नारदजी के प्रश्न और ब्रह्माजी के द्वारा उनका उत्तर, सदाशिव से त्रिदेवों की उत्पत्ति तथा ब्रह्माजी से देवता आदि की सृष्टि के पश्चात् एक नारी और एक पुरुष का प्राकट्य
नारदजी बोले – महाभाग! महाप्रभो! विधातः! आपके मुखारविन्द से मंगलकारिणी शम्भु कथा सुनते-सुनते मेरा जी नहीं भर रहा है। अतः भगवान् शिव का सारा शुभ चरित्र मुझसे कहिये। सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करने वाले ब्रह्मदेव! मैं सती की कीर्ति से युक्त शिव का दिव्य चरित्र सुनना चाहता हूँ। शोभाशालिनी सती किस प्रकार दक्षपत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुईं? महादेवजी ने विवाह का विचार कैसे किया? पूर्वकाल में दक्ष के प्रति रोष होने के कारण सती ने अपने शरीर का त्याग कैसे किया? चेतनाकाश को प्राप्त होकर वे फिर हिमालय की कन्या कैसे हुईं? पार्वती ने किस प्रकार उग्र तपस्या की और कैसे उनका विवाह हुआ? कामदेव का नाश करने वाले भगवान् शंकर के आधे शरीर में वे किस प्रकार स्थान पा सकीं? महामते! इन सब बातों को आप विस्तारपूर्वक कहिये। आपके समान दूसरा कौई संशय का निवारण करने वाला न है, न होगा।
ब्रह्माजी ने कहा – मुने! देवी सती और भगवान् शिव का शुभ यश परमपावन, दिव्य तथा गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय है। तुम वह सब मुझसे सुनो। पूर्वकाल में भगवान् शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निराकार, शक्तिरहित, चिन्मय तथा सत् और असत् से विलक्षण स्वरूप में प्रतिष्ठित थे। फिर वे ही प्रभु सगुण और शक्तिमान् होकर विशिष्ट रूप धारण करके स्थित हुए। उनके साथ भगवती उमा विराजमान थीं। विप्रवर! वे भगवान् शिव दिव्य आकृति से सुशोभित हो रहे थे। उनके मन में कोई विकार नहीं था। वे अपने परात्पर स्वरूप में प्रतिष्ठित थे। मुनिश्रेष्ठ! उनके बायें अंग से भगवान् विष्णु, दायें अंग से मैं ब्रह्मा और मध्य अंग अर्थात् हृदय से रुद्रदेव प्रकट हुए। मैं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हुआ, भगवान् विष्णु जगत् का पालन करने लगे और स्वयं रुद्र ने संहार का कार्य सँभाला। इस प्रकार भगवान् सदाशिव स्वयं ही तीन रूप धारण करके स्थित हुए। उन्हीं की आराधना करके मुझ लोकपितामह ब्रह्मा ने देवता, असुर और मनुष्य आदि सम्पूर्ण जीवों की सृष्टि की। दक्ष आदि प्रजापतियों और देवशिरोमणियों की सृष्टि करके मैं बहुत प्रसन्न हुआ तथा अपने को सबसे अधिक ऊँचा मानने लगा। मुने! जब मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वसिष्ठ, नारद, दक्ष और भृगु – इन महान् प्रभावशाली मानस पुत्रों को मैंने उत्पन्न किया, तब मेरे हृदय से अत्यन्त मनोहर रूपवाली एक सुन्दरी नारी उत्पन्न हुई, जिसका नाम 'संध्या' था। वह दिन में क्षीण हो जाती, परंतु सायं काल में उसका रूप-सौन्दर्य खिल उठता था। वह मूर्तिमती सायं-संध्या ही थी और निरन्तर किसी मन्त्र का जप करती रहती थी। सुन्दर भौंहोंवाली वह नारी सौन्दर्य की चरम सीमा को पहुँची हुई थी और मुनियों के भी मन को मोहे लेती थी।
इसी तरह मेरे मन से एक मनोहर पुरुष भी प्रकट हुआ, जो अत्यन्त अद्भुत था। उसके शरीर का मध्य-भाग (कटिप्रदेश) पतला था। दाँतों की पंक्तियाँ बड़ी सुन्दर थीं। उसके अंगों से मतवाले हाथी की-सी गन्ध प्रकट होती थी। नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान शोभा पाते थे। अंगों में केसर लगा था, जिसकी सुगन्ध नासिका को तृप्त कर रही थी। उस पुरुष को देखकर दक्ष आदि मेरे सभी पुत्र अत्यन्त उत्सुक हो उठे। उनके मन में विस्मय भर गया था। जगत् की सृष्टि करने वाले मुझ जगदीश्वर ब्रह्मा की ओर देखकर उस पुरुष ने विनय से गर्दन झुका दी और मुझे प्रणाम करके कहा।
वह पुरुष बोला – ब्रह्मन्! मैं कौन-सा कार्य करूँगा? मेरे योग्य जो काम हो, उसमें मुझे लगाइये; क्योंकि विधाता! आज आप ही सबसे अधिक माननीय और योग्य पुरुष हैं। यह लोक आपसे ही शोभित हो रहा है।
ब्रह्माजी ने कहा – भद्रपुरुष! तुम अपने इसी स्वरूप से तथा फूल के बने हुए पाँच बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करते हुए सृष्टि के सनातन कार्य को चलाओ। इस चराचर त्रिभुवन में ये देवता आदि कोई भी जीव तुम्हारा तिरस्कार करने में समर्थ नहीं होंगे। तुम छिपे रूप से प्राणियों के हृदय में प्रवेश करके सदा स्वयं उनके सुख का हेतु बनकर सृष्टि का सनातन कार्य चालू रखो। समस्त प्राणियों का जो मन है, वह तुम्हारे पुष्पमय बाण का सदा अनायास ही अद्भुत लक्ष्य बन जायगा और तुम निरन्तर उन्हें मदमत्त किये रहोगे। यह मैंने तुम्हारा कर्म बताया है, जो सृष्टि का प्रवर्तक होगा और तुम्हारे ठीक-ठीक नाम क्या होंगे, इस बात को मेरे ये पुत्र बतायेंगे।
सुरश्रेष्ठ! ऐसा कहकर अपने पुत्रों के मुख की ओर दृष्टिपात करके मैं क्षण भर के लिये अपने कमलमय आसन पर चुपचाप बैठ गया।
(अध्याय १ - २)