यज्ञदत्त-कुमार को भगवान् शिव की कृपा से कुबेरपद की प्राप्ति तथा उनकी भगवान् शिव के साथ मैत्री

सूतजी कहते हैं – मुनीश्वरो! ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और पुनः पूछा – 'भगवन्! भक्तवत्सल भगवान् शंकर कैलास पर्वत पर कब गये और महात्मा कुबेर के साथ उनकी मैत्री कब हुई? परिपूर्ण मंगलविग्रह महादेवजी ने वहाँ क्या किया? यह सब मुझे बताइये। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हैं।'

ब्रह्माजी ने कहा – नारद! सुनो, चन्द्रमौलि भगवान् शंकर के चरित्र का वर्णन करता हूँ। वे कैसे कैलास पर्वत पर गये और कुबेर की उनके साथ किस प्रकार मैत्री हुई, यह सब सुनाता हूँ। काम्पिल्य नगर में यज्ञदत्त नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े सदाचारी थे। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम गुणनिधि था। वह बड़ा ही दुराचारी और जुआरी हो गया था। पिता ने अपने उस पुत्र को त्याग दिया। वह घर से निकल गया और कई दिनों तक भूखा भटकता रहा। एक दिन वह नैवेद्य चुराने की इच्छा से एक शिव मंदिर में गया। वहाँ उसने अपने वस्त्र को जलाकर उजाला किया। यह मानो उसके द्वारा भगवान् शिव के लिये दीपदान किया गया। तत्पश्चात् वह चोरी में पकड़ा गया और उसे प्राणदण्ड मिला। अपने कुकर्मों के कारण वह यमदूतों द्वारा बाँधा गया। इतने में ही भगवान् शंकर के पार्षद वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने उसे उनके बन्धन से छुड़ा दिया। शिवगणों के संग से उसका हृदय शुद्ध हो गया था। अतः वह उन्हीं के साथ तत्काल शिवलोक में चला गया। वहाँ सारे दिव्य भोगों का उपभोग तथा उमा-महेश्वर का सेवन करके कालान्तर में वह कलिंगराज अरिंदम का पुत्र हुआ। वहाँ उसका नाम था दम। वह निरन्तर भगवान् शिव की सेवा में लगा रहता था। बालक होने पर भी वह दूसरे बालकों के साथ शिव का भजन किया करता था। वह क्रमशः युवावस्था को प्राप्त हुआ और पिता के परलोकगमन के पश्चात् राजसिंहासन पर बैठा।

राजा दम बड़ी प्रसन्नता के साथ सब ओर शिवधर्मों का प्रचार करने लगे। भूपाल दम का दमन करना दूसरों के लिये सर्वथा कठिन था। ब्रह्मन्! समस्त शिवालयों में दीपदान करने के अतिरिक्त वे दुसरे किसी धर्म को नहीं जानते थे। उन्होंने अपने राज्य में रहने वाले समस्त ग्रामाघ्यक्षों को बुलाकर यह आज्ञा दे दी कि 'शिवमन्दिर में दीपदान करना सबके लिये अनिवार्य होगा। जिस-जिस ग्रामाध्यक्ष के गाँव के पास जितने शिवालय हों, वहाँ-वहाँ बिना कोई विचार किये सदा दीप जलाना चाहिये।' आजीवन इसी धर्म का पालन करने के कारण राजा दम ने बहुत बड़ी धर्मसम्पत्ति का संचय कर लिया। फिर वे काल-धर्म के अधीन हो गये। दीपदान की वासना से युक्त होने के कारण उन्होंने शिवालयों में बहुत-से दीप जलवाये और उसके फलस्वरुप जन्मान्तर में वे रत्नमय दीपों की प्रभा के आश्रय हो अलकापुरी के स्वामी हुए। इस प्रकार भगवान् शिव के लिये किया हुआ थोड़ा-सा भी पूजन या आराधन समयानुसार महान् फल देता है, ऐसा जानकर उत्तम सुख की इच्छा रखने वाले लोगों को शिव का भजन अवश्य करना चाहिये। वह दीक्षित का पुत्र, जो सदा सब प्रकार के अधर्मों में ही रचा-पचा रहता था, दैवयोग से शिवालय में धन चुराने के लिये गया और उसने स्वार्थ वश अपने कपड़े को दीपक की बत्ती बनाकर उसके प्रकाश से शिवलिंग के ऊपर का अँधेरा दूर कर दिया; इस सत्कर्म के फलस्वरूप वह कलिंगदेश का राजा हुआ और धर्म में उसका अनुराग हो गया। फिर दीप की वासना का उदय होने से शिवालयों में दीप जलवाकर उसने यह दिक्पाल का पद पा लिया। मुनीश्वर! देखो तो सही, कहाँ उसका वह कर्म और कहाँ यह दिक्पाल की पदवी, जिसका यह मानवधर्मा प्राणी इस समय यहाँ उपभोग कर रहा है। तात! यह तो उसके ऊपर शिव के संतुष्ट होने की बात बतायी गयी। अब एकचित्त होकर यह सुनो कि किस प्रकार सदा के लिये उसकी भगवान् शिव के साथ मित्रता हो गयी। मैं इस प्रसंग का तुमसे वर्णन करता हूँ।

