ब्रह्माजी की आज्ञा से दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों और शबलाश्वों को निवृत्तिमार्ग में भेजने के कारण दक्ष का नारद को शाप देना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! प्रजापति दक्ष अपने आश्रम पर जाकर मेरी आज्ञा पा हर्ष भरे मन से नाना प्रकार की मानसिक सृष्टि करने लगे। उस प्रजासृष्टि को बढ़ती हुई न देख प्रजापति दक्ष ने अपने पिता मुझ ब्रह्मा से कहा।

दक्ष बोले – ब्रह्मन्! तात! प्रजानाथ! प्रजा बढ़ नहीं रही है। प्रभो! मैंने जितने जीवों की सृष्टि की थी, वे सब उतने ही रह गये हैं। प्रजानाथ! मैं क्या करूँ? जिस उपाय से ये जीव अपने-आप बढ़ने लगें, वह मुझे बताइये। तदनुसार मैं प्रजा की सृष्टि करूँगा, इसमें संशय नहीं है।

ब्रह्माजी ने (मैंने) कहा – तात! प्रजापते दक्ष! मेरी उत्तम बात सुनो और उसके अनुसार कार्य करो। सुरश्रेष्ठ भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। प्रजेश! प्रजापति पंचजन (वीरण) की जो परम सुन्दरी पुत्री असिक्नी है, उसे तुम पत्नी रूप से ग्रहण करो। स्त्री के साथ मैथुन-धर्म का आश्रय ले तुम पुनः इस प्रजासर्ग को बढ़ाओ। असिक्नी जैसी कामिनी के गर्भ से तुम बहुत-सी संताने उत्पन्न कर सकोगे।

तदनन्तर मैथुन-धर्म से प्रजा की उत्पत्ति करने के उद्देश्य से प्रजापति दक्ष ने मेरी आज्ञा के अनुसार वीरण प्रजापति की पुत्री के साथ विवाह किया। अपनी स्त्री वीरिणी के गर्भ से प्रजापति दक्ष ने दस हजार पुत्र उत्पन्न किये, जो हर्यश्व कहलाये। मुने! वे सब-के-सब पुत्र समान धर्म का आचरण करने वाले हुए। पिता की भक्ति में तत्पर रहकर वे सदा वैदिक मार्ग पर ही चलते थे। एक समय पिता ने उन्हें प्रजा की सृष्टि करने का आदेश दिया। तात! तब वे सभी दाक्षायण नामधारी पुत्र सृष्टि के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये पश्चिम दिशा की ओर गये। वहाँ नारायण-सर नामक परम पावन तीर्थ है, जहाँ दिव्य सिन्धु नद और समुद्र का संगम हुआ है। उस तीर्थ जल का ही निकट से स्पर्श करते उनका अन्तःकरण शुद्ध एवं ज्ञान से सम्पन्न हो गया। उनकी आन्तरिक मलराशि धुल गयी और वे परमहंस धर्म में स्थित हो गये। दक्ष के वे सभी पुत्र पिता के आदेश में बँधे हुए थे। अतः मन को सुस्थिर करके प्रजा की वृद्धि के लिये वहाँ तप करने लगे। वे सभी सत्पुरुषों में श्रेष्ठ थे।

