सती की तपस्या से संतुष्ट देवताओं का कैलास में जाकर भगवान् शिव का स्तवन करना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! एक दिन मैंने तुम्हारे साथ जाकर पिता के पास खड़ी हुई सती को देखा। वह तीनों लोकों की सारभूता सुन्दरी थी। उसके पिता ने मुझे नमस्कार करके तुम्हारा भी सत्कार किया। यह देख लोक-लीला का अनुसरण करने वाली सती ने भक्ति और प्रसन्नता के साथ मुझको और तुमको भी प्रणाम किया। नारद! तदनन्तर सती की ओर देखते हुए हम और तुम दक्ष के दिये हुए शुभ आसन पर बैठ गये। तत्पश्चात् मैंने उस विनयशीला बालिका से कहा – 'सती! जो केवल तुम्हें ही चाहते हैं और तुम्हारे मन में भी एकमात्र जिनकी ही कामना है, उन्हीं सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेवजी को तुम प्रतिरूप में प्राप्त करो। शुभे! जो तुम्हारे सिवा दूसरी किसी स्त्री को पत्नी रूप में न तो ग्रहण कर सके हैं, न करते हैं और न भविष्य में ही ग्रहण करेंगे, वे ही भगवान् शिव तुम्हारे पति हों। वे तुम्हारे ही योग्य हैं, दुसरे के नहीं।'
नारद! सती से ऐसा कहकर मैं दक्ष के घर में देर तक ठहरा रहा। फिर उनसे बिदा ले मैं और तुम दोनों अपने-अपने स्थान को चले आये। मेरी बात को सुनकर दक्ष को बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी सारी मानसिक चिन्ता दूर हो गयी और उन्होंने अपनी पुत्री को परमेश्वरी समझकर गोद में उठा लिया। इस प्रकार कुमारोचित सुन्दर लीला-विहारों से सुशोभित होती हुई भक्तवत्सला सती, जो स्वेच्छा से मानव रूप धारण करके प्रकट हुई थी, कौमारावस्था पार कर गयीं। बाल्यावस्था बिताकर किंचित् युवावस्था को प्राप्त हुई सती अत्यन्त तेज एवं शोभा से सम्पन्न हो सम्पूर्ण अंगों से मनोहर दिखायी देने लगीं। लोकेश दक्ष ने देखा कि सती के शरीर में युवावस्था के लक्षण प्रकट होने लगे हैं। तब उनके मन में यह चिन्ता हुई कि मैं महादेवजी के साथ इनका विवाह कैसे करूँ? सती स्वयं भी महादेवजी को पाने की प्रतिदिन अभिलाषा रखती थीं। अतः पिता के मनोभाव को समझकर वे माता के निकट गयीं। विशाल बुद्धिवाली सती रूपिणी परमेश्वरी शिवा ने अपनी माता वीरिणी से भगवान् शंकर की प्रसन्नता के निमित्त तपस्या करने के लिये आज्ञा माँगी। माता की आज्ञा मिल गयी। अतः दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाली सती ने महेश्वर को पति रूप में प्राप्त करने के लिये अपने घर पर ही उनकी आराधना आरम्भ की।
आश्विन मास में नन्दा (प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी) तिथियों में उन्होंने भक्तिपूर्वक गुड़, भात और नमक चढ़ाकर भगवान् शिव का पूजन किया और उन्हें नमस्कार करके उसी नियम के साथ उस मास को व्यतीत किया। कार्तिक मास की चतुर्दशी को सजाकर रखे हुए मालपूओं और खीर से परमेश्वर शिव की आराधना करके वे निरन्तर उनका चिन्तन करने लगीं। मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को तिल, जौ और चावल से हर की पूजा करके ज्योतिर्मय दीप दिखाकर अथवा आरती करके सती दिन बिताती थीं। पौष मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी को रात भर जागरण करके प्रातःकाल खिचड़ी का नैवेद्य लगा वे शिव की पूजा करती थीं। माघ की पूर्णिमा को रात में जागरण करके सबेरे नदी में नहातीं और गीले वस्त्र से ही तट पर बैठ कर भगवान् शंकर की पूजा करती थीं। फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को रात में जागरण करके उस रात्रि के चारों पहरों में शिवजी की विशेष पूजा करतीं और नटों द्वारा नाटक भी कराती थीं। चैत्र मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को वे दिन-रात शिव का स्मरण