नारद! पहले के पाद्यकल्प की बात है, मुझ ब्रह्मा के मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण (कुबेर) हुए। उन्होंने पूर्वकाल में अत्यन्त उग्र तपस्या के द्वारा त्रिनेत्रधारी महादेव की आराधना करके विश्वकर्मा की बनायी हुई इस अलकापुरी का उपभोग किया। जब वह कल्प व्यतीत हो गया और मेघवाहनकल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्त का पुत्र, जो प्रकाश का दान करने वाला था, कुबेर के रूप में अत्यन्त दुस्सह तपस्या करने लगा। दीपदान मात्र से मिलने वाली शिवभक्ति के प्रभाव को जानकर वह शिव की चित्प्रकाशिका काशिकापूरी में गया और अपने चित्तरूपी रत्नमय प्रदीपों से ग्यारह रुदों को उद्बोधित करके अनन्यभक्ति एवं स्नेह से सम्पन्न हो वह तन्मयतापूर्वक शिव के ध्यान में मग्न हो निश्चलभाव से बैठ गया। जो शिव की एकता का महान् पात्र है, तपरूपी अग्नि से बढ़ा हुआ है, काम-क्रोधादि महाविघ्नरूपी पतंगों के आघात से शून्य है, प्राणनिरोधरूपी वायुशून्य स्थान में निश्चलभाव से प्रकाशित है, निर्मल दृष्टि के कारण स्वरूप से भी निर्मल है तथा सद्भावरूपी पुष्पों से जिसकी पूजा की गयी है, ऐसे शिवलिंग की प्रतिष्ठा करके वह तब तक तपस्या में लगा रहा, जब तक उसके शरीर में केवल अस्थि और चर्ममात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गये। इस प्रकार उसने दस हजार वर्षों तक तपस्या की। तदनन्तर विशालाक्षी पार्वती देवी के साथ भगवान् विश्वनाथ कुबेर के पास आये। उन्होंने प्रसन्नचित्त से अलकापति की ओर देखा। वे शिवलिंग में मन को एकाग्र करके ठूंठे काठ की भाँति स्थिरभाव से बैठे थे। भगवान् शिव ने उनसे कहा – 'अलकापते! मैं वर देने के लिये उद्यत हूँ। तुम अपना मनोरथ बताओ।'

यह वाणी सुनकर तपस्या के धनी कुबेर ने ज्यों ही आँखे खोलकर देखा, त्यों ही उमावल्लभ भगवान् श्रीकंठ सामने खड़े दिखायी दिये। वे उदयकाल के सहस्त्रों सूर्यों से भी अधिक तेजस्वी थे और उनके मस्तक पर चन्द्रमा अपनी चाँदनी बिखेर रहे थे। भगवान् शंकर के तेज से उनकी आँखे चौंधिया गयीं। उनका तेज प्रतिहत हो गया और वे नेत्र बंद करके मनोरथ से भी परे विराजमान देवदेवेश्वर शिव से बोले – 'नाथ! मेरे नेत्रों को वह दृष्टीशक्ति दीजिये, जिससे आपके चरणारविन्दों का दर्शन हो सके। स्वामिन्! आपका प्रत्यक्ष दर्शन हो, यही मेरे लिये सबसे बड़ा वर है। ईश! दूसरे किसी वर से मेरा क्या प्रयोजन है। चंद्रशेखर! आपको नमस्कार है।'

