दक्ष की तपस्या और देवी शिवा का उन्हें वरदान देना
नारदजी ने पूछा – पूज्य पिताजी! दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले दक्ष ने तपस्या करके देवी से कौन-सा वर प्राप्त किया तथा वे देवी किस प्रकार दक्ष की कन्या हुईं?
ब्रह्माजी ने कहा – नारद! तुम धन्य हो। इन सभी मुनियों के साथ भक्तिपूर्वक इस प्रसंग को सुनो। मेरी आज्ञा पाकर उत्तम बुद्धिवाले महाप्रजापति दक्ष ने क्षीरसागर के उत्तर तट पर स्थित हो देवी जगदम्बिका को पुत्री के रूप में प्राप्त करने की इच्छा तथा उनके प्रत्यक्ष दर्शन की कामना लिये उन्हें हृदय-मन्दिर में विराजमान करके तपस्या प्रारम्भ की। दक्ष ने मन को संयम में रखकर दृढ़तापूर्वक कठोर व्रत का पालन करते हुए शौच-संतोषादि नियमों से युक्त हो तीन हजार दिव्य वर्षो तक तप किया। वे कभी जल पीकर रहते, कभी हवा पीते और कभी सर्वथा उपवास करते थे। भोजन के नाम पर कभी सूखे पत्ते चबा लेते थे।
मुनिश्रेष्ठ नारद! तदनन्तर यम नियमादि से युक्त हो जगदम्बा की पूजा में लगे हुए दक्ष को देवी शिवा ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। जगन्मयी जगदम्बा का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर प्रजापति दक्ष ने अपने-आपको कृतकृत्य माना। वे कालिका देवी सिंह पर आरूढ़ थी। उनकी अंगकान्ति श्याम थी। मुख बड़ा ही मनोहर था। वे चार भुजाओं से युक्त थीं और हाथों में वरद, अभय, नील कमल और खड्ग धारण किये हुए थीं। उनकी मूर्ति बड़ी मनोहारिणी थी। नेत्र कुछ-कुछ लाल थे। खुले हुए केश बड़े सुन्दर दिखायी देते थे। उत्तम प्रभा से प्रकाशित होने वाली उन जगदम्बा को भली-भांति प्रणाम करके दक्ष विचित्र वचनावलियों द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
दक्ष ने कहा – जगदम्ब! महामाये! जगदीशे! महेश्वरि! आपको नमस्कार है। आपने कृपा करके मुझे अपने स्वरूप का दर्शन कराया है। भगवति! आद्ये! मुझ पर प्रसन्न होइये। शिवरूपिणी! प्रसन्न होइये। भक्तवरदायिनी! प्रसन्न होइये। ज्ग्न्माये! आपको मेरा नमस्कार है। [प्रसीद भगवत्याद्ये प्रसीद शिवरूपिणि। प्रसीद भक्तवरदे जगन्माये नमोऽस्तु ते १२।१४]
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! संयत चित्तवाले दक्ष के इस प्रकार स्तुति करने पर महेश्वरी शिवा ने स्वयं ही उनके अभिप्राय को जान लिया तो भी दक्ष से इस प्रकार कहा – 'दक्ष! तुम्हारी इस उत्तम भक्ति से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। तुम अपना मनोवांछित वर माँगो। तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।'
जगदम्बा की यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और उन शिवा को बारंबार प्रणाम करते हुए बोले।
