स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की, ऋषियों की तथा दक्षकन्याओं की संतानों का वर्णन तथा सती और शिव की महत्ता का प्रतिपादन

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर मैंने शब्दतन्मात्रा आदि सूक्ष्म-भूतों को स्वयं ही पंचीकृत करके अर्थात् उन पाँचों का परस्पर सम्मिश्रण करके उन से स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की सृष्टि की। पर्वतों, समुद्रों और वृक्षों आदि को उत्पन्न किया। कला से लेकर युगपर्यन्त जो काल-विभाग हैं, उनकी रचना की। मुने! उत्पत्ति और विनाशवाले और भी बहुत-से पदार्थों का मैंने निर्माण किया। परंतु इससे मुझे संतोष नहीं हुआ। तब साम्ब शिव का ध्यान करके मैंने साधनपरायण पुरुषों की सृष्टि की। अपने दोनों नेत्रों से मरीचि को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को, व्यानवायु से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदानवायु से पुलस्त्य को, समानवायु से वसिष्ठ को, अपान से क्रतु को, दोनों कानों से अत्रि को, प्राणों से दक्ष को, गोद से तुमको, छाया से कर्दम मुनि को तथा संकल्प से समस्त साधनों के साधन धर्म को उत्पन्न किया। मुनिश्रेष्ठ! इस तरह इन उत्तम साधकों की सृष्टि करके महादेवजी की कृपा से मैंने अपने-आप को कृतार्थ माना। तात! तत्पश्चात् संकल्प से उत्पन्न हुए धर्म मेरी आज्ञा से मानव रूप धारण करके साधकों की प्रेरणा से साधन में लग गये। इसके बाद मैंने अपने विभिन्न अंगों से देवता, असुर आदि के रूप में असंख्य पुत्रों की सृष्टि करके उन्हें भिन्न-भिन्न शरीर प्रदान किये। मुने! तदनन्तर अन्तर्यामी भगवान् शंकर की प्रेरणा से अपने शरीर को दो भागों में विभक्त करके मैं दो रूपवाला हो गया। नारद! आधे शरीर से मैं स्त्री हो गया और आधे से पुरुष। उस पुरुष ने उस स्त्री के गर्भ से सर्वसाधनसमर्थ उत्तम जोड़े को उत्पन्न किया। उस जोड़े में जो पुरुष था, वही स्वायुम्भुव मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वायम्भुव मनु उच्चकोटि के साधक हुए तथा जो स्त्री हुई, वह शतरूपा कहलायी। वह योगिनी एवं तपस्विनी हुई। तात! मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यन्त सुन्दरी शतरूपा का पाणिग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे। उन्होंने शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और तीन कन्याएँ उत्पन्न की। कन्याओं के नाम थे – आकूति, देवहूति और प्रसूति। मनु ने आकूति का विवाह प्रजापति रूचि के साथ किया। मझली पुत्री देवहूति कर्दम को ब्याह दी और उत्तानपाद की सबसे छोटी बहिन प्रसूति प्रजापति दक्ष को दे दी। उनकी संतान परम्पराओं से समस्त चराचर जगत् व्याप्त है।

रूचि से आकूति के गर्भ से यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ के दक्षिणा से बारह पुत्र हुए। मुने! कर्दम द्वारा देवहूति के गर्भ से बहुत-सी पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। उनमें से श्रद्धा आदि तेरह कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ कर दिया। मुनीश्वर! धर्म की उन पत्नियों के नाम सुनो – श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति – ये सबी तेरह हैं। इनसे छोटी जो शेष ग्यारह सुलोचना कन्याएँ थीं, उनके नाम इस प्रकार हैं – ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा तथा स्वधा। भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा मुनि, पुलस्त्य, पुलह, मुनिश्रेष्ठ क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, अग्नि और पितरों ने क्रमशः इन ख्याति आदि कन्याओं का पाणिग्रहण किया। भृगु आदि मुनिश्रेष्ठ साधक हैं। इनकी संतानों से चराचर प्राणियों सहित सारी त्रिलोकी भरी हुई है।

इस प्रकार अम्बिकापति महादेवजी की आज्ञा से अपने पुर्वकर्मों के अनुसार बहुत-से प्राणी असंख्य श्रेष्ठ द्विजों के रूप में उत्पन्न हुए। कल्पभेद से दक्ष के साठ कन्याएँ बतायी गयी हैं। उनमें से दस कन्याओं का विवाह उन्होंने धर्म के साथ किया। सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को ब्याह दी और विधिपूर्वक तेरह कन्याओं के हाथ दक्ष ने कश्यप के हाथ में दे दिये। नारद! उन्होंने चार कन्याएँ श्रेष्ठ रूप वाले तार्क्ष्य (अरिष्टनेमि) को ब्याह दीं तथा भृगु, अंगिरा और कृशाश्व को दो-दो कन्याएँ अर्पित कीं। उन स्त्रियों से उन के पतियों द्वारा बहुसंख्यक चराचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। मुनिश्रेष्ठ! दक्ष ने महात्मा कश्यप को जिन तेरह कन्याओं का विधिपूर्वक दान दिया था, उनकी संतानों से सारी त्रिलोकी व्याप्त है। स्थावर और जंगम कोई भी सृष्टि ऐसी नहीं है, जो कश्यप की संतानों से शून्य हो। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा तृण-लता आदि सभी कश्यप-पत्नीयों से पैदा हुए हैं। इस प्रकार दक्ष-कन्याओं की संतानों से सारा चराचर जगत् व्याप्त है। पाताल से लेकर सत्यलोकपर्यन्त समस्त ब्रह्माण्ड निश्चय ही उनकी संतानों से सदा भरा रहता है, कभी खाली नहीं होता।

इस तरह भगवान् शंकर की आज्ञा से ब्रह्माजी ने भली-भांति सृष्टि की। पूर्वकाल में सर्वव्यापी शम्भु ने जिन्हें तपस्या के लिये प्रकट किया था तथा रुद्रदेव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर जिनकी सदा रक्षा की है, वे ही सतीदेवी लोकहित का कार्य सम्पादित करने के लिये दक्ष से प्रकट हुई थीं। उन्होंने भक्तों के उद्धार के लिये अनेक लीलाएँ कीं। इस प्रकार देवी शिवा ही सती होकर भगवान् शंकर से ब्याही गयीं; किंतु पिता के यज्ञ में पति का अपमान देख उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया और फिर उसे ग्रहण नहीं किया। वे अपने परम पद को प्राप्त हो गयीं। फिर देवताओं की प्रार्थना से वे ही शिवा पार्वती रूप में प्रकट हुईं और बड़ी भारी तपस्या करके पुनः भगवान् शिव को उन्होंने प्राप्त कर लिया। मुनीश्वर! इस जगत् में उनके अनेक नाम प्रसिद्ध हुए। उनके कालिका, चंडिका, भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, जयन्ती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अम्बा, मृडानी और सर्वमंगला आदि अनेक नाम हैं, जो भोग और मोक्ष देने वाले हैं। ये सभी नाम उनके गुण और कर्मों के अनुसार हैं।

मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार मैंने सृष्टिक्रम का तुमसे वर्णन किया है। ब्रह्माण्ड का यह सारा भाग भगवान् शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है। भगवान् शिव को परब्रह्म परमात्मा कहा गया है। मैं, विष्णु तथा रुद्र – ये तीन देवता गुणभेद से उन्हीं के रूप बतलाये गये हैं। वे मनोरम शिवलोक में शिवा के साथ स्वच्छन्द विहार करते हैं। भगवान् शिव स्वतन्त्र परमात्मा हैं। निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं।

(अध्याय १६)