करती हुई समय बितातीं और ढाक के फूलों तथा दवनों से भगवान् शिव की पूजा करती थीं। वैशाख शुक्ला तृतीया को सती तिल का आहार करके रहतीं और नये जौ के भात से रुद्रदेव की पूजा करके उस महीने को बिताती थीं। ज्येष्ठ की पूर्णिमा को रात में सुन्दर वस्त्रों तथा भटकटैया के फूलों से शंकरजी की पूजा करके वे निराहार रहकर ही वह मास व्यतीत करती थीं। आषाढ़ के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को काले वस्त्र और भट कटैया के फूलों से वे रुद्रदेव का पूजन करती थीं। श्रावण मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को वे यज्ञोपवीतों, वस्त्रों तथा कुश के पवित्री से शिव की पूजा किया करती थीं। भाद्रपद मासके कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को नाना प्रकार के फूलों और फलों से शिव का पूजन करके सती चतुर्दशी तिथि को केवल जल का आहार किया करतीं। भांति-भांति के फलों, फूलों और उस समय उत्पन्न होने वाले अन्नों द्वारा वे शिव की पूजा करतीं और महीने भर अत्यन्त नियमित आहार करके केवल जप में लगी रहती थीं। सभी महीनों में सारे दिन सती शिव की आराधना में ही संलग्न रहती थीं। अपनी इच्छा से मानव रूप धारण करने वाली वे देवी दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करती थीं। इस प्रकार नन्दाव्रत को पूर्ण रूप से समाप्त करके भगवान् शिव में अनन्य भाव रखनेवाली सती एकाग्रचित्त हो बड़े प्रेम से भगवान् शिव का ध्यान करने लगीं तथा उस ध्यान में ही निश्चलभाव से स्थित हो गयीं।
मुने! इसी समय सब देवता और ऋषि भगवान् विष्णु और मुझको आगे करके सती की तपस्या देखने के लिये गये। वहाँ आकर देवताओं ने देखा, सती मूर्तिमती दूसरी सिद्धि के समान जान पड़ती हैं। वे भगवान् शिव के ध्यान में निमग्न हो उस समय सिद्धावस्था को पहुँच गयी थीं। समस्त देवताओं ने बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ दोनों हाथ जोड़कर सती को नमस्कार किया, मुनियों ने भी मस्तक झुकाये तथा श्रीहरि आदि के मन में प्रीति उमड़ आयी। श्रीविष्णु आदि सब देवता और मुनि आश्चर्यचकित हो सती देवी की तपस्या की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। फिर देवी को प्रणाम करके वे देवता और मुनि तुरंत ही गिरिश्रेष्ठ कैलास को गये, जो भगवान् शिव को बहुत ही प्रिय है। सावित्री के साथ मैं और लक्ष्मी के साथ भगवान् वासुदेव भी प्रसन्नतापूर्वक महादेवजी के निकट गये। वहाँ जाकर भगवान् शिव को देखते ही बड़े वेग से प्रणाम करके सब देवताओं ने दोनों हाथ जोड़ विनीत भाव से नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करके अन्त में कहा –
प्रभो! आपकी सत्त्व, रज और तम नामक, जो तीन शक्तियाँ हैं, उनके राग आदि वेग असह्य हैं। वेदत्रयी अथवा लोकत्रयी आपका स्वरूप है। आप शरणागतों के पालक हैं तथा आपकी शक्ति बहुत बड़ी है – उस की कही कोई सीमा नहीं है; आपको नमस्कार है। दुर्गापते! जिनकी इन्द्रियाँ दुष्ट हैं – वश में नहीं हो पातीं, उनके लिये आपकी प्राप्ति का कोई मार्ग सुलभ नहीं है। आप सदा भक्तों के उद्धार में तत्पर रहते हैं, आपका तेज छिपा हुआ है, आपको नमस्कार है। आपकी मायाशक्तिरूपा जो अहंबुद्धि हैं, उससे आत्मा का स्वरूप ढक गया है; अतएव यह मूढ़बुद्धि जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा का पार पाना अत्यन्त कठिन (ही नहीं, सर्वथा असम्भव) है। हम आप महाप्रभु को मस्तक झुकाते हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार महादेवजी की स्तुति करके श्रीविष्णु आदि सब देवता उत्तम भक्ति से मस्तक झुकाये प्रभु शिवजी के आगे चुपचाप खड़े हो गये।
(अध्याय १५)