लिये भूमि ही सहारा है; उसी प्रकार जिन्होंने आपके प्रति अपराध किये हैं उनके लिये भी आप ही शरणदाता हैं।'

इत्यादि रूप से बहुत-बहुत प्रार्थना करके उत्तम विधि से पुष्पांजलि अर्पित करने के पश्चात् पुनः भगवान् को नमस्कार करे। फिर निम्नांकित मन्त्र से विसर्जन करना चाहिये।

विसर्जन

स्वस्थानं गच्छ देवेश परिवारयुतः प्रभो।
पूजाकाले पुनर्नाथ त्वयाऽऽगन्तव्यमादरात्।।

'देवेश्वर प्रभो! अब आप परिवार सहित अपने स्थान को पधारें। नाथ! जब पूजा का समय हो, तब पुनः आप यहाँ सादर पदार्पण करें।'

इस प्रकार भक्तवत्सल शंकर की बारंबार प्रार्थना करके उनका विसर्जन करे और उस जल को अपने हृदय में लगाये तथा मस्तक पर चढ़ाये।

ऋषियों! इस तरह मैंने शिव पूजन की सारी विधि बता दी, जो भोग और मोक्ष देने वाली है।

(अध्याय १३)