नारद! जब तुम्हें पता लगा कि हर्यश्वगण सृष्टि के लिये तपस्या कर रहे हैं, तब भगवान् लक्ष्मीपति के हार्दिक अभिप्राय को जानकर तुम स्वयं उनके पास गये और आदरपूर्वक यों बोले – 'दक्षपुत्र हर्यश्वगण! तुम लोग पृथ्वी का अन्त देखे बिना सृष्टि-रचना करने के लिये कैसे उद्यत हो गये?'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! हर्यश्व आलस्य से दूर रहने वाले थे और जन्मकाल से ही बड़े बुद्धिमान् थे। वे सब-के-सब तुम्हारा उपर्युक्त कथन सुनकर स्वयं उस पर विचार करने लगे। उन्होंने यह विचार किया कि 'जो उत्तम शास्त्ररूपी पिता के निवृत्तिपरक आदेश को नहीं समझता, वह केवल रज आदि गुणों पर विश्वास करने वाला पुरुष सृष्टि निर्माण का कार्य कैसे आरम्भ कर सकता है।' ऐसा निश्चय करके वे उत्तम बुद्धि और एकचित्तवाले दक्ष कुमार नारद को प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके ऐसे पथ पर चले गये, जहाँ जाकर कोई वापस नहीं लौटता है। नारद! तुम भगवान् शंकर के मन हो और मुने! तुम समस्त लोकों में अकेले विचरा करते हो। तुम्हारे मन में कोई विकार नहीं है; क्योंकि तुम सदा महेश्वर की मनोवृत्ति के अनुसार ही कार्य करते हो। जब बहुत समय बीत गया, तब मेरे पुत्र प्रजापति दक्ष को यह पता लगा कि मेरे सभी पुत्र नारद से शिक्षा पाकर नष्ट हो गये (मेरे हाथ से निकल गये)। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे बार-बार कहने लगे – उत्तम संतानों का पिता होना शोक का ही स्थान है (क्योंकि श्रेष्ठ पुत्रों के बिछुड़ जाने से पिता को बड़ा कष्ट होता है)। शिव की माया से मोहित होने से दक्ष को पुत्रवियोग के कारण बहुत शोक होने लगा। तब मैंने आकर अपने बेटे दक्ष को बड़े प्रेम से समझाया और सान्त्वना दी। दैव का विधान प्रबल होता है – इत्यादि बातें बताकर उनके मन को शान्त किया। मेरे सान्त्वना देने पर दक्ष पुनः पंचजनकन्या असिक्नी के गर्भ से शबलाश्व नाम के एक सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये। पिता का आदेश पाकर वे पुत्र भी प्रजास्रुष्टि के लिये दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा पालन का नियम ले उसी स्थान पर गये, जहाँ उनके सिद्धि को प्राप्त हुए बड़े भाई गये थे। नारायण सरोवर के जल का स्पर्श होने मात्र से उनके सारे पाप नष्ट हो गये, अन्तःकर्ण में शुद्धता आ गयी और वे उत्तम व्रत के पालक शबलाश्व ब्रह्म (प्रणव) का जप करते हुए वहाँ बड़ी भारी तपस्या करने लगे। उन्हें प्रजास्रुष्टि के लिये उद्यत जान तुम पुनः पहले की ही भाँति ईश्वरीय गति का स्मरण करते हुए उनके पास गये और वही बात कहने लगे, जो उनके भाइयों से पहले कह चुके थे। मुने! तुम्हारा दर्शन अमोघ है, इसलिये तुमने उनको भी भाइयों का ही मार्ग दिखाया। अतएव वे भाइयों के ही पथ पर ऊर्ध्वगति को प्राप्त हुए। उसी समय प्रजापति दक्ष को बहुत-से उत्पात दिखायी दिये। इससे मेरे पुत्र दक्ष को बड़ा विस्मय हुआ और वे मन-ही-मन दुःखी हुए। फिर उन्होंने पूर्ववत् तुम्हारी ही करतूत से अपने पुत्रों का नाश हुआ सुना, इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे पुत्रशोक से मुर्च्छित हो अत्यन्त कष्ट का अनुभव करने लगे। फिर दक्ष ने तुम पर बड़ा क्रोध किया और कहा – 'यह नारद बड़ा दुष्ट है।' दैववश उसी समय तुम दक्ष पर अनुग्रह करने के लिये वहाँ आ पहुँचे। तुम्हें देखते ही शोकावेश से मुक्त हुए दक्ष के ओठ रोष से फड़कने लगे। तुम्हें सामने पाकर वे धिक्कारने और निन्दा करने लगे।

दक्ष ने कहा – ओ नीच! तुमने यह क्या किया? झूठ-मूठ साधुओं का बाना पहन रखा है। इसी के द्वारा ठग कर हमारे भोले-भाले बालकों को जो तुमने भिक्षुओं का मार्ग दिखाया है, यह अच्छा नहीं किया। तुम निर्दय और शठ हो। इसीलिये तुमने हमारे इन बालकों के, जो अभी ऋषि-ऋण, देव-ऋण और पितृ-ऋण [ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय से ऋषि-ऋण, यज्ञ और पूजा आदि से देव-ऋण तथा पुत्र के उत्पादन से पितृ-ऋण का निवारण होता है।] से मुक्त नहीं हो पाये थे, लोक और परलोक दोनों के श्रेय का नाश कर डाला। जो पुरुष इन तीनों ऋणों को उतारे बिना ही मोक्ष की इच्छा मन में लिये माता-पिता को त्याग कर घर से निकल जाता है – संन्यासी हो जाता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है। तुम निर्दय और बड़े निर्लज्ज हो। बच्चों की बुद्धि में भेद पैदा करने वाले हो और अपने सुयश को स्वयं ही नष्ट कर रहे हो। मूढ़मते! तुम भगवान् विष्णु के पार्षदों में व्यर्थ ही घूमते-फिरते हो। अधमाधम! तुमने बारंबार मेरा अमंगल किया है। अतः आज से तीनों लोकों में विचरते हुए तुम्हारा पैर कहीं स्थिर नहीं रहेगा अथवा कहीं भी तुम्हें ठहरने के लिये सुस्थिर ठौर-ठिकाना नहीं मिलेगा।'

नारद! यद्यपि तुम साधू पुरुषों द्वारा सम्मानित हो, तथापि उस समय दक्ष ने शोकवश तुम्हें वैसा शाप दे दिया। वे ईश्वर की इच्छा को नहीं समझ सके। शिव की माया ने उन्हें अत्यन्त मोहित कर दिया था। मुने! तुमने उस शाप को चुपचाप ग्रहण कर लिया और अपने चित्त में विकार नहीं आने दिया। यही ब्रह्मभाव है। ईश्वर कोटि के महात्मा पुरुष स्वयं शाप को मिटा देने में समर्थ होने पर भी उसे सह लेते हैं।

(अध्याय १३)