कामदेव के नामों का निर्देश, उसका रति के साथ विवाह तथा कुमारी संध्या का चरित्र – वसिष्ठ मुनि का चन्द्रभाग पर्वत पर उसको तपस्या की विधि बताना

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर मेरे अभिप्राय को जानने वाले मरीचि आदि मेरे पुत्र सभी मुनियों ने उस पुरुष का उचित नाम रखा। दक्ष आदि प्रजापतियों ने उसका मुँह देखते ही परोक्ष के भी सारे वृत्तान्त जानकर उसे रहने के लिये स्थान और पत्नी प्रदान की। मेरे पुत्र मरीचि आदि द्विजों ने उस पुरुष के नाम निश्चित करके उससे यह युक्तियुक्त बात कही।

ऋषि बोले – तुम जन्म लेते ही हमारे मन को भी मथने लगे हो। इसलिये लोक में 'मन्मथ' नाम से विख्यात होओगे। मनोभव! तीनों लोकों में तुम इच्छानुसार रूप धारण करने वाले हो, तुम्हारे समान सुन्दर दूसरा कोई नहीं है; अतः कामरूप होने के कारण तुम 'काम' नाम से भी विख्यात होओ। लोगों को मदमत्त बना देने के कारण तुम्हारा एक नाम 'मदन' होगा। तुम बड़े दर्प से उत्पन्न हुए हो, इसलिये 'दर्पक' कहलाओगे और सदर्प होने के कारण ही जगत् में 'कंदर्प' नाम से भी तुम्हारी ख्याति होगी। समस्त देवताओं का सम्मिलित बल-पराक्रम भी तुम्हारे समान नहीं होगा। अतः सभी स्थानों पर तुम्हारा अधिकार होगा और तुम सर्वव्यापी होओगे। जो आदि प्रजापति हैं; वे ही ये पुरुषों में श्रेष्ठ दक्ष तुम्हारी इच्छा के अनुरूप पत्नी स्वयं देंगे। वह तुम्हारी कामिनी (तुमसे अनुराग रखनेवाली) होगी।

ब्रह्माजी ने कहा – मुने! तदनन्तर मैं वहाँ से अदृश्य हो गया। इसके बाद दक्ष मेरी बात का स्मरण करके कंदर्प से बोले – 'कामदेव! मेर शरीर से उत्पन्न हुई मेरी यह कन्या सुन्दर रूप और उत्तम गुणों से सुशोभित है। इसे तुम अपनी पत्नी बनाने के लिये ग्रहण करो। यह गुणों की दृष्टि से सर्वथा तुम्हारे योग्य है। महातेजस्वी मनोभव! यह सदा तुम्हारे साथ रहनेवाली और तुम्हारी रूचि के अनुसार चलनेवाली होगी। धर्मतः यह सदा तुम्हारे अधीन रहेगी।

ऐसा कहकर दक्ष ने अपने शरीर के पसीने से प्रकट हुई उस कन्या का नाम 'रति' रखकर उसे अपने आगे बैठाया और कंदर्प को संकल्पपूर्वक सौंप दिया। नारद! दक्ष की वह पुत्री रति बड़ी रमणीय और मुनियों के मन को भी मोह लेनेवाली थी। उसके साथ विवाह करके कामदेव को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। अपनी रति नामक सुन्दरी स्त्री को देखकर उसके हाव-भाव आदि से अनुरंजित हो कामदेव मोहित हो गया। तात! उस समय बड़ा भारी उत्सव होने लगा, जो सबके सुख को बढ़ानेवाला था। प्रजापति दक्ष इस बात को सोचकर बड़े प्रसन्न थे कि मेरी पुत्री इस विवाह से सुखी है। कामदेव को भी बड़ा सुख मिला। उसके सारे दुःख दूर हो गये। दक्षकन्या रति भी कामदेव को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। जैसे संध्याकाल में मनोहारिणी विद्युन्माला के साथ मेघ शोभा पाता है, उसी प्रकार रति के साथ प्रिय वचन बोलनेवाला कामदेव बड़ी शोभा पा रहा था। इस प्रकार रति के प्रति भारी मोह से युक्त रतिपति कामदेव ने उसे उसी तरह अपने हृदय के सिंहासन पर बिठाया, जैसे योगी पुरुष योगविद्या को हृदय में धारण करता है। इसी प्रकार पूर्ण चन्द्रमुखी रति भी उस श्रेष्ठ पति को पाकर उसी तरह सुशोभित हुई, जैसे श्रीहरि को पाकर पूर्णचन्द्रानना लक्ष्मी शोभा पाती हैं।

सूतजी कहते हैं – ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और भगवान् शंकर का स्मरण करके हर्षपूर्वक बोले – 'महाभाग! विष्णुशिष्य! महामते! विधातः! आपने चन्द्रमौलि शिव की यह अद्भुत लीला कही है। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि विवाह के पश्चात् जब कामदेव प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को चला गया, दक्ष भी अपने घर को पधारे तथा आप और आपके मानस पुत्र भी अपने-अपने धाम को चले गये, तब पितरों को उत्पन्न करने वाली ब्रह्मकुमारी संध्या कहाँ गयी? उसने क्या किया और किस पुरुष के साथ उसका विवाह हुआ? संध्या का यह सब चरित्र विशेष रूप से बताइये।

ब्रह्माजी ने कहा – मुने! संध्या का वह सारा शुभ चरित्र सुनो, जिसे सुनकर समस्त कामिनियाँ सदा के लिये सती-साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या, जो पहले मेरी मानस पुत्री थी, तपस्या करके शरीर को त्याग कर मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की बुद्धिमती पुत्री होकर अरुन्धती के नाम से विख्यात हुई। उत्तम व्रत का पालन करके उस देवी ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के कहने से श्रेष्ठ व्रतधारी महात्मा वशिष्ठ को अपना पति चुना। वह सौम्य स्वरूपवाली देवी सबकी वन्दनीया और पूजनीया श्रेष्ठ पतिव्रता के रूप में विख्यात हुई।

नारदजी नी पूछा –भगवन्! संध्या ने कैसे, किस लिये और कहाँ तप किया? किस प्रकार शरीर त्याग कर वह मेधातिथि की पुत्री हुई? ब्रह्मा, विष्णु और शिव – इस तीनों देवताओं के बताये हुए श्रेष्ठ व्रतधारी महात्मा वसिष्ठ को उसने किस तरह अपना पति बनाया? पितामह! यह सब मैं विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। अरुन्धती के इस कौतूहलपूर्ण चरित्र का आप यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजी ने कहा – मुने! संध्या के मन में एक बार सकाम भाव आ गया था, इसलिये उस साध्वी ने यह निश्चय किया कि 'वैदिक मार्ग के अनुसार मैं अग्नि में अपने इस शरीर की आहुति दे दूँगी। आज से इस भूतल पर कोई भी देहधारी उत्पन्न होते ही कामभाव से युक्त न हों, इसके लिये मैं कठोर तपस्या करके मर्यादा स्थापित करूँगी (तरुणावस्था से पूर्व किसी पर भी काम का प्रभाव नहीं पड़ेगा, ऐसी सीमा निर्धारित करूँगी)। इसके बाद इस जीवन को त्याग दूँगी।'

मन-ही-मन ऐसा विचार करके संध्या चन्द्रभाग नामक उस श्रेष्ठ पर्वत पर चली गयी, जहाँ से चंद्रभागा नदी का प्रादुर्भाव हुआ है। मन में तपस्या का दृढ़ निश्चय ले संध्या को श्रेष्ठ पर्वत पर गयी हुई जान मैंने अपने समीप बैठे हुए वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान्, सर्वज्ञ, जितात्मा एवं ज्ञानयोगी पुत्र वसिष्ठ से कहा – 'बेटा वसिष्ठ! मनस्विनी संध्या तपस्या की अभिलाषा से चन्द्रभाग नामक पर्वत पर गयी है। तुम जाओ और उसे विधिपूर्वक दीक्षा दो। तात! वह तपस्या के भाव को नहीं जानती है। इसलिये जिस तरह तुम्हारे यथोचित उपदेश से उसे अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हो सके, वैसा प्रयत्न करो।'