दक्ष ने कहा – जगदम्ब! महामाये! यदि आप मुझे वर देने के लिये उद्यत है तो मेरी बात सुनिये और प्रसन्नतापूर्वक मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये। मेरे स्वामी जो भगवान् शिव हैं, वे रुद्र नाम धारण करके ब्रह्माजी के पुत्र रूप से अवतीर्ण हुए हैं। वे परमात्मा शिव के पूर्णावतार हैं। परंतु आपका कोई अवतार नहीं हुआ। फिर उनकी पत्नी कौन होगी? अतः शिवे! आप भूतल पर अवतीर्ण होकर उन महेश्वर को अपने रूप-लावण्य से मोहित कीजिये। देवि! आपके सिवा दूसरी कोई स्त्री रुद्रदेव को कभी मोहित नहीं कर सकती। इसलिये आप मेरी पुत्री होकर इस समय महादेवजी की पत्नी होइये। इस प्रकार सुन्दर लीला करके आप हरमोहिनी (भगवान् शिव को मोहित करने वाली) बनिये। देवि! यही मेरे लिये वर है। यह केवल मेरे ही स्वार्थ की बात हो, ऐसा नहीं सोचना चाहिये। इसमें मेरे ही साथ सम्पूर्ण जगत् का भी हित है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव में से ब्रह्माजी की प्रेरणा से मैं यहाँ आया हूँ।
प्रजापति दक्ष का यह वचन सुनकर जगदम्बिका शिवा हँस पड़ी और मन-ही-मन भगवान् शिव का स्मरण करके वो बोलीं।
देवी ने कहा – तात! प्रजापते! दक्ष! मेरी उत्तम बात सुनो। मैं सत्य कहती हूँ, तुम्हारी भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हो तुम्हें सम्पूर्ण मनोवांछित वस्तु देने के लिये उद्यत हूँ। दक्ष! यद्यपि मैं महेश्वरी हूँ, तथापि तुम्हारी भक्ति के अधीन हो तुम्हारी पत्नी के गर्भ से तुम्हारी पुत्री के रूप में अवतीर्ण होऊँगी – इसमें संशय नहीं है। अनघ! मैं अत्यन्त दुस्सह तपस्या करके ऐसा प्रयत्न करूँगी जिससे महादेवजी का वर पाकर उनकी पत्नी हो जाऊं। इसके सिवा और किसी उपाय से कार्य सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि वे भगवान् सदाशिव सर्वथा निर्विकार हैं, ब्रह्मा और विष्णु के भी सेव्य हैं तथा नित्य परिपूर्णरूप ही हैं। मैं सदा उनकी दासी और प्रिया हूँ। प्रत्येक जन्म में वे नानारूपधारी शम्भु ही मेरे स्वामी होते हैं। भगवान् सदाशिव अपने दिये हुए वर के प्रभाव से ब्रह्माजी की भ्रुकुटी से रुद्ररूप में अवतीर्ण हुए हैं। मैं भी उनके वर से उनकी आज्ञा के अनुसार यहाँ अवतार लूँगी। तात! अब तुम अपने घर को जाओ। इस कार्य में जो मेरी दूती अथवा सहायिका होगी, उसे मैंने जान लिया है। अब शीघ्र ही मैं तुम्हारी पुत्री होकर महादेवजी की पत्नी बनूँगी।
दक्ष से यह उत्तम वचन कहकर मन-ही-मन शिव की आज्ञा प्राप्त करके देवी शिवा ने शिव के चरणारविन्दों को चिन्तन करते हुए फिर कहा – 'प्रजापते! परंतु मेरा एक प्रण है, उसे तुम्हें सदा मन में रखना चाहिये। मैं उस प्रण को सुना देती हूँ। तुम उसे सत्य समझो, मिथ्या न मानो। यदि कभी मेरे प्रति तुम्हारा आदर घट जायगा, तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूँगी, अपने स्वरूप में लीन हो जाऊँगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूँगी। मेरा यह कथन सत्य है। प्रजापते! प्रत्येक सर्ग या कल्प के लिये तुम्हें यह वर दे दिया गया – मैं तुम्हारी पुत्री होकर भगवान् शिव की पत्नी होऊँगी।'
मुख्य प्रजापति दक्ष से ऐसा कहकर महेश्वरी शिवा उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं। दुर्गाजी के अन्तर्धान होने पर दक्ष भी अपने आश्रम को लौट गये और यह सोचकर प्रसन्न रहने लगे कि देवी शिवा मेरी पुत्री होने वाली हैं।
(अध्याय ११ - १२)