कुबेर की यह बात सुनकर देवाधिदेव उमापति ने अपनी हथेली से उनका स्पर्श करके उन्हें देखने की शक्ति प्रदान की। दृष्टिशक्ति मिल जाने पर यज्ञदत्त के उस पुत्र ने आँखे फाड़-फाड़कर पहले उमा की ओर ही देखना आरम्भ किया। वह मन-ही-मन सोचने लगा, 'भगवान् शंकर के समीप यह सर्वांगसुन्दरी कौन है? इसने कौन-सा ऐसा तप किया है, जो मेरी भी तपस्या में बढ़ गया है। यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभा – सभी अद्भुत हैं।' वह ब्राह्मणकुमार बार-बार यही कहने लगा। जब बार-बार यही कहता हुआ वह क्रूर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा, तब वामा के अवलोकन से उसकी बायीं आँख फुट गयी। तदनन्तर देवी पार्वती ने महादेवजी से कहा – 'प्रभो! यह दुष्ट तपस्वी बार-बार मेरी ओर देखकर क्या बक रहा है? आप मेरी तपस्या के तेज को प्रकट कीजिये।' देवी की यह बात सुनकर भगवान् शिव ने हँसते हुए उनसे कहा – 'उमे! यह तुम्हारा पुत्र है। यह तुम्हें क्रूर द्रष्टि से नहीं देखता, अपितु तुम्हारी तपःसम्पत्ति का वर्णन कर रहा है।' देवी से ऐसा कहकर भगवान् शिव पुनः उस ब्राह्मणकुमार से बोले – 'वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट होकर तुम्हें वर देता हूँ। तुम निधियों के स्वामी और गुह्यकों के राजा हो जाओ। सुव्रत! यक्षों, किन्नरों और राजाओं के भी राजा होकर पुण्यजनों के पालक और सबके लिये धन के दाता बनो। मेरे साथ तुम्हारी सदा मैत्री बनी रहेगी और मैं नित्य तुम्हारे निकट निवास करूँगा। मित्र! तुम्हारी प्रीति बढ़ाने के लिये मैं अलका के पास ही रहूँगा। आओ, इन उमा देवी के चरणों में साष्टांग प्रणाम करो; क्योंकि ये तुम्हारी माता हैं। महाभक्त यज्ञदत्त-कुमार! तुम अत्यन्त प्रसन्नचित्त से इनके चरणों में गिर जाओ।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार वर देकर भगवान् शिव ने पार्वती देवी से फिर कहा – 'देवेश्वरी! इसपर कृपा करो। तपस्विनी! यह तुम्हारा पुत्र है।' भगवान् शंकर का यह कथन सुनकर जगदम्बा पार्वती ने प्रसन्नचित्त हो यज्ञदत्तकुमार से कहा – 'वत्स! भगवान् शिव में तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे। तुम्हारी बायीं आँख तो फुट ही गयी। इसलिये एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो। महादेवजी ने जो वर दिये हैं, वे सब उसी रूप में तुम्हें सुलभ हों। बेटा! मेरे रूप के प्रति ईर्ष्या करने के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होओगे।' इस प्रकार कुबेर को वर देकर भगवान् महेश्वर पार्वती देवी के साथ अपने विश्वेश्वर-धाम में चले गये। इस तरह कुबेर ने भगवान् शंकर की मैत्री प्राप्त की और अलकापूरी के पास जो कैलास पर्वत है, वह भगवान् शंकर का निवास हो गया।

(अध्याय १७ - १९)