नारद! मैंने दयापूर्वक जब वसिष्ठ को इस प्रकार आज्ञा दी, तब वे 'जो आज्ञा' कहकर एक तेजस्वी ब्रह्मचारी के रूप में संध्या के पास गये। चन्द्रभाग पर्वत पर एक देवसरोवर है, जो जलाशयोचित गुणों से परिपूर्ण हो मानससरोवर के समान शोभा पाता है। वसिष्ठ ने उस सरोवर को देखा और उसके तट पर बैठी हुई संध्या पर भी दृष्टिपात किया। कमलों से प्रकाशित होने वाला वह सरोवर तट पर बैठी हुई संध्या से उपलक्षित हो उसी तरह सुशोभित हो रहा था, जैसे प्रदोषकाल में उदित हुए चन्द्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभा पाता है। सुन्दर भाववाली संध्या को वहाँ बैठी देख मुनि ने कौतूहलपूर्वक उस बृहल्लोहित नाम वाले सरोवर को अच्छी तरह देखा। उसी प्राकार भूत पर्वत के शिखर से दक्षिण समुद्र की ओर जाती हुई चन्द्रभागा नदी का भी उन्होंने दर्शन किया। जैसे गंगा हिमालय से निकल कर समुद्र की ओर जाती है, उसी प्रकार चन्द्रभाग के पश्चिम शिखर का भेदन करके वह नदी समुद्र की ओर जा रही थी। उस चन्द्रभाग पर्वत पर बृहल्लोहित सरोवर के किनारे बैठी हुई संध्या को देखकर वसिष्ठजी ने आदरपूर्वक पूछा।

वसिष्ठजी बोले – भद्रे! तुम इस निर्जन पर्वत पर किस लिये आयी हो? किसकी पुत्री हो और तुमने वहाँ क्या करने का विचार किया है? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि छिपाने योग्य बात न हो तो बताओ।

महात्मा वसिष्ठ की यह बात सुनकर संध्या ने उन महात्मा की ओर देखा। वे अपने तेज से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो ब्रह्मचर्य देह धारण करके आ गया हो। वे मस्तक पर जटा धारण किये बड़ी शोभा पा रहे थे। संध्या ने उन तपोधन को आदरपूर्वक प्रणाम करके कहा।

संध्या बोली – ब्रह्मन्! मैं ब्रह्माजी की पुत्री हूँ। मेरा नाम संध्या हैं और मैं तपस्या करने के लिए इस निर्जन पर्वत पर आयी हूँ। यदि मुझे उपदेश देना आपको उचित जान पड़े तो आप मुझे तपस्या की विधि बताइये। मैं यही करना चाहती हूँ। दूसरी कोई भी गोपनीय बात नहीं है। मैं तपस्या के भाव को – उसके करने के नियम को बिना जाने ही तपोवन में आ गयी हूँ। इसलिए चिन्ता से सूखी जा रही हूँ और मेरा हृदय काँपता है।

संध्या की बात सुनकर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ वसिष्ठजी ने, जो स्वयं सारे कार्यों के ज्ञाता थे, उससे दूसरी कोई बात नहीं पूछी। वह मन-ही-मन तपस्या का निश्चय कर चुकी थी और उसके लिये अत्यन्त उद्यमशील थी। उस समय वसिष्ठ ने मन से भक्तवत्सल भगवान् शंकर का स्मरण करके इस प्रकार कहा।

वसिष्ठजी बोले – शुभानने! जो सबसे महान् और उत्कृष्ट तेज हैं, जो उत्तम और महान् तप हैं तथा जो सबके परमाराध्य परमात्मा हैं, उन भगवान् शम्भु को तुम हृदय में धारण करो। जो अकेले ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के आदिकारण हैं, उन त्रिलोकी के आदिस्त्रष्टा, अद्वितीय पुरुषोत्तम शिव का भजन करो। आगे बताये जाने वाले मन्त्र से देवेश्वर शम्भु की आराधना करो। उससे तुम्हें सब कुछ मिल जायगा, इसमें संशय नहीं है। 'ॐ नमः शंकराय ॐ' इस मन्त्र का निरन्तर जप करते हुए मौन तपस्या आरम्भ करो और जो मैं नियम बताता हूँ, उन्हें सुनो। तुम्हें मौन रहकर ही स्नान करना होगा, मौनालम्बनपूर्वक ही महादेवजी की पूजा करनी होगी। प्रथम दो बार छठे समय में तुम केवल जल का पूर्ण आहार कर सकती हो। जब तीसरी बार छठा समस आये, तब केवल उपवास किया करो। इस तरह तपस्या की समाप्ति तक छठे काल में जलाहार एवं उपवास की क्रिया होती रहेगी। देवि! इस प्रकार की जाने वाली मौन तपस्या ब्रह्मचर्य का फल देने वाली तथा सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है। यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है। अपने चित्त में ऐसा शुभ उद्देश्य लेकर इच्छानुसार शंकरजी का चिन्तन करो, वे प्रसन्न होने पर तुम्हें अवश्य ही अभीष्ट फल प्रदान करेंगे।

इस तरह संध्या को तपस्या करने की विधि का उपदेश दे मुनिवर वसिष्ठ यथोचित रूप से उससे बिदा ले वहीं अन्तर्धान हो गये।

(अध्याय ३